ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 15
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्रासोमौ रक्षोहणी
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒द्या मु॑रीय॒ यदि॑ यातु॒धानो॒ अस्मि॒ यदि॒ वायु॑स्त॒तप॒ पूरु॑षस्य । अधा॒ स वी॒रैर्द॒शभि॒र्वि यू॑या॒ यो मा॒ मोघं॒ यातु॑धा॒नेत्याह॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द्य । मु॒री॒य॒ । यदि॑ । या॒तु॒ऽधानः॑ । अस्मि॑ । यदि॑ । वा॒ । आयुः॑ । त॒तप॑ । पुरु॑षस्य । अध॑ । सः । वी॒रैः । द॒शऽभिः॑ । वि । यू॒याः॒ । यः । मा॒ । मोघ॑म् । यातु॑ऽधा॒न । इति॑ । आह॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य । अधा स वीरैर्दशभिर्वि यूया यो मा मोघं यातुधानेत्याह ॥
स्वर रहित पद पाठअद्य । मुरीय । यदि । यातुऽधानः । अस्मि । यदि । वा । आयुः । ततप । पुरुषस्य । अध । सः । वीरैः । दशऽभिः । वि । यूयाः । यः । मा । मोघम् । यातुऽधान । इति । आह ॥ ७.१०४.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अद्य) अस्मिन्नेव दिने (मुरीय) मृत्युं प्राप्नुयां (यदि) चेदहं (यातुधानः अस्मि) दण्डार्हो भवेयं तदा, (यदि, वा) अथवा (पूरुषस्य) मनुजस्य (आयुः, ततप) आयुरपि तपेयं (अध) तदा (वीरैः, दशभिः) उपलक्षणमेतत् सर्वैः कुटुम्बिजनैः सह (वियूयाः) वियुक्तो भवेत् (यः) यो मिथ्यावादी (मा) मां (मोघम्) मिथ्यैव (यातुधानेति) त्वं यातुधानोऽसीति (आह) ब्रवीति सः ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अद्य) आज ही (मुरीय) मृत्यु को प्राप्त होऊँ (यदि) यदि मैं (यातुधानः) दण्ड का (अस्मि) भागी होऊँ (यदि वा) अथवा (पूरुषस्य) पुरुष की (आयुः, ततप) आयु को तपानेवाला होऊँ, (अध) तब (वीरैः दशभिः) दशवीर सन्तान से (वियूयाः) वियुक्त वह पुरुष हो, (यः) जो (मोघं) वृथा ही (यातुधानेति) यातुधान ऐसा (आह) कहता है ॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र से पूर्व के मन्त्र में मिथ्या देवों के पुजारियों को (यातुधाना) राक्षस वा दण्ड के भागी कथन किया गया है, उसी प्रकरण में वेदानुयायी आस्तिक पुरुष शपथ खाकर कहता है कि यदि मैं भी ऐसा हूँ, तो मेरा जीना सर्वथा निष्फल है, इससे मर जाना भला है। इस मन्त्र में परमात्मा ने इस बात की शिक्षा दी है कि जो पुरुष संसार का उपकार नहीं करता और सच्चे विश्वास से संसार में आस्तिक भाव का प्रचार नहीं करता, उसका जीना पृथ्वी के लिए एकमात्र भार है, उससे कोई लौकिक वा पारलौकिक उपकार नहीं।इसी भाव को भगवान् कृष्ण गीता में यों कहते हैं “अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति”। हे अर्जुन ! जो पापमय आयु व्यतीत करता है और केवल अपने इन्द्रिय के ही भोगों में रत है, उसका जीवन सर्वथा निष्फल है। मालूम होता है वेद के उक्त (मोघ) शब्द से ही गीता में “मोघं पार्थ जीवति” यह वाक्य लिया गया है, कहीं अन्यत्र से नहीं। विशेष ध्यान रखने योग्य वेद की यह अपूर्व्वता अर्थात् अनूठापन है कि इसमें अपनी पवित्रता के लिए जीव शपथें खाता है और विधर्म्मी लोगों के धर्म्मपुस्तकों में अपनी सफाई के लिए ईश्वर भी शपथें खाकर विश्वास दिलाया करता है ॥१५॥
विषय
पीड़ादायियों को दण्ड ।
भावार्थ
( यदि ) यदि मैं ( यातुधानः ) अन्यों को पीड़ा, यातना देने वाला, ( अस्मि ) होऊं और ( यदि वा ) जो मैं ( पुरुषस्य ) मनुष्य के ( आयुः ) जीवन को ( ततप ) पीड़ित करूं, मानव जीवन के संताप का कारण बनूं तो मैं ( अद्य मुरीय ) आज ही मृत्यु को प्राप्त होऊं । अर्थात् अन्य की पीड़ा देने और मनुष्य जीवन को हानि पहुंचाने वाले को अति शीघ्र मृत्यु-दण्ड हो । ( अद्य ) और ( यः ) जो (मोघं ) व्यर्थ, विना प्रयोजन के (मा) मुझे ( यातुधान इति आहः ) पीड़ादायक, क्रूर ऐसा कहे ( सः ) वह तू ( दशभिः वीरैः ) दशों प्रकार के प्राणों से ( वि यूयाः वियुक्त हो । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ देवताः – १ –७, १५, २५ इन्द्रासोमो रक्षोहणौ ८, । ८, १६, १९-२२, २४ इन्द्रः । ९, १२, १३ सोमः । १०, १४ अग्निः । ११ देवाः । १७ ग्रावाणः । १८ मरुतः । २३ वसिष्ठः । २३ पृथिव्यन्तरिक्षे ॥ छन्द:१, ६, ७ विराड् जगती । २ आर्षी जगती । ३, ५, १८, २१ निचृज्जगती । ८, १०, ११, १३, १४, १५, १७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ आर्षी त्रिष्टुप् । १२, १६ विराट् त्रिष्टुप् । १६, २०, २२ त्रिष्टुप् । २३ आर्ची भुरिग्जगती । २४ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २५ पादनिचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
अंग-भंग द्वारा दण्ड
पदार्थ
पदार्थ- (यदि) = यदि मैं (यातुधान:) = अन्यों का पीड़क (अस्मि) = होऊँ और (यदि वा) = जो मैं (पूरुषस्य) = मनुष्य के (आयुः) = जीवन को (ततप) = पीड़ित करूँ, तो मैं (अद्य मुरीय) = आज ही मृत्यु को प्राप्त होऊँ । अन्य को पीड़ा देने और मनुष्य को हानि पहुँचानेवाले को मृत्युदण्ड हो। (अद्य) = और (यः) = जो (मोघं) = व्यर्थ, (मा) = मुझे (यातुधान इति आह) = पीड़ादायक कहे (सः) = वह तू (दशभिः वीरैः) = दशों प्रकार के प्राणों या दशों अंगुलियों, दोनों हाथों से (वि यूया:) = वियुक्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ - यदि कोई दुष्ट अन्धे लोगों को दुःखी करे या अन्य लोगों को कष्ट पहुँचावे ऐसे दुष्ट को राजा कठोर दण्ड दे। और यदि कोई व्यक्ति पीड़ित करने का झूठा आरोप लगावे तो उसे अंग-भंग करके दण्डित करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
If I were a demon on the move, and if I tormented any person in life, then let me suffer death today just now. But I am not such, nor have I done so. Then let that man be forsaken of all his ten faculties of power and prana who falsely proclaims that I am a demonic tormentor of others.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राच्या पूर्वीच्या मंत्रात मिथ्या देवांच्या पुजारींना (यातुधाना) राक्षस किंवा दंडाचे पात्र म्हटलेले आहे. त्याचसंदर्भात वेदानुयायी आस्तिक पुरुष शपथेने म्हणतो, की जर मी असा असेन, तर माझे जीवन व्यर्थ आहे, यापेक्षा मृत्यू बरा. या मंत्रात परमेश्वराने ही शिकवण दिलेली आहे, की जो पुरुष जगावर उपकार करीत नाही व खऱ्या अर्थाने जगात आस्तिक भावाचा प्रचार करीत नाही त्याचे जगणे (जीवन) पृथ्वीवर भारमात्र आहे. त्याच्यापासून कोणताही लौकिक किंवा पारलौकिक उपकार होत नाही.
टिप्पणी
हाच भाव भगवान कृष्ण गीतेत म्हणतात, ‘‘अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति’’ हे अर्जुन जो पापमय जीवन व्यतीत करतो व आपल्या इंद्रियांच्या भोगात रत असतो त्याचे जीवन सर्वस्वी निष्फल आहे. वेदाच्या वरील (मोघ) शब्दानेच गीतेत ‘‘मोघं पार्थ स जीवति’’ हे वाक्य घेतलेले आहे. इतर कशातून नाही. विशेष लक्षात घेण्यासारखी वेदाची अपूर्वता आहे. त्यात जीव आपल्या पवित्रतेसाठी शपथ घेतो व विधर्मी लोकांच्या धर्मपुस्तकात आपल्याकडून त्यांचा ईश्वरही शपथ घेऊन विश्वास निर्माण करण्याचा यत्न करतो. ॥१५॥
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