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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
म॒हे च॒न त्वाम॑द्रिव॒: परा॑ शु॒ल्काय॑ देयाम् । न स॒हस्रा॑य॒ नायुता॑य वज्रिवो॒ न श॒ताय॑ शतामघ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हे । च॒न । त्वाम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । परा॑ । शु॒ल्काय॑ । दे॒या॒म् । न । स॒हस्रा॑य । न । अ॒युता॑य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । न । श॒ताय॑ । श॒त॒ऽम॒घ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महे चन त्वामद्रिव: परा शुल्काय देयाम् । न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥
स्वर रहित पद पाठमहे । चन । त्वाम् । अद्रिऽवः । परा । शुल्काय । देयाम् । न । सहस्राय । न । अयुताय । वज्रिऽवः । न । शताय । शतऽमघ ॥ ८.१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज
जैसा यमराज व नाचिकेता की चर्चा आती है, जब यमराज से नाचिकेता ने कहा कि महाराज कि महाराज! मैं आत्मा के तत्वों को जानना चाहता हूँ, यह आत्मा शरीरों को त्याग करके कहाँ जाता है उस समय यमाचार्य ने बेटा! क्या कहा था तुम्हे प्रतीत है यमाचार्य ने कहा था हे ब्रह्मचारी! तू संसार के वैभव को क्यों नही प्राप्त करता, संसार के राष्ट्र को स्वीकार कर नाना पत्नियां हों, नाना कामधेनु गऊं, तेरे द्वारा होनी चाहिए। ऐश्वर्य सर्वत्र तेरे द्वारा हो, बालक नाचिकेता ने क्या उत्तर दिया जिज्ञासु ने बालक नाचिकेता ने यही कहा था क्या भगवन यह विद्या आप मुझे प्रदान करने इस द्रव्य का मुझे प्रलोभन इस संसार के द्रव्य का, वैभव का मुझे प्रलोभन दे रहे हैं। यह प्रलोभन तो भगवन ऐसा है, यह द्रव्य तो संसार का आज रहेगा, कल यह नही रहेगा। जब नही रहेगा तो कष्ट अपार होगा, और भगवन मैं इस द्रव्य को जानना चाहता हूँ, उस सम्पदा को जानना चाहता हूँ, जो भगवन इस शरीर को त्यागने के पश्चात भी वह सदा मेरे द्वारा बनी रहे। मेरे प्यारे! बालक जिज्ञासु ने जब यह कहा तो यमाचार्य का अन्तरात्मा गद् गद् हो गया और यह कहा कि यह ब्रह्मचारी तो इस विद्या का, तो इसे अधिकार है मेरे प्यारे! यहां नाना ऋषि मुनियों ने इसी प्रकार की प्रतिभा। अब यह बेटा! यह तो ब्रह्म विद्या की चर्चा आ गई।
मुनिवरों! ज्ञान के सम्बन्ध में, आज एक वार्ता स्मरण होती चली जा रही है और वह यह है, कि कहते हैं एक राजा थे। उस राजा के राष्ट्र में कोई भी एक दूसरे का ऋणी न था। राजा का राष्ट्र बड़ा महान, पवित्र था। राजा अपनी प्रजा में नित्यप्रति भ्रमण किया करते थे और देखा करते थे, कि मेरे राष्ट्र में कोई दुराचारी तो नहीं है। राजा के राष्ट्र में जब यह चक्र चल रहा था, एक समय वह राजा अपने कुछ सेवकों सहित पर्वतों में जा पहुँचे और सायंकाल को गृह वापिस आने लगे, तो उन्होंने देखा, कि वहाँ एक साधु है जिसके पास न तो खानपान की सामग्री है, न कोई पात्र है और न कोई वस्त्र है और न विश्राम करने वाला कोई आसन है। राजा ने अपने मन में सोचा, अरे, तू कितना बड़ा अयोग्य राजा है, जिस राजा के राष्ट्र में ऐसे दीन व्यक्ति रहते हों। राजा ने अपने सेवकों से कहा कि लो, यह दस सहस्त्र मुद्रा और उस दीन को अर्पण करके आओ। वह सेवक बेचारे मूर्ख थे, उस द्रव्य को लेकर उस साधु के द्वार पर जा पहुंचे साधु से कहा कि लीजिए भगवन! साधु ने उत्तर दिया कि किसी दीन को दे दो, जब साधु ने यह कहा, तो अज्ञानी सेवकों ने सोचा कि यह थोड़े उच्चारण कर रहा है।
सेवक उस द्रव्य को लेकर राजा के द्वार पर जा पहुँचे और कहा, महाराज! वह थोड़े उच्चारण कर रहा है। तब राजा ने कहा कि लो, ओर द्रव्य ले जाओ, कहते हैं कि राजा ने लगभग पच्चीस सहस्त्र मुद्रा दीं, सेवक द्रव्य लेकर साधु के द्वार जा पहुँचे और साधु से कहा, अब तो लो। साधु ने उत्तर दिया, भई! किसी दीन को दे दो। उन मूर्खों ने सोचा कि यह तो अब भी थोड़े ही उच्चारण कर रहा है, वह द्रव्य ले करके राजा के समक्ष जा पहुँचे और कहा कि वह तो अब भी थोड़े उच्चारण कर रहा है।
मुनिवरों! अब राजा ने एक लाख की मुद्रा दी, सेवक उस एक लाख की मुद्रा को लेकर साधु के द्वार जा पहुँचे और साधु से कहा कि अब, तो लो, साधु ने वही उत्तर दिया, भई! किसी दीन को दे दो। उन मूर्खों ने सोचा कि यह तो अब भी थोड़े का उच्चारण कर रहा है। वह वहाँ से राजा के समक्ष आए और राजा से कहा कि थोड़े हैं।
मुनिवरों! राजा ने पच्चीस लाख मुद्रा दीं, वह सेवक पच्चीस लाख मुद्रा लेकर साधु के समीप पहुँचे और साधु से कहा कि महाराज! अब तो लो। साधु ने फिर वही उत्तर दिया कि किसी दीन को दे दो। उन मूर्खों ने सोचा, यह अब भी थोड़े ही उच्चारण कर रहा है, वह सेवक वहाँ से राजा के समक्ष पहुँचे और कहा, महाराज! अब भी थोड़े उच्चारण कर रहा है।
मुनिवरों! राजा ने थोड़े जानकर एक करोड़ मुद्रा दीं, सेवक एक करोड़ मुद्रा लेकर साधु के द्वार पहुँचे और साधु से कहा कि महाराज! अब तो लो, साधु ने कहा, किसी दीन को दे दो, उन मूर्खों ने सोचा कि यह तो अब भी थोड़े उच्चारण कर रहा है और राजा से जा कहा कि महाराज! वह तो अब भी थोड़े उच्चारण कर रहा है।
साधु के वचन को पा करके राजा आश्चर्यचकित हो गए और उन्होंने २५ करोड़ मुद्रा सेवकों को दीं, सेवक साधु के द्वार जा पहुँचे और कहा, अब तो लो, साधु ने फिर भी यह ही कहा, किसी दीन को दे दो। सेवकों ने जाना कि यह तो अब भी थोड़े ही उच्चारण कर रहा है और वे वहाँ से राजा के समक्ष जा पहुँचे और कहा कि थोड़े हैं।
राजा आश्चर्य से बोला कि इतने अद्भुत द्रव्य को कौन त्यागता है, यह कैसा साधु है? मुनिवरों! राजा स्वयं एक अरब मुद्रा लेकर साधु के समीप पहुँचे और साधु से कहा कि महाराज! अब लीजिए, इस द्रव्य को।
साधु से कहा, राजन! मैंने कई काल में कहा है, कि किसी दीन को दे दो।
राजा ने कहा, प्रभु! आपसे दीन मेरे राष्ट्र में कोई नहीं है। साधु ने उत्तर दिया कि राजन! मैं दीन नहीं हूँ, मैं तो राजाओं का भी राजा हूँ।
राजा बोले, प्रभु! आपके द्वारे राष्ट्र की सामग्री कहाँ है? आपके द्वारे सेना कहाँ है?
साधु ने उत्तर दिया कि संसार में मेरा कोई शत्रु नहीं है, जब मेरा कोई शत्रु ही नहीं, तो मुझे सेना की भी आवश्यकता नहीं।
राजा बोला, चलो, शत्रु तो नहीं है, परन्तु राष्ट्र को चलाने के लिए द्रव्य कहाँ है?
साधु ने कहा, राजन! मेरे द्वारा एक रसायन ऐसी है, जिससे मैं पर्वतों को स्वर्ण बना देता हूँ और इस स्वर्ण से अपने राष्ट्र का कार्य किया करता हूँ।
राजा ने जान लिया, कि अवश्य इसके द्वारे कोई रसायन है। यदि रसायन न होती, तो इतने द्रव्य को कौन त्यागता है। मुनिवरों! सायंकाल हो चुका था। राजा वहाँ से अपने गृह जा पहुँचे। स्नान किया, भोजन पाया और विश्राम गृह में विश्राम जा किया। रात्रि हो चुकी थी। राजा के मन में विचारधाराएं आने लगीं, कि तू साधु के द्वार चल। तुझे कोई दृष्टिगोचर भी नहीं कर रहा है। उस रसायन से दस बीस सहस्त्र मण स्वर्ण बनवा लें, तू स्वर्णपति बन जाएगा। जब राजा के मन में यह कल्पना जागी, तो राजा स्वयं वहाँ से रात्रि में साधु के आश्रम पर जा पहुँचा। साधु ने जब राजा के पदों की खटखटाक सुनी, तो साधु ने कहा, कौन है? राजा ने कहा कि प्रभु! आपका सेवक राजा हूँ। साधु ने कहा, राजन! किस कारण आए हो?
मुनिवरों! राजा ने कहा कि प्रभु! मैं उस रसायन से जो आपके पास है, दस बीस सहस्त्र मण स्वर्ण बनवाने आया हूँ, स्वर्ण बना दीजिए।
साधु ने कहा, राजन! बोलो, दीन तुम हो या मैं हूँ, जो तुम मेरे द्वार मांगने आए।
राजा ने कहा, प्रभु! दीन तो मैं ही हूँ, परन्तु अब कृपा कीजिए।
जब राजा ने ऐसा कहा तो साधु बोले, अच्छा, राजन! तुम नित्यप्रति हमारे द्वार आया करो, हम तुम्हारा स्वर्ण अवश्य बना देंगे।
मुनिवरों! देखो, राजा ने साधु के वचनों का पान किया और साधु के द्वारे नित्यप्रति आना जाना प्रारम्भ कर दिया। साधु ने उन्हें आत्मा परमात्मा और प्रकृति का पूर्ण ज्ञान करा दिया। राजा का अन्तःकरण पवित्र हो गया। उन आदेशों को पान करते, लगभग एक वर्ष हो गया। एक समय साधु ने योगबल से राजा के अन्तःकरण को देखा। उसके अन्तःकरण में किसी प्रकार की त्रुटि न रही थी, दीनता अब उसके अन्तःकरण में न थी। साधु ने राजा से कहा कि राजन! आज हम तुम्हारा स्वर्ण बना देंगे, बोलो कितना स्वर्ण चाहते हो।
राजा ने कहा कि प्रभु! जो स्वर्ण आप मेरा बनाना चाहते थे, वह स्वर्ण मेरा बन चुका।
तो हे मेरे प्यारे भद्र मण्डल! आज हमें विचारना चाहिए, कि यह ज्ञान की परिपाटी है। जब मनुष्य को ज्ञान हो जाता है और विवेक हो जाता है, तो उसे संसार की कोई भी इच्छा नहीं रहती, वह पवित्र बन जाता है और संसार से पार हो जाता है।
मुनिवरों! उच्चारण करने का अभिप्राय क्या, बेटा! वार्ता तो यह उच्चारण करने लगे, परन्तु वाक्य हमारा था विष्णु। हम अपनी आत्मा को विष्णु बनाना चाहते हैं, इन सांसारिक शब्दों से उठना चाहते हैं।
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवन!।
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! देखो, कल हमारा आदेश इससे भी आगे पवित्र होगा।
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