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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 28
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडार्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒प॒ह्व॒रे गि॑री॒णां सं॑ग॒थे च॑ न॒दीना॑म् । धि॒या विप्रो॑ अजायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽह्व॒रे । गि॒री॒णाम् । स॒म्ऽग॒थे । च॒ । न॒दीना॑म् । धि॒या । विप्रः॑ । अ॒जा॒य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपह्वरे गिरीणां संगथे च नदीनाम् । धिया विप्रो अजायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽह्वरे । गिरीणाम् । सम्ऽगथे । च । नदीनाम् । धिया । विप्रः । अजायत ॥ ८.६.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 28
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    भाषार्थः पर्वतों की उपत्काय में और नदियों के संगम पर अपनी बुद्धि से अपनी स्तुतियों से मनुष्य विशेष ज्ञानी होता है।

    शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज

    गोमेध याग के बहुत से भिन्न भिन्न प्रकार के पर्यायवाची हैं, देखो, ब्रह्मचारी विद्यालय में गोमेध याग कर रहा है, एक मानो देखोए किसी नदियों के तट पर विद्यमान हो करके एक योगेश्वर जब अपनी इन्द्रियों के ऊपर संयम करता है, और इन्द्रियों के विषयों को साकल्य बना रहा है और साकल्य बना करके अपने में एकोकीकरण कर रहा है, वह मानो देखो, वह भी गोमेध याग कर रहा है।

    हमारे यहाँ आयुर्वेद की औषधियों को पान करके ऋषि योगाभ्यास करते रहे हैं और यागी बनते रहे हैं क्योंकि जब तक प्राण का संचार अच्छे विशुद्ध रूप से नही हो पाता तब तक हमारा योगी बनना असम्भव हो जाता है। क्योंकि प्राण विशुद्ध रूपों से गति करना प्राण का अपने में संघर्ष न करना बहुत अनिवार्य है। हमारे आचार्यजन एक संकल्पोमयी प्राणायाम किया करते थे। पुरातन काल में ये प्रायः हम भी कराते रहे हैं। संकल्प से प्राणायाम होते हैं। जैसे हमने संकल्प किया है सूर्य और चन्द्रमा स्वरिञ्जनी होती है। जब संकल्प के द्वारा उनका आदान प्रदान होता है। तो संकल्पोमयी प्राणायाम मानव के बहुत से रूग्णों को और चंचलता को समाप्त कर देता है। मुझे बहुत पुरातन काल की एक वार्त्ता स्मरण है। एक समय मगध राष्ट्र में चले गए थे, बहुत पुरातन काल हुआ। मगध राष्ट्र में एक सरूचिकेत नामक ऋषि थे वह राष्ट्र मे बड़े प्रसिद्ध थे वह भयंकर वनों रहते थे। नद नदियों के तट पर रहते और ब्रह्मचारियों को कुछ शिक्षा भी देते रहते, एक ब्रह्मचारी उनके द्वारा ऐसा आ पंहुचा मनोबल चंचल बन गया, चंचल कैसे बना जिसे उन्माद के रूप में परिणत करते हैं। इसे उन्माद के रूपों में वर्णन करते रहते हैं। सरूची ऋषि ने उस ब्रह्मचारी को अपने आश्रम में आसन दिया। वह उसके ऊपर अन्वेषण कर रहे थे। अन्वेषण क्या था, उनके त्रि जो दोष हैं उन दोषों के ऊपर अन्वेषण और शोधन कर रहे थे समुद्र जल की प्रतिक्रियाओं में जल में उन्हें लाना जल में तपाना और संकल्पोमयी प्राणायाम करने से मस्तिष्क की सूक्ष्मवाहक नाड़ी है। जो अग्नि में किसी कारण किसी आवेश से या किसी के आक्रमण से नाड़ी संकुचित हो जाती है, नाड़ियों में संकुचित पन आ जाता है। वह नाड़ियों का स्पष्टीकरण हो जाता है। स्पष्टीकरण होने से बुद्धि का विकास हो जाता है और बुद्धि का विकास होने से उसका रूग्ण समाप्त हो जाता है।

    तुम्हें केवल यह परिचय देने आया हूँ कि यहाँ बहुत सी नाना प्रकार की औषधियां है, जिनको पान करने से मानव महान बन जाता है, पवित्र बन जाता है, सर्पगन्धा औषधि के आसन से यदि योगेश्वर ये चाहता है, कि मैं ध्यानावस्थित हो जाऊं, तो ध्यानावस्थित हो करके, वह परमात्मा से अपना मिलान करने लगता है हमारे यहाँ ऐसे ऐसे कुशा के आसनों पर विद्यमान हो करके नदियों के तटों पर विद्यमान हो करके, ऋषियों ने बहुत सा अनुसन्धान प्रभु को निहारते हुए प्रभु से वार्त्ता प्रगट करते रहते थे। हमारे यहाँ नाना रूपों में, कुशा मानी जाती है। कुशा के आसन पर सर्प नही आ पाता, और कोई प्राणी उस अव्रत नही कर पाता तो आसन पवित्र माना गया है। कुशा भी हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में बारह प्रकार की होती है। बारह प्रकार की कुशाओं को ले करके यदि उसको जल में तपाया जाता है। तपाने से उनका रस बनाया जाता है रस बना करके उसको जल की कृतिका बना करके जब खरल रह जाता है। उसको मधु वर्णिता में पान करने से वह सर्प जैसे विषैले प्राणियों को विजय करने वाला बन जाता है।

    महापुरुष ऊंचे ऊंचे भवनों में प्राप्त नही होते

    मैं तुम्हें प्रारम्भ कर रहा था, राजन! कि महात्मा ज्ञानश्रुति की चर्चा कर रहा था, महात्मा ज्ञानश्रुति मानो देखो, वह भी जब राष्ट्रीय पद्धति में अप्रतम् देखो, राजा ज्ञानश्रुति हमारे यहाँ बड़े भव्य राजा थे और राजा के हृदय में मानो देखो, जब राष्ट्र को त्याग करके, वह आत्मज्ञान के लिए, आत्मवान बनने के लिए तत्पर होते हैं, तो राष्ट्रीयता उसी काल में ऊँची बन जाती है।

    मानो देखो, राजा ज्ञानश्रुति एक समय बेटा! देखो, अपने राष्ट्र में, मंत्रियों के मध्य में मानो देखो, विद्यमान थे और मध्य में विद्यमान हो करके महाराजा ज्ञानश्रुति ने अपने मंत्रियों से कहा हे मन्त्रीगणों! मेरी इच्छा यह है कि मैं किसी महापुरुष के द्वारा अपने को समर्पित करके, मैं आत्मवान बनना चाहता हूँ। क्योंकि आत्मवान बनना बहुत अनिवार्य है राजा जब त्याग करता है, राष्ट्र का, तो उस समय वह आत्मवान बनने के लिए और राष्ट्र को जेठे पुत्र को दे करके ही देखो, वह अपने को त्यागं ब्रह्मे वह भयंकर वनों में चला जाता है।

    मानो देखो, महाराजा ज्ञानश्रुति के इन शब्दों को पान करते हुए, मन्त्रीगणों ने वहाँ से आज्ञा पा करके मुनिवरों! देखो, वह भ्रमण करते हुए, ब्रह्मवेत्ता के लिए सदैव तत्पर हो गये। उन्होंने यह कहा था, कोई भी ब्रह्मवेत्ता हो मानो उसके मुझे दर्शन करके, उसके चरणों की वंदना करनी है। मेरे प्यारे! देखो, सम्भव ब्रहे कृतम् मुनिवरों! देखो, मन्त्रीगण भ्रमण करते हुए बेटा! देखो, राष्ट्र गृहों में पहुँचे, राष्ट्र गृहों में ब्रह्मवेत्ता को प्राप्त करने लगे, तो ब्रह्मवेत्ता नहीं प्राप्त हुआ। मेरे प्यारे! वह द्रव्यपतियों के गृहों में पहुँचे, वहाँ भी ब्रह्मवेत्ता नहीं थे, मेरे प्यारे! देखो, जब वह पुनः राजा के समीप आये, राजा से कहा प्रभु! हमें किसी ब्रह्मवेत्ता का दर्शन नहीं हुआ। तो उन्होंने कहा कहाँ गये? उन्होंने कहा, पृथ्वी तल पर, प्रत्येक राष्ट्रगृहों में, प्रत्येक द्रव्यपतियों के गृहों में, हम पहुँचे, हमें कहीं भी ब्रह्मवेत्ता प्राप्त नहीं हुआ।

    महाराजा ज्ञानश्रुति बोले कि हे मंत्रियों! देखो, ब्रह्मवेत्ता तो कहीं भयंकर वनों में तुम्हें प्राप्त होगा। देखो, नदियों के तटों पर, जहाँ वे, परमपिता परमात्मा का दर्शन करते हैं आत्मवान बनने के लिए मानो जो सदैव तत्पर होते हैं वे भयंकर वनों में होते हैं। मेरे प्यारे! देखो, वहाँ होते हैं जहाँ ऋषि का आसन पृथ्वी होता है और ओढ़न उसका अन्तरिक्ष होता है और मानो दिशाएं उसके पांसे बन करके मानो देखो, उसकी कृतियों में रत्त होने वाले हो। तो मेरे प्यारे! देखो, मंत्रियों ने वहाँ से गमन किया, भ्रमण करते हुए बेटा! देखो, गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे, तो महात्मा रेवक मुनि महाराज जिनको बेटा! एक सौ पांच वर्ष तक गाड़ी के नीचे व्यतीत किए हुए हो गएं थे। अपने प्रभु का चिन्तन करते हुए, आत्मवान बनते हुए, ब्रह्मवेत्ता कहाँ बेटा! मानो किस स्थली पर ब्रह्मवेत्ता रहते हैं, जहाँ भयंकर वनों में बेटा! जलाशय गमन कर रहा हो, और वह देखो, एक सौ पांच वर्ष तक बेटा! गाड़ी के नीचे तपस्या करते करते व्यतीत हो गया था।

    तो मेरे प्यारे! देखो, राज्यं ब्रहो अस्सुतम मुनिवरों! देखो, जब मन्त्री उनके समीप पहुँचे, तो महाराजा गाड़ीवान रेवक मुनि ने कहा आईए, मन्त्री जी, पधारिए। मन्त्री बड़े आश्चर्य में हुए। मन्त्री ने कहा प्रभु! आप मुझे कैसे जान गए हैं? उन्होंने कहा कि मैं आपको इसलिए जानता हूँ कि आप महाराजा ज्ञानश्रुति जो मानो देखो, मनुवंश में जो जन्मत्तं राजा है मानो देखो, वह बड़े धर्मात्मा, महान और तपस्वी हैं आप वहाँ से विराजे हैं। ब्रह्मदं ब्रह्मे मेरे प्यारे! उन्होंने स्वीकार कर लिया। मन्त्री ने कहा प्रभु! यथार्थ है। वहाँ से वार्ता प्रगट करके, कुछ ब्रह्मवाद की, महामन्त्री ने वहाँ से गमन किया और भ्रमण करते बेटा! अयोध्या में पहुँचे। अयोध्या में आने के पश्चात महाराजा ज्ञानश्रुति से कहा प्रभु! एक ब्रह्मवेत्ता का दर्शन हुआ है। उन्होंने कहा बहुत प्रियतम!

    मेरे प्यारे! देखो, महाराजा ज्ञानश्रुति अपने अस्त्रों शस्त्रों से और आभूषणों से मानो देखो, नाना द्रव्य ले करके, वह महापुरुष के, गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे, और गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज ने कहा, आइये, राजं ब्रह्मे मुनिवरों! देखो, कैसे आए ब्रह्मणं ब्रह्मे? उन्होंने कहा प्रभु! मैं ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए आया हूँ। उन्होंने कहा परन्तु तुम तो शुद्र हो। मेरे प्यारे! देखो, जब राजा ने यह विचारा, जब मुद्रा अर्पित करने लगे, तो उन्होंने राजा को जब शुद्र कहा तो ज्ञानश्रुति उन मुद्रा को ले करके, अपने गृह में पहुँचे।

    गृह में विचारने लगे, अपनी पत्नी से बोले देवी! मैं आज देखो, ऋषि के द्वार पर पहुँचा। तो ऋषि को जब मैं द्रव्य समर्पित करने लगा, तो उन्होंने मुझे शुद्र कहा है। मुझे शुद्र की संज्ञा प्रदान की है। मेरे प्यारे! देखो, उन्होंने विचारा कि द्रव्य सूक्ष्म है। तो मुनिवरों! देखो, बहुत सा द्रव्य ले करके, राजा ने गमन किया। ऋषि के द्वार पर ब्रह्मदं ब्रहे जब चरणों में समर्पित करने लगे, तो राजा से ऋषि ने कहा हे राजन! तुम शुद्र हो। गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज ने जब शुद्र कहा तो पुनः वह अपने राज्य अयोध्या में आ पहुँचे, अयोध्या में बोले कि हे देवी! मुझे तो ऋषि ने पुनः यह कहा है कि तुम शुद्र हो। उन्होंने कहा प्रभु! द्रव्य सूक्ष्म है। तो मुनिवरों! देखो, उन्होंने एक रथ को सजातीय बना करके, रथ को मानो स्वर्ण के आभूषणों से, उसे सजातीय बना करके, उसमें द्रव्य ले करके बेटा! देखो, मणि इत्यादियों को लेकर के, उन्होंने, वहाँ से गमन किया।गमन करके, जब ऋषि को जा करके समर्पित करने लगे तो उन्होंने पुनः उन्हें शुद्र कहा।

    मेरे प्यारे! देखो, वे पुनः अयोध्या में आए, तो राजा अब यह जानकर, चिंतत करने लगे कि ऐसा क्यों? उन्होंने मन्त्रीगणों की एक सभा उपस्थित की, और उन्होंने कहा ऋषि ने मुझे शुद्र कहा है। द्रव्य देने के पश्चात भी, रथ सजातीय देने के पश्चात भी, मुझे शुद्र कहा है। तो मेरे प्यारे! देखो, ब्रह्मणं ब्रह्मे मंत्रियों ने कहा प्रभु! कोई चिन्तन किया जाए इस सम्बन्ध में, तो एक वृद्ध सुकृत नाम के उनके महामन्त्री थे उनके पिता के समय के, उन्होंने कहा हे ज्ञानश्रुति! तुम्हें यह प्रतीत होना चाहिए कि तुम्हारे वंशलज में, इस मनुवंश में भी जितने भी राजा हुए हैं वह सर्वत्र ही इसी प्रकार के हुए हैं, जिन्होंने राष्ट्र त्याग करके केवल एक वस्त्र धारण करके, इन आत्मवेत्ताओं के समीप पहुँचे।

    मेरे प्यारे! देखो, ज्ञानश्रुति के हृदय में यह वार्ता समाहित हो गई। उन्होंने बेटा! देखो, सब आभूषणों को त्याग करके और रथं ब्रह्मे व्रंतम् सब को त्याग करके बेटा! उन्होंने केवल एक वस्त्र धारण करके, और वह वन वृत्ति बन करके बेटा! देखो, वनचर बन करके, उन्होंने अपने राष्ट्र से गमन किया और भ्रमण करते हुए बेटा! देखो, जब ऋषि गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे तो गाड़ीवान ने द्रव्यं ब्रहे राजा से कहा हे राजन! धन्यं ब्रह्मा राजप्रव्हा व्रत्यं देवो ब्रह्मणे वर्ण वासुते वेद का आचार्य कहता है कि तुम ब्रह्मवेत्ता बनने के लिए आए हो, तुम ब्रह्मवेत्ता बनने के लिए तत्पर हो जाओ। आओ, विराजो।

    महाराजा ज्ञानश्रुति तथा नाना ऋषिवर उनके यहाँ अनुसन्धान करते रहे। मैं उसी ज्ञानश्रुति की चर्चा करने चला हूँ। जिस समय ज्ञानश्रुति ने नाना प्रकार की मुद्राओं को त्याग कर के अपना स्वरूप बनाया तो वह गाड़ीवान रेवक मुनि के द्वार पर पहुँचे। गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज ने उनके स्वागतार्थ ब्रह्मज्ञान की चर्चाएँ की। इस ब्रह्मवान की चर्चाएँ इससे पूर्व काल में भी उन्हाँने कीं। आज भी मुझे स्मरण आ रहा है गाड़ीवान रेवक से महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा प्रभु! मैं ब्रह्मज्ञान चाहता हूँ। अपना राष्ट्र मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को प्रदान कर दिया है। मैं ज्ञान और विज्ञान में रत्त रहना चाहता हूँ। देखा जब हम यह विचारते हैं कि जैसे ब्रह्म का आयतन यह विज्ञानमीय स्वरूप वाला जगत, विज्ञानमयी स्वरूप वाला वह ब्रह्म हमें दृष्टिपात आता है। तो यह जो शरीर है, यह जो प्राण पञ्च महाभौतिक तत्त्वों में रत्त रहने वाला है यह आत्मा का आयतन है। आत्मा का यह गृह माना गया है। जैसे एक एक परमाणु ब्रह्म का आयतन माना गया है। वह मानव शरीर में आत्मा भी ब्रह्म का आयतन माना गया है इसलिए वह वास कर रहा है। तो जब यह विवेचना आने लगी तो गाड़ीवान रेवक मुनि माहराज ने यह विवेचना प्रारम्भ की।

    महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा प्रभु! मैं यह जानना चाहता हूँ, जब में नाना मुद्राएँ ले करके आपके समीप आया तो आपने मुझे यह कहा। परन्तु संसार में नाना प्रकार की माया और मुद्राओं के बिना राष्ट्र का क्रियाकलाप नहीं चलता, क्रियाशील नहीं हो पाता। याग इत्यादिओं का जो कर्म वह भी मुद्रा के बिना नहीं हो पाता। तो उससे अनभिज्ञ होने को आपने मुझे कहा। गाड़ीवान रेवक ने कहा, कहो राजन! आपके हृदय में जब यह विचार आया कि मैं ब्रह्मवेत्ता बनना चहता हूँ। हे राजन! जब तुम्हारी यह जिज्ञासा थी तो द्रव्य का कोई समन्वय नहीं रह पाता। जब उन्हाँने यह कहा तो महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा, प्रभु! ज्ञान और माया का प्रायः समन्वय रहता है। मानव का जो शरीर है यह पञ्च महाभौतिक है यह माया के गुणाध्यान कहलाया गया है इसी प्रकार यह सर्वत्र ब्रह्माण्ड और राष्ट्र में एक ही क्रियाकलाप हो रहा है। महाराजा ज्ञानश्रुति के वाक्य को पान करके गाड़ीवान रेवक ने कहा, हे राजन! जब तुम मेरे समीप मुद्रा ले करके आए तो ब्रह्म में मुद्रा का कोई समन्वय नहीं होता। रहा विचार यह कि तुम्हारा पथ यह कहता है कि माया कृतियों में भी निष्पक्ष हो करके मानव निर्बन्धन हो करके इसमें रमण कर सकता है और तुमने ऐसा वर्णन कराया कि यही जानना चाहते हो। परन्तु मैंने इसलिए शुद्र कहा कि तुम ब्रह्मवेत्ता को अपनाना चाहते थे, स्थापित करना चाहते थे ओर उस ब्रह्मवेत्ता की इच्छा नहीं है, जब इसकी इच्छा नहीं है तो देने वाला भी क्षुद्र के तुल्य है और यही लक्ष्मी तो चञ्चल है ही जो मानव को कहीं का कहीं ले जाती है। उन्होंने यह कहा तो गाड़ीवान रेवक मुनि के वाक्यों को पान करके ज्ञानश्रुति मौन होने लगे और उन्होंने कहा, हे राजन! तुम रथ को सजातीय बना करके तुम रथ को ले करके यहाँ आए तो तुम्हारा मन नाना कृतियों में रत्त रहने वाला नहीं था। महाराजा ज्ञानश्रुति मौन हो गए।

    तो विचार क्या मुनिवरों! जब ब्रह्मवेत्ता के समीप पहुँची तो तीन समिधा ले करके जाना चाहिए। समिधा का अभिप्राय क्या? मैंने बहुत परातन काल में कहा, तीन समिधा वह होती हैं जो आत्मा को चेताने के लिए अग्नि में उद्बुद्ध की जाती हैं।

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