ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
ब्राह्म॑णादिन्द्र॒ राध॑सः॒ पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑। तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम्॥
स्वर सहित पद पाठब्राह्म॑णात् । इ॒न्द्र॒ । राध॑सः । पिब॑ । सोम॑म् । ऋ॒तून् । अनु॑ । तव॑ । इत् । हि । स॒ख्यम् । अस्तृ॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु। तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणात्। इन्द्र। राधसः। पिब। सोमम्। ऋतून्। अनु। तव। इत्। हि। सख्यम्। अस्तृतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
विषय - ब्राह्मणराधस् [ब्रह्म - सम्बन्धी सम्पत्ति]
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में सोमपान से दैवी सम्पति को प्राप्ति का उल्लेख था । उस दैवी सम्पति को प्राप्त करके यह सोमपान करनेवाला 'ब्राह्मसम्पत्ति' को प्राप्त करता है । हे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष! तू (ब्राह्मणात्) - ब्रह्म - सम्बन्धी (राधसः) - धन के दृष्टिकोण से - ब्रह्मसम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए (ऋतून् अनु) - समय का ध्यान करके (सोमम् पिब) - सोम का पान कर । यौवन में ही शक्ति का सञ्चय करने से हमें इस जीवन में ही अवश्य ब्रह्मसम्पत्ति प्राप्त होगी ।
२. ऐसा होने पर (तव) - तेरा (इत् हि) - निश्चय से (सख्यम्) - ब्रह्म के साथ सख्य (अस्तृतम्) - अविच्छिन्न होता है - तू ब्रह्म से निरन्तर मैत्रीवाला होता है । जो भी व्यक्ति शरीर में इस सोम की रक्षा करता है , वह उस सोमप्रापक प्रभु से अभिन्न मैत्रीवाला होता है । यही ब्रह्मसम्बन्धी सम्पत्ति है । इस सम्पत्ति को प्राप्त करने के उद्देश्य से हमें समय पर ही सोम की शरीर में रक्षा करनी चाहिए ।
भावार्थ -
भावार्थ - शरीर में शक्ति के रक्षण से ब्राह्मीसम्पत्ति प्राप्त होती है । इस सम्पत्ति को प्राप्त करके जीव 'ब्रह्म इव' हो जाता है ।
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