ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह सा॒दया॒ योनि॑षु त्रि॒षु। परि॑ भूष॒ पिब॑ ऋ॒तुना॑॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । सा॒दय॑ । योनि॑षु । त्रि॒षु । परि॑ । भू॒ष॒ । पिब॑ । ऋ॒तुना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु। परि भूष पिब ऋतुना॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। देवान्। इह। आ। वह। सादय। योनिषु। त्रिषु। परि। भूष। पिब। ऋतुना॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
विषय - अग्नि का सोमपान
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) - प्रगतिशील जीव ! तू (इह) - इस मानव - जीवन में (देवान्) - देवों का (आवह) - आवाहन करनेवाला बन । तू अपने जीवन में दिव्य गुणों को धारण कर । वस्तुतः अच्छाइयों को धारण करना ही आगे बढ़ना है ।
२. तू (त्रिषु योनिषु) - इन्द्रियाँ , मन व बुद्धिरूप तीनों स्थानों में इन देवों को (सादया) - बिठा । ये तीनों स्थान प्रमाद करने पर असुरों के निवासस्थान बन जाते हैं । 'इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते' इस गीता [३.४०] के वाक्य के अनुसार इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि ही काम के अधिष्ठान बनते हैं । प्रगतिशील जीव इन तीनों को देवों का अधिष्ठान बनाता है , अब खाली न होने के कारण ये असुरों के अधिष्ठान नहीं बनते ।
३. इस प्रकार इन तीन स्थानों में देवों को बैठाकर तू (परिभूष) - अपने जीवन को अलंकृत कर ।
४. इस सबके लिए तू (ऋतुना पिब) - समय रहते सोमपान करनेवाला बन ।
भावार्थ -
भावार्थ - प्रगतिशील जीव वह है जो इन्द्रियों , मन व बुद्धि को दैवी सम्पत्ति से सुरक्षित करता है । ऐसा करने के लिए वह सोमपान करता है । शक्ति की रक्षा ही सोमपान है ।
विशेष / सूचना -
सूचना - शक्ति की रक्षा होने पर इस व्यक्ति के जीवन में , प्राणों में अभय व तेज का विकास होता है । इसका मन सत्त्वसंशुद्धि , दम , सत्य , अक्रोध , शान्ति , अलोलुपत्व , क्षमा व तृप्ति से युक्त होता है । इन्द्रियाँ ज्ञान व योग की व्यवस्थितिवाली होती हैं , ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान - प्राप्ति में लगी रहती हैं तो कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग चलता है । इसके हाथ में 'दान , यज्ञ , अहिंसा , त्याग , अचापल्य व शौच - पवित्रता' रहते हैं तो इसकी वाणी स्वाध्याय व अपैशुन्य से शोभित होती है । इसका शरीर तपस्वी है और हृदय 'सरलता , दया , मार्दव , ह्री , अद्रोह व नातिमानिता से' सुभूषित है । इस प्रकार अग्नि ने अपनी इन्द्रियों , मन व बुद्धि को देवों का अधिष्ठान बनाया