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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - त्वष्टा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि य॒ज्ञं गृ॑णीहि नो॒ ग्नावो॒ नेष्टः॒ पिब॑ ऋ॒तुना॑। त्वं हि र॑त्न॒धा असि॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । य॒ज्ञम् । गृ॒णी॒हि॒ । नः॒ । ग्रावः॑ । नेष्ट॒रिति॑ । पिब॑ । ऋ॒तुना॑ । त्वम् । हि । र॒त्न॒ऽधा । असि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना। त्वं हि रत्नधा असि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। यज्ञम्। गृणीहि। नः। ग्नावः। नेष्टरिति। पिब। ऋतुना। त्वम्। हि। रत्नऽधा। असि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. 'ग्ना' शब्द छन्दों का वाचक है - 'छन्दाँसि वै ग्नाः छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति' [शत० ५/५/४/७] । इन छन्दोंवाला ग्नावा है । उसे सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि (ग्नावः) -  हे ज्ञान की वाणियोंवाले विद्वन् ! (नः) - हमें (यज्ञम् अभि) - यज्ञ का लक्ष्य करके (गृणीहि) - उपदेश दीजिए । हमारा जीवन यज्ञमय होगा तो हम विलास के मार्ग में न जाकर इस सोम के रक्षण के लिए अधिक समर्थ होंगे । 

    २. हे (नेष्टः) [नेनेक्ति] - जीवन को शुद्ध करनेवाले विद्वन्! (ऋतुना) - समय रहते (पिब) - तू सोम का पान करनेवाला बन । 

    ३. हे नेष्टः ! (त्वम्) - तू (हि) - निश्चय से (रत्नधा असि) - रमणीय पदार्थों का धारण करनेवाला है । सोम के रक्षण से शरीर अत्यन्त रमणीय बन जाता है । नीरोगता , निर्मलता और बुद्धि की तीव्रता , ये सब - के - सब सोमरक्षण से ही साध्य होते हैं । इस सोमरक्षण के लिए यह अपने जीवन को यज्ञ की ओर ले - चलता है , वेदवाणियों का अध्ययन करता है , जीवन को शुद्ध बनाता है । 

    भावार्थ -

    भावार्थ - हम यज्ञशील बनें , जीवन के शोधन के लिए समय रहते सोमपान करनेवाले बनें और इस प्रकार जीवन को रमणीय बनाएँ । 

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