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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - भुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः

    मरु॑तः॒ पिब॑त ऋ॒तुना॑ पो॒त्राद्य॒ज्ञं पु॑नीतन। यू॒यं हि ष्ठा सु॑दानवः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मरु॑तः । पिब॑त । ऋ॒तुना॑ । पो॒त्रात् । य॒ज्ञम् । पू॒नी॒त॒न॒ । यू॒यम् । हि । स्थ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन। यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुतः। पिबत। ऋतुना। पोत्रात्। यज्ञम्। पुनीतन। यूयम्। हि। स्थ। सुऽदानवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. गतमन्त्र में (ऋतुना) - समय रहते सोमपान का उल्लेख था । वह प्रस्तुत मन्त्र में भी है । इसका अभिप्राय यह है कि सोम का उत्पादन जिस अवस्था में अत्यधिक होता है , उस यौवन में ही इसकी रक्षा की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है । जीवन के चरमकाल में तो वैसे ही कुछ शान्ति हो जाती है , अतः हमें सोपान का विचार 'प्रातः व माध्यन्दिनसवन' बाल्य [प्रथमावस्था] व यौवन में पूर्णरूप से करना चाहिए 'प्रथमे वयसि यः शान्तः स शान्त इत्युच्यते । धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते' ॥ प्रथम अवस्था में जो शान्त हुआ , शान्त तो वही हुआ , धातुओं के क्षीण होने पर तो शान्ति किसे नहीं हो जाती? अतः कहते हैं कि (मरुतः) - हे प्राणो! (ऋतुना) - समय रहते (सोमम्) - सोम को (पिबत) - पीने का ध्यान करो । उत्पन्न सोमकणों को शरीर में ही सुरक्षित रखने के लिए प्राणसाधना अत्यन्त उपयोगी है । प्राणसाधना के द्वारा ये वीर्यकण ऊर्ध्वगतिवाले होकर शरीर में ही व्याप्त हो जाते हैं , यही मरुतों का सोमपान है । 

    २. हे मरुतो ! यह सोम शरीर को नीरोग और मन को निर्मल बनाकर जीवन को पवित्र करनेवाला है । इस (पोत्रात्) - पवित्र करनेवाले सोम से (यज्ञम्) - हमारे जीवन - यज्ञ को (पुनीतन) - तुम पवित्र कर दो । प्राणसाधना से सोम शरीर में व्याप्त होगा और जीवन को पवित्र कर देगा । 

    ३. इस प्रकार हे मरुतो ! (यूयम्) - तुम (हि) - निश्चय से (सुदानवः) - [स्थ] उत्तमता से बुराइयों के काटनेवाले [दाप् लवणे] हो । 

    ४. पिछले मन्त्र में 'इन्द्र' शब्द के द्वारा जितेन्द्रियता का संकेत किया गया था , प्रस्तुत मन्त्र में 'मरुतः' से प्राणसाधना का निर्देश है । सोम के शरीर में ही व्यापन के लिए जितेन्द्रियता व प्राणसाधना दोनों ही आवश्यक हैं । 

    भावार्थ -

    भावार्थ - प्राणायाम द्वारा हम सोम को शरीर में ही व्याप्त करें । यह सुरक्षित सोम हमारे जीवनों को पवित्र करेगा । 

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