ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्र॒ सोमं॒ पिब॑ ऋ॒तुना त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः। म॒त्स॒रास॒स्तदोक॑सः॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । सोम॑म् । पिब॑ । ऋ॒तुना॑ । आ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । इन्द॑वः । म॒त्स॒रासः॒ । तत्ऽओ॑कसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः। मत्सरासस्तदोकसः॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। सोमम्। पिब। ऋतुना। आ। त्वा। विशन्तु। इन्दवः। मत्सरासः। तत्ऽओकसः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र का सोमपान [मत्सरासः , तदोकसः]
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) - इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! तू (ऋतुना) - समय व्यतीत होने से पहले , अर्थात् समय रहते (सोमं पिब) - सोम का पान करनेवाला बन । आहार से उत्पन्न सोमकणों को अपने शरीर में ही सुरक्षित करनेवाला बन ।
२. (इन्दवः) - ये शक्ति देनेवाले सोमकण (त्वा) - तुझमें (आविशन्तु) - समन्तात् प्रविष्ट हों , अर्थात् रुधिर के साथ तेरे सारे शरीर में व्याप्त होनेवाले हों । शरीर में व्याप्त होकर ही ये रोगकृमियों का संहार करनेवाले होते हैं ।
३. रोगों को नष्ट करके , हमें स्वस्थ बनाकर ये सोमकण (मत्सरासः) - एक अद्भुत तृप्ति के देनेवाले होते हैं । हम इन सोमकणों के कारण जीवन में उल्लास का अनुभव करते हैं ।
४. (तदोकसः) - ये सोमकण प्रभुरूप गृहवाले होते हैं , अर्थात् जब एक व्यक्ति जितेन्द्रिय बनकर इन सोमकणों की रक्षा करता है तब इन सोमकणों से उसकी बुद्धि तीव्र होती है , तीव्रबुद्धि से यह सोमपायी प्रभु का दर्शन करता है , एवं ये सोमकण प्रभुरूप गृह में पहुँचानेवाले होते हैं ।
भावार्थ -
हम यौवन में ही सोम के रक्षक बनते हैं तो ये सोमकण हमें नीरोग बनाकर हर्ष प्राप्त कराते हैं और प्रभु का दर्शन कराने में सहायक होते हैं ।
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