ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 12
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यु॒क्ष्वा ह्यरु॑षी॒ रथे॑ ह॒रितो॑ देव रो॒हितः॑। ताभि॑र्दे॒वाँ इ॒हा व॑ह॥
स्वर सहित पद पाठयु॒क्ष्व । हि । अरु॑षीः । रथे॑ । ह॒रितः॑ । दे॒व॒ । रो॒हितः॑ । ताभिः॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः। ताभिर्देवाँ इहा वह॥
स्वर रहित पद पाठयुक्ष्व। हि। अरुषीः। रथे। हरितः। देव। रोहितः। ताभिः। देवान्। इह। आ। वह॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
विषय - देवागमन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र की प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि हे (देव) - दिव्यगुणों को प्राप्त करनेवाले ! तू (रथे) - इस शरीररूपी रथ में (हि) - निश्चय से (अरुषीः) - [गतिमतीः] अत्यन्त तीन गतिवाली (हरितः) - सब दुः खों का हरण करनेवाली (रोहितः) - वृद्धि की कारणभूत इन्द्रियाश्वों को (युक्ष्वा) - जोत और (ताभिः) - इन इन्द्रियरूपी घोड़ों से (इह) - इस जीवन - यज्ञ में (देवान्) - देवों को
(आवह) - प्राप्त कर ।
२. जब हम इस शरीर को रथ समझेंगे , रथ समझकर इसे ठीक रखने का प्रयत्न करेंगे और इसमें जुतनेवाले इन्द्रियाश्वों को गतिशील , लक्ष्य तक पहुँचानेवाले व वृद्धि के कारणभूत बनाएँगे तो हमारी जीवन - यात्रा क्यों न पूर्ण होगी ? उस समय हमारे जीवन में देवों का आगमन होगा , अर्थात् हमारा जीवन - यज्ञ ठीकरूप से पूर्ण होगा , इसमें दिव्यता का विकास होगा ।
भावार्थ -
भावार्थ - हमारे इन्द्रियाश्व अरुषी , हरित् व रोहित हों । वे हमारे जीवन में देवों को लानेवाले हों ।
विशेष / सूचना -
विशेष - इस सूक्त का आरम्भ प्रभु - परिचर्या व स्तवन से होता है । ये शरीर में सोम [शक्ति] की रक्षा के लिए आवश्यक हैं [१] । ये सोमकण शरीर में व्याप्त होने पर शक्ति देते हैं , तृप्ति का अनुभव कराते हैं , हर्ष के जनक हैं [४] । प्रभु यज्ञशील पुरुषों को इन सोमकणों के पान में सहायक होते हैं [७] । इनके पान करनेवाला व्यक्ति जीवन - यात्रा में आगे बढ़ता हुआ अपने में दिव्यता को बढ़ानेवाला होता है [१२] । 'इस सोमपान को समय पर ही , अर्थात् युवावस्था में ही कर लेना आवश्यक है' , इन शब्दों से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -