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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यु॒क्ष्वा ह्यरु॑षी॒ रथे॑ ह॒रितो॑ देव रो॒हितः॑। ताभि॑र्दे॒वाँ इ॒हा व॑ह॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्ष्व । हि । अरु॑षीः । रथे॑ । ह॒रितः॑ । दे॒व॒ । रो॒हितः॑ । ताभिः॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः। ताभिर्देवाँ इहा वह॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युक्ष्व। हि। अरुषीः। रथे। हरितः। देव। रोहितः। ताभिः। देवान्। इह। आ। वह॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेकस्य भौतिकस्याग्नेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हे देव विद्वँस्त्वं रथे रोहितो हरितोऽरुषीर्युक्ष्व, ताभिरिह देवानावह प्रापय॥१२॥

    पदार्थः

    (युक्ष्व) योजय। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्नमभावः। (हि) यतः (अरुषीः) रक्तगुणा अरुष्यो गमनहेतवः। अत्र बाहुलकादुषच् प्रत्ययः। अन्यतो ङीष्। (अष्टा०४.१.४०) अनेन ङीष् प्रत्ययः। वा च्छन्दसि। (अष्टा०६.१.१०२) अनेन जसः पूर्वसवर्णम्। (रथे) भूसमुद्रान्तरिक्षेषु गमनार्थे याने (हरितः) हरन्ति यास्ता ज्वालाः (देव) विद्वन् (रोहितः) रोहयन्त्यारोहयन्ति यानानि यास्ताः। अत्र हृसृरुहियुषिभ्य इतिः। (उणा०१.९७) अनेन ‘रुह’धातोरितिः प्रत्ययः। (ताभिः) एताभिः (देवान्) दिव्यान् क्रियासिद्धान् व्यवहारान् (इह) अस्मिन् संसारे (आ) समन्तात् (वह) प्रापय॥१२॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिरग्न्यादिपदार्थान् कलायन्त्रयानेषु संयोज्य तैरिहास्मिन्संसारे मनुष्याणां सुखाय दिव्याः पदार्थाः प्रकाशनीया इति॥१२॥अथ चतुर्दशस्यास्य सूक्तस्य विश्वेषां देवानां गुणप्रकाशनेन क्रियार्थसमुच्चयात् त्रयोदशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे (देव) विद्वान् मनुष्य ! तू (रथे) पृथिवी समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने आने के लिये विमान आदि रथ में (रोहितः) नीची ऊँची जगह उतारने चढ़ाने (हरितः) पदार्थों को हरने (अरुषीः) लाल रंगयुक्त तथा गमन करानेवाली ज्वाला अर्थात् लपटों को (युक्ष्व) युक्त कर और (ताभिः) इनसे (इह) इस संसार में (देवान्) दिव्यक्रियासिद्ध व्यवहारों को (आवह) अच्छी प्रकार प्राप्त कर॥१२॥

    भावार्थ

    विद्वानों को कला और विमान आदि यानों में अग्नि आदि पदार्थों को संयुक्त करके इनसे संसार में मनुष्यों के सुख के लिये दिव्य पदार्थों का प्रकाश करना चाहिये॥१२॥सब देवों के गुणों के प्रकाश तथा क्रियाओं के समुदाय से इस चौदहवें सूक्त की सङ्गति पूर्वोक्त तेरहवें सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपदेशनिवासी विलसन आदि ने विपरीत ही वर्णन किया है॥

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    विषय

    देवागमन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि हे (देव) - दिव्यगुणों को प्राप्त करनेवाले  ! तू (रथे) - इस शरीररूपी रथ में (हि) - निश्चय से (अरुषीः) - [गतिमतीः] अत्यन्त तीन गतिवाली (हरितः) - सब दुः खों का हरण करनेवाली (रोहितः) - वृद्धि की कारणभूत इन्द्रियाश्वों को (युक्ष्वा) - जोत और (ताभिः) - इन इन्द्रियरूपी घोड़ों से (इह) - इस जीवन - यज्ञ में (देवान्) - देवों को 
    (आवह) - प्राप्त कर । 
    २. जब हम इस शरीर को रथ समझेंगे  , रथ समझकर इसे ठीक रखने का प्रयत्न करेंगे और इसमें जुतनेवाले इन्द्रियाश्वों को गतिशील  , लक्ष्य तक पहुँचानेवाले व वृद्धि के कारणभूत बनाएँगे तो हमारी जीवन - यात्रा क्यों न पूर्ण होगी ? उस समय हमारे जीवन में देवों का आगमन होगा  , अर्थात् हमारा जीवन - यज्ञ ठीकरूप से पूर्ण होगा  , इसमें दिव्यता का विकास होगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे इन्द्रियाश्व अरुषी  , हरित् व रोहित हों । वे हमारे जीवन में देवों को लानेवाले हों । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का आरम्भ प्रभु - परिचर्या व स्तवन से होता है । ये शरीर में सोम [शक्ति] की रक्षा के लिए आवश्यक हैं [१] । ये सोमकण शरीर में व्याप्त होने पर शक्ति देते हैं  , तृप्ति का अनुभव कराते हैं  , हर्ष के जनक हैं [४] । प्रभु यज्ञशील पुरुषों को इन सोमकणों के पान में सहायक होते हैं [७] । इनके पान करनेवाला व्यक्ति जीवन - यात्रा में आगे बढ़ता हुआ अपने में दिव्यता को बढ़ानेवाला होता है [१२] । 'इस सोमपान को समय पर ही  , अर्थात् युवावस्था में ही कर लेना आवश्यक है'   , इन शब्दों से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -
     

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे देव विद्वसः त्वं रथे रोहितः हरितः अरुषीः युक्ष्व, ताभिः इह देवान् आवह प्रापय॥१२॥

    पदार्थ

    हे (देव) विद्वान्, (त्वम्)=आप, (रथे) भूसमुद्रान्तरिक्षेषु गमनार्थे याने=यान में भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने को,  (रोहितः) रोहयन्त्यारोहयन्ति यानानि यास्ताः=जिनमें यान उतरते-चढ़ते हैं, (हरितः) हरन्ति यास्ता ज्वालाः=उस ज्वाला को ले जाते हैं, (अरुषीः) रक्तगुणा अरुष्यो गमनहेतवः=जाने के लिये चांदी के गुणों वाली ज्वाला अर्थात् आग की लपटों की सफेद ज्वाला,  (युक्ष्व) योजय=युक्त कीजिये, (ताभिः)=उनसे (इह)=इस संसार में, (देवान्) दिव्यान् क्रियासिद्धान् व्यवहारान्=दिव्य क्रियाओं द्वारा सिद्ध व्यवहारों को, (आवह-प्रापय)=अच्छी प्रकार से प्राप्त कीजिये॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वानों को अग्नि आदि पदार्थों से कला यंत्रों और विमान आदि को संयुक्त करके इनसे संसार में मनुष्यों के सुख के लिये दिव्य पदार्थों का प्रकाश करना चाहिये॥१२॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त  का भाषार्थ- सब देवों के गुणों के प्रकाश तथा क्रियाओं के समुदाय से इस चौदहवें सूक्त की सङ्गति पूर्वोक्त तेरहवें सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि विद्वान् तथा यूरोपदेशनिवासी विलसन आदि ने विपरीत ही वर्णन किया है॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (देव) विद्वान्! (त्वम्) आप (रथे) यान, भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष में जाने को  (रोहितः) जिनमें यान उतरते-चढ़ते हैं, (हरितः) उस ज्वाला को ले जाते हैं। (अरुषीः) जाने के लिये चांदी के गुणों वाली ज्वाला अर्थात् आग की लपटों की सफेद ज्वाला से (युक्ष्व) युक्त कीजिये। (ताभिः) उन ज्वालाओं से (इह) इस संसार में (देवान्) दिव्य क्रियाओं द्वारा सिद्ध व्यवहारों को (आवह) अच्छी प्रकार से प्राप्त कीजिये ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युक्ष्व) योजय। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि श्नमभावः। (हि) यतः (अरुषीः) रक्तगुणा अरुष्यो गमनहेतवः। अत्र बाहुलकादुषच् प्रत्ययः। अन्यतो ङीष्। (अष्टा०४.१.४०) अनेन ङीष् प्रत्ययः। वा च्छन्दसि। (अष्टा०६.१.१०२) अनेन जसः पूर्वसवर्णम्। (रथे) भूसमुद्रान्तरिक्षेषु गमनार्थे याने (हरितः) हरन्ति यास्ता ज्वालाः (देव) विद्वन् (रोहितः) रोहयन्त्यारोहयन्ति यानानि यास्ताः। अत्र हृसृरुहियुषिभ्य इतिः। (उणा०१.९७) अनेन 'रुह'धातोरितिः प्रत्ययः। (ताभिः) एताभिः (देवान्) दिव्यान् क्रियासिद्धान् व्यवहारान् (इह) अस्मिन् संसारे (आ) समन्तात् (वह) प्रापय॥१२॥
    विषयः- पुनरेकस्य भौतिकस्याग्नेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वय- हे देव विद्वँस्त्वं रथे रोहितो हरितोऽरुषीर्युक्ष्व, ताभिरिह देवानावह प्रापय॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिरग्न्यादिपदार्थान् कलायन्त्रयानेषु संयोज्य तैरिहास्मिन्संसारे मनुष्याणां सुखाय दिव्याः पदार्थाः प्रकाशनीया इति॥१२॥

    महर्षिकृत सूक्तस्य (भावार्थः)- अस्य
     त्रयोदशसूक्तार्थस्याग्न्यादिदिव्यपदार्थोपकारग्रहणार्थोक्तरीत्या द्वादशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम् चाहिये॥१२॥ 

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    विषय

    सुख प्राप्ति, पक्षान्तर में राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( देव ) देदीप्यमान, तेजस्विन् ! सूर्य के समान चमकने वाले ! विद्वन् ! तू ( रथे ) रमण करने योग्य रथ में ( अरुषीः ) रक्त गुण वाली, गमनशील, एक कान्तियुक्त (हरितः) हरणशील शक्तियों को (युक्ष्व) संयोजित कर ( ताभिः ) उनसे ( इह ) लोक में ( देवान् ) कामना योग्य सुखकारी पदार्थों और व्यवहारों को ( आवह ) प्राप्त करा । भौतिक अग्नि की ज्वालाएं या ( हरितः ) गतियुक्त शक्तियां ( अरुषीः ) रक्तवर्ण की क्रान्ति वाली हैं और ( रोहितः ) रोहितअर्थात् ईषत् रक्त जिनसे वह ‘देवों’ अर्थात् किरणों को दूर तक पहुंचाता है । इति सप्तविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी कलायंत्र व विमान वगैरे यानांत अग्नी इत्यादी पदार्थांना संयुक्त करून त्याद्वारे या संसारात माणसांच्या सुखासाठी दिव्य पदार्थांचा उपयोग केला पाहिजे. ॥ १२ ॥

    टिप्पणी

    या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी विद्वान व युरोप देशवासी विल्सन इत्यादींनी विपरीत लावलेला आहे.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    General power of brilliance, fire of yajna, brilliant scholar of the science and power of heat and energy, yoke the blazing red flames of fire like horses to the chariot, and with the currents of energy bring the noble divinities of power here.

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    Subject of the mantra

    In this mantra again, qualities of physical fire have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (deva)=scholar, (tvam)=you, (rathe)=going by vehicle through earth, ocean and sky, (rohitaḥ)=areas in which vehicles land or fly, (haritaḥ)=carrier, (yukṣva)=attach, haritaȟ=carry through that flame, (aruṣīḥ)=for carrying that silver coloured flame, in other words white flame of fire, (tābhiḥ)=by those flames, (iha)=in this universe, (devān)=accomplished behaviors by divine actions, (āvaha)=obtain properly.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! You, going by vehicle through earth, ocean and sky, carry through that flame to areas in which vehicles land or fly. Attach coloured flame for carrying that silver flame, in other words white flame of fire. Obtain properly accomplished behaviours by divine actions through those flames in this universe.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- The association of this fourteenth hymn with the manifestation of the qualities of all the deities and the groups of the actions should be known with the translation of the thirteenth aforesaid hymn. The translation of this hymn has been done by the scholars like Sayanacharya etc. and European scholars Wilson etc. in an opposite sense only.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Scholars should promulgate divine objects in the world after combining art instruments and aircraft etc. with fire etc. substances for the happiness of human beings.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of material fire are taught in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, harness in the chariot that can travel on earth, in water and in the sky the fleet and bright flames of fire accomplish with their help the divine dealings and enjoyments.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    अरुषी: सत्यगुणाः अरुष्यो गमनहेतवः अत्र बाहुलकात उषन् प्रत्ययः । अन्यतोडीष् (अष्टाध्यायी ४.१.४० ) अनेन ङीष् प्रत्यय: (हरितः ) हरन्ति यास्ता ज्वाला:= Flames. (रोहित:) रोहयन्ति आरोहयन्ति यानानि यास्ताः अत्र हृष्टुरुहियुषिभ्य इतिः (उणादि १.८७ ) अनेन रुहिधातोः इतिः प्रत्ययः (देवान्) दिव्यान् क्रियासिद्धान् व्यवहारान्-

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should yoke fire and other elements in machines and vehicles and with their help, divine works should be accomplished in this world. In this fourteenth hymn, the properties of all divine objects have been mentioned and how should they be used in works has been stated, so this hymn has connection with the previous hymn. This hymn has also been misinterpreted by Sayanacharya, Wilson and other commentators of the West. Here ends the fourteenth hymn and twenty seventh virga of the first Mandala.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has pointed out at the end of his commentary of this hymn (as before) that it has been mis-interpreted by Sayanacharya, Wilson and others. A few blunders committed by these translators may therefore be pointed out here. We have already pointed out their blunder in taking the word "Kanvah" used in this hymn twice as the name of a particular sage and his descendants instead of taking it for wise men as clearly stated in the Nighantu कण्व इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५ ) The word देवा: in the first and second Mantra has been wrongly translated by Wilson as "gods" while Griffith has done the worse thing in rendering it into English as "Gods." They have of course followed Sayanacharya, but it is wrong on the part of all these translators to do so instead of translating it as (enlightened truthful persons) according to सत्यमया उ देवा: (कौषी० २.८ ) सत्यसंहिता वै देवाः (ऐतरेय १.६ ) विद्वांसो हि देवा: ॥ (शतपथ ३. ७.३.१० ) and other passages in the Branmanas. The translation of देवा as “gods" or "Gods" gives a very erroneous conception of the Vedic Dharma which preaches pure monotheism. Griffith like Prof. Maxmuller wrongly takes Maruts as Gods of the winds or the storms.

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