ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ऐभि॑रग्ने॒ दुवो॒ गिरो॒ विश्वे॑भिः॒ सोम॑पीतये। दे॒वेभि॑र्याहि॒ यक्षि॑ च॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒भिः॒ । अ॒ग्ने॒ । दुवः॑ । गिरः॑ । विश्वे॑भिः । सोम॑ऽपीतये । दे॒वेभिः॑ । या॒हि॒ । यक्षि॑ । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये। देवेभिर्याहि यक्षि च॥
स्वर रहित पद पाठआ। एभिः। अग्ने। दुवः। गिरः। विश्वेभिः। सोमऽपीतये। देवेभिः। याहि। यक्षि। च॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादितो बहुभिः पदार्थैः सह संयोगिनावीश्वरभौतिकावग्नी उपदिश्येते।
अन्वयः
हे अग्ने जगदीश्वर ! त्वमेभिर्विश्वेभिर्देवेभिः सह सोमपीतये दुवो गिरो वेदवाणीर्याहि प्राप्तो भव। ईश्वरस्य दुवः परिचर्य्यां गिरो वेदवाणीश्चाहं यक्षि सङ्गमयामीत्येकः।यमग्निमेभिर्विश्वेभिर्देवेभिः सह समागमेन सोमपीतयेऽहं यक्षि यजामीति द्वितीयः॥१॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (एभिः) प्रत्यक्षैः। अत्र इदमोऽन्वादेशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ। (अष्टा०२.४.३२) अनेन अशादेशः। (अग्ने) सर्वत्र व्याप्तेश्वर ! भौतिको वा। अत्रान्त्यपक्षे सर्वत्र व्यत्ययः। (दुवः) परिचर्य्याम् (गिरः) वेदवाणीः (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न भवति। (सोमपीतये) सोमानां सुखकारकाणां पीतिः पानं यस्माद्यज्ञात्तस्मै। अत्र सह सुपा इति समासः। (देवेभिः) दिव्यैर्गुणैः पदार्थैर्विद्वद्भिर्वा सह (याहि) प्राप्तो भव भवति वा (यक्षि) यजामि सङ्गमयामि वा। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (च) पूर्वार्थाकर्षणे॥१॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्याणां या या व्यावहारिकपारमार्थिकसुखेच्छा भवेत्, यैर्वायुजलपृथिवीमयादिभिर्यन्त्रयानैः सहाग्निं सङ्गतं कृत्वा क्रियाः क्रियन्त ईश्वरस्याज्ञासेवनं वेदानामध्ययनाध्यापने तदुक्तानुष्ठानं च त एवाभित आनन्दं प्राप्नुवन्ति॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब चौदहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में बहुत पदार्थों के साथ संयोग करनेवाले ईश्वर और भौतिक अग्नि का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (एभिः) इन (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) दिव्यगुण और विद्वानों के साथ (सोमपीतये) सुख करनेवाले पदार्थों के पीने के लिये (दुवः) सत्कारादि व्यवहार तथा (गिरः) वेदवाणियों को (याहि) प्राप्त हूजिये। मैं ईश्वर के (दुवः) सत्कारादि व्यवहार और वेदवाणियों को (यक्षि) सङ्गत अर्थात् अपने मन और कामों में अच्छी प्रकार सदैव यथाशक्ति धारण करता हूँ॥१॥जो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (एभिः) इन (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) दिव्यगुण और पदार्थों के साथ (सोमपीतये) जिससे सुखकारक पदार्थों का पीना हो, उस यज्ञ के लिये (दुवः) सत्कारादि व्यवहार तथा (गिरः) वेदवाणियों को (याहि) प्राप्त कराता है, उसको मैं (एभिः) इन (विश्वेभिः) सब (देवेभिः) विद्वानों के साथ (सोमपीतये) उक्त सोम के पीने के लिये (यक्षि) स्वीकार करता हूँ, ॥२॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिन मनुष्यों को व्यवहार और परमार्थ के सुख की इच्छा हो, वे वायु जल और पृथिवीमयादि यन्त्र तथा विमान आदि रथों के साथ अग्नि को स्वीकार करके उत्तम क्रियाओं को सिद्ध करते और ईश्वर की आज्ञा का सेवन, वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और वेदोक्त कर्मों का अनुष्ठान करते रहते हैं, वे ही सब प्रकार से आनन्द भोगते हैं॥१॥
मराठी (1)
विषय
या देवांचा प्रकाश व क्रियांच्या समुच्चयाने या चौदाव्या सूक्ताची संगती पूर्वोक्त तेराव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या माणसांना व्यवहार व परमार्थाच्या सुखाची इच्छा असेल ते वायू, जल किंवा पृथ्वीमय इत्यादी यंत्र व विमान इत्यादी रथांबरोबर (वाहनांबरोबर) अग्नीचे संप्रयोजन करून उत्तम क्रिया सिद्ध करतात व ईश्वराच्या आज्ञा पाळतात. वेदांचे अध्ययन, अध्यापन व वेदोक्त कर्मांचे अनुष्ठान करतात तेच सर्वप्रकारे आनंद भोगतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and life, listen to our words of reverence and prayer, come with all these generous powers and gifts of nature for the protection and promotion of the soma-joy of our yajna, and inspire us to carry on with the performance.
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