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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ये यज॑त्रा॒ य ईड्या॒स्ते ते॑ पिबन्तु जि॒ह्वया॑। मधो॑रग्ने॒ वष॑ट्कृति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । यज॑त्राः । ये । ईड्याः॑ । ते । ते॒ । पि॒ब॒न्तु॒ । जि॒ह्वया॑ । मधोः॑ । अ॒ग्ने॒ । वष॑ट्ऽकृति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया। मधोरग्ने वषट्कृति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। यजत्राः। ये। ईड्याः। ते। ते। पिबन्तु। जिह्वया। मधोः। अग्ने। वषट्ऽकृति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशाः सन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    ये मनुष्या यजत्रास्ते तथा य ईड्यास्ते जिह्वयाऽग्नेऽग्नौ वषट्कृति मधोर्मधुरगुणांशान् पिबन्तु यथावत् पिबन्ति॥८॥

    पदार्थः

    (ये) विद्युदादयः (यजत्राः) सङ्गमयितुं योग्याः। पूर्ववदस्य सिद्धिः। (ईड्यः) अध्येषितुं योग्याः (ते) पूर्वोक्ता जगतीश्वरेणोत्पादिताः (ते) वर्त्तमानाः (पिबन्तु) पिबन्ति। अत्र लडर्थे लोट्। (जिह्वया) ज्वालाशक्त्या (मधोः) मधुरगुणांशान्। (अग्ने) अग्नौ। अत्र व्यत्ययः। (वषट्कृति) वषट् करोति येन यज्ञेन तस्मिन्। अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकमाश्रित्य करणे क्विप्॥८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरस्मिन् जगति सर्वेषु पदार्थेषु द्विविधं कर्म योजनीयमेकं गुणज्ञानं द्वितीयं तेभ्यः कार्य्यसिद्धिकरणम्। ये विद्युदादयः सर्वेभ्यो मूर्त्तद्रव्येभ्यो रसं सङ्गृह्य पुनर्विमुञ्चन्ति तेषां शुद्ध्यर्थं सुगन्ध्यादिपदार्थानां अग्नौ प्रक्षेपणं नित्यं कार्य्यं यतस्ते सुखसाधिनो भवेयुः॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उक्त पदार्थ किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (ये) जो मनुष्य विद्युत् आदि पदार्थ (यजत्राः) कलादिकों में संयुक्त करते हैं (ते) वे, वा (ये) जो गुणवाले (ईड्याः) सब प्रकार से खोजने योग्य हैं (ते) वे (जिह्वया) ज्वालारूपी शक्ति से (अग्ने) अग्नि में (वषट्कृति) यज्ञ के विशेष-विशेष काम करने से (मधोः) मधुरगुणों के अंशों को (पिबन्तु) यथावत् पीते हैं॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को इस जगत् में सब संयुक्त पदार्थों से दो प्रकार का कर्म करना चाहिये अर्थात् एक तो उनके गुणों का जानना, दूसरा उनसे कार्य्य की सिद्धि करना। जो विद्युत् आदि पदार्थ सब मूर्त्तिमान् पदार्थों से रस को ग्रहण करके फिर छोड़ देते हैं, इससे उनकी शुद्धि के लिये सुगन्धि आदि पदार्थों का होम निरन्तर करना चाहिये, जिससे वे सब प्राणियों को सुख सिद्ध करनेवाले हों॥८॥

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    विषय

    यजन ईड्य

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - परमात्मन्  ! आपकी कृपा से (वषट्कृति) - स्वाहकार से युक्त इस जीवन में  , स्वार्थ त्यागवाले यज्ञमय जीवन में (ते ते) - वे वे व्यक्ति (जिह्वया) - जिह्वा से (मधोः पिबन्तु) - मधुर रसों का ही पान करें (ये) - जो (यजत्राः) - यज्ञों द्वारा अपना त्राण करनेवाले हैं और ये जो (ईड्याः) - [ईड् - स्तुति  , तत्र साधुः] प्रभुस्तवन में उत्तम हैं । 
    २. यजत्र व ईड्य वे ही बनते हैं जो मधुर  , सात्त्विक अन्न - रस का सही सेवन करते हैं और जीवन को यज्ञमय बनाते हैं । 'जिह्वा सात्त्विक मधुर अन्नों का ही सेवन करे और हमारा जीवन सदा स्वार्थत्याग की भावनावाला हो' बस  , प्रभु का सर्वोत्तम स्तवन यही है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से भोजन में हमारी रुचि सात्त्विक अन्नों की ओर हो और यज्ञों द्वारा हम अपने शरीर व मन का रोगों व वासनाओं से त्राण करनेवाले बनें । 
     

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    विषय

    फिर उक्त पदार्थ किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये मनुष्या यजत्राः ते तथा य ईड्यास्ते जिह्वया अग्ने अग्नौ  वषट्कृति मधोः मधुर गुणांशान्  पिबन्तु  यथावत् पिबन्ति॥८॥

    पदार्थ

    (ये) विद्युदादयः=जो विद्युत् आदि पदार्थ,  (मनुष्या)=मनुष्य लोग, (यजत्राः) सङ्गमयितुं योग्याः= सङ्गतिकरण आदि में मिलते हैं, (ते) वर्त्तमानाः= उपस्थित होते  हैं,  (तथा)=उसी प्रकार, (य)=जो, (ईड्याः) अध्येषितुं योग्याः= सब प्रकार से खोजने योग्य हैं, (ते)=वे, (जिह्वया) ज्वालाशक्त्या=ज्वालारूपी शक्ति से, (अग्ने) अग्नौ=भौतिक अग्नि में, (वषट्कृति) वषट् करोति येन यज्ञेन तस्मिन्=जिससे यज्ञ किया जाता है, उसमें, (विशेष) विशेष काम करने से, (मधोः) मधुरगुणांशान्=मधुरगुणों के अंशों को, (यथावत्)=यथावत्, (पिबन्तु) पिबन्ति=पीते हैं॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को इस जगत् में सब संयुक्त पदार्थों से दो प्रकार का कर्म करना चाहिये अर्थात् एक तो उनके गुणों का जानना चाहिये, दूसरा उनसे कार्य्य की सिद्धि करना चाहिये । जो विद्युत् आदि पदार्थ सब मूर्त्तिमान् पदार्थों से रस को ग्रहण करके फिर छोड़ देते हैं, इससे उनकी शुद्धि के लिये सुगन्धि आदि पदार्थों का होम निरन्तर करना चाहिये, जिससे वे सब प्राणियों को सुख की  सिद्धि करनेवाले हों॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो विद्युत् आदि पदार्थ और (मनुष्या) मनुष्य लोगों की (यजत्राः) सङ्गतिकरण आदि में (ते) उपस्थित होते  हैं। (तथा) उसी प्रकार (य) जो (ईड्याः) सब प्रकार से खोजने योग्य हैं। (ते) वे (जिह्वया) ज्वालारूपी शक्ति से (अग्ने)  भौतिक अग्नि में (वषट्कृति) जिससे यज्ञ किया जाता है, उसमें (विशेष) विशेष प्रक्रिया से (मधोः) मधुरगुणों के अंशों को (यथावत्) यथावत् (पिबन्तु) पीते हैं, अर्थात् ग्रहण करते हैं॥८॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ये) विद्युदादयः (यजत्राः) सङ्गमयितुं योग्याः। पूर्ववदस्य सिद्धिः। (ईड्यः) अध्येषितुं योग्याः (ते) पूर्वोक्ता जगतीश्वरेणोत्पादिताः (ते) वर्त्तमानाः (पिबन्तु) पिबन्ति। अत्र लडर्थे लोट्। (जिह्वया) ज्वालाशक्त्या (मधोः) मधुरगुणांशान्। (अग्ने) अग्नौ। अत्र व्यत्ययः। (वषट्कृति) वषट् करोति येन यज्ञेन तस्मिन्। अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकमाश्रित्य करणे क्विप्॥८॥
    विषयः- पुनस्ते कीदृशाः सन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- ये मनुष्या यजत्रास्ते तथा य ईड्यास्ते जिह्वयाऽग्नेऽग्नौ वषट्कृति मधोर्मधुरगुणांशान् पिबन्तु यथावत् पिबन्ति॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरस्मिन् जगति सर्वेषु पदार्थेषु द्विविधं कर्म योजनीयमेकं गुणज्ञानं द्वितीयं तेभ्यः कार्य्यसिद्धिकरणम्। ये विद्युदादयः सर्वेभ्यो मूर्त्तद्रव्येभ्यो रसं सङ्गृह्य पुनर्विमुञ्चन्ति तेषां शुद्ध्यर्थं सुगन्ध्यादिपदार्थानां अग्नौ प्रक्षेपणं नित्यं कार्य्यं यतस्ते सुखसाधिनो भवेयुः॥८॥

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    विषय

    वषट् कृति ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो मनुष्य ( यजत्राः ) यज्ञ करने वाले, उपासना शील और जो ( ईड्या: ) स्तुति करने योग्य हैं ( ते ) वे ( जिह्वया ) अपनी वाणी द्वारा ही हे ( अग्ने ) विद्वन् ! परमेश्वर ! ( वषट्कृति ) वषट्कार युक्त यज्ञ अर्थात् बल के कार्य में और गृहस्थ के यज्ञादि कार्य में ( मधोः पिबन्तु ) मधुर रस, ज्ञान और अन्न का पान करें । [१] शरीर में वाणी और प्राण और अपान ये वषट्कार हैं । [२] वीर्य सेचन भी वषटकार है । छः ऋतुओं में सूर्य बलाधान करता है यह उसका वपट्कार है । सूर्य स्वतःवषकार है । ‘धाता’ होना अर्थात् वीर्य आधान करने में समर्थ होना वषट्कार है । वज्र, धामच्छद् और रिक्त ये तीन स्वरूप वषटकार के हैं । ओजः और सहः अर्थात् पराक्रम और शत्रु दमनकारी बल ये दोनों वषट्कार के दो स्वरूप हैं । ब्रह्म यज्ञ के चार वषट्कार हैं वायु का वेग से चलना, बिजुली का चमकना, गर्जना, और कड़कना । फलतः—यज्ञ में—( यजमना ईड्याः ) यज्ञशील स्तुति योग्य पुरुष मधुर अन्न का भोग करें । गृहस्थ कार्य, प्रजोत्पत्ति के कार्य में हे अग्ने ! काम ! परस्पर संगत एवं एक दूसरे की इच्छा पूर्ति करने वाले स्त्री पुरुष ( जिह्वया ) इस ग्रहण शक्ति से (मधोः) मधुर रस आनन्द को प्राप्त करें। विद्युत पक्ष में—जो परस्पर नाना तत्त्वों को मिलाने में चतुर विद्वान् पुरुष हैं वे बलोकारी शक्ति के उत्पादन कार्य में उत्तम वश कारिणी शक्ति से ( मधोः ) बल का उपयोग करें।

    टिप्पणी

    ‘वषट्कारः’ ( १ ) वाग् वै वषट्कारः । वाग् रेतः । रेत एव एतत् सिञ्चति, षट् इति । ( २ ) ऋतवो वैषट् । तहतुष्वेव एतद् रेतः सिच्यते तदृतवो रेतःसिक्त न मिमाः प्रजाः प्रजनयन्ति । तस्मा देवं वषट् करोति । श० १ । ७ । २ । २१॥ वाक् च प्राणापानौ च वषट्कारः । ऐ० ६ । ८ ॥ प्राणो वै वषट्कारः । एष एव वषट्कारो य एष तपति । श० १ । ७ । २ । ११ ॥ यो धाता स वषट्कारः ।। ऐ० ३ । ४७ ॥ त्रयो वै वषट्काराः वज्रो धामच्छद् रिक्तः । स यदेवोच्चैः बलं वषट् करोति स वज्रः । अथा यः समः सन्ततो निर्हाणच्छत् स धामच्छत् अथ येन वषट् परानति स रिक्तः । गो० उ० ३ । ३ । वज्रो वै वषट्कारः । ऐ० ३ । ८ एते एव वषट्कारस्य प्रियतमे तनू यदोजश्च सहश्च । कौ० ३ । ५ । २ । ऐ०३ । ८ ॥ तस्य एतस्य ब्रह्मयज्ञस्य चत्वारो वषट्काराः—यद् वातो वाति । यद् विद्योतते । यत्स्तनयति । यदवस्फूर्जति । श० ११ । ४ । ६ । ९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी या जगात सर्व संयुक्त पदार्थांनी दोन प्रकारचे कर्म केले पाहिजे. अर्थात एक तर त्यांचे गुण जाणणे, दुसरे त्यांच्याद्वारे कार्याची सिद्धी करणे. जे विद्युत इत्यादी पदार्थ सर्व मूर्तिमान पदार्थांपासून रसग्रहण करून पुन्हा सोडून देतात. त्यामुळे त्यांच्या शुद्धीसाठी सुगंधित पदार्थांचा होम निरंतर केला पाहिजे. ज्यामुळे ते सर्व प्राण्यांचे सुख सिद्ध करणारे व्हावेत. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Those who conduct the yajna, those who are worthy of reverence and adoration, they taste the honey- sweets of yajna with flames of fire.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of aforesaid substances are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=Which electricity et cetera substances, our=and, (manuṣyā)= of men, (yajatrāḥ)=get associated in religious congrgation et cetera, (te)=present, (tathā)=in the same way, (ya)=which, in other words accept (īḍyāḥ)=are worth searching by every way, (te)=they, (jihvayā)=by the power of fire flame, (agne)=in physical fire, (vaṣaṭkṛti)=by which oblation is performed, in that, (viśeṣa)=by a special procedure, (madhoḥ)= parts of sweet qualities, (yathāvat)=as required, (pibantu)=drink, in other words accept.

    English Translation (K.K.V.)

    Which are present in matter like electricity and having company of human beings etc. In the same way that is searchable in every way. They imbibe, that is, imbibe the portions of the sweet qualities in the physical fire by the force of fire through a special process in which yajan is performed.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- Human beings should do two types of works with all the combined substances in this world, that is, firstly should know their qualities, and secondly they should accomplish their work. The electricity etc., which after taking the juice from all the embodied substances and then leaving it, for their purification, the homa (yajan) of the fragrance etc. should be continuously done, so that, they are the ones who bring happiness to all the living beings.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who are objects of veneration and praiseworthy or these objects like electricity air etc. which are to be united with machines and are to be investigated, may drink of the sweet juice after putting oblations in the fire through the Yajna (non-violent sacrifice) with its power or the tongue in the form of its flame.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ईड्याः) अध्येषितुं योग्याः = Fit to be praised or investigated (वषट्कृति) वषट् करोति येन यज्ञेन तस्मिन् अत्र "कृतो बहुलम्" इति वार्तिकमाश्रित्य करणे क्विप् || = In the Yajna or sacrifice.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should unite two fold action with every object, first to know its properties and second to accomplish from them some purpose. The things like electricity which take the sap from all gross objects and leave it behind, for their purification, men should put fragrant and other articles in the fire, so that they may bring about the happiness to and welfare of all beings.

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