ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 11
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वं होता॒ मनु॑र्हि॒तोऽग्ने॑ य॒ज्ञेषु॑ सीदसि। सेमं नो॑ अध्व॒रं य॑ज॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । होता॑ । मनुः॑ऽहितः । अग्ने॑ । य॒ज्ञेषु॑ । सी॒द॒सि॒ । सः । इ॒मम् । नः॒ । अ॒ध्व॒रम् । य॒ज॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि। सेमं नो अध्वरं यज॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। होता। मनुःऽहितः। अग्ने। यज्ञेषु। सीदसि। सः। इमम्। नः। अध्वरम्। यज॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
अन्वयः
हे अग्ने ! यस्त्वं मनुर्हितो होता यज्ञेषु सीदसि स त्वं नोऽस्माकमिममध्वरं यज सङ्गमय॥११॥
पदार्थः
(त्वम्) जगदीश्वरः (होता) सर्वस्य दाता (मनुर्हितः) मनुषो मननकर्त्तारो मनुष्यादयो हिता धृता येन सः (अग्ने) पूजनीयतम (यज्ञेषु) क्रियाकाण्डादिविज्ञानान्तेषु सङ्गमनीयेषु (सीदसि) अवस्थितोऽसि (सः) जगत्स्रष्टा धर्त्ता च (इमम्) अस्मदनुष्ठीयमानम्। अत्र सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्। (अष्टा०६.१.१३०) अनेन सोर्लोपः। (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) अहिंसनीयं सुखहेतुम् (यज) सङ्गमयास्य सिद्धिं सम्पादय॥११॥
भावार्थः
येनेश्वरेण सर्वे मनुष्यव्यक्त्यादय उत्पाद्य धारिता, यस्मादयं सर्वेषु कर्मोपासनाज्ञानकाण्डेषु पूज्यतमोऽस्ति, तस्मात्स एवेदं जगदाख्यं यज्ञं सङ्गमयित्वाऽस्मान् सुखयतीति॥११॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (अग्ने) जो आप अतिशय करके पूजन करने योग्य जगदीश्वर ! (मनुर्हितः) मनुष्य आदि पदार्थों के धारण करने और (होता) सब पदार्थों के देनेवाले हैं, (त्वम्) जो (यज्ञेषु) क्रियाकाण्ड को आदि लेकर ज्ञान होने पर्य्यन्त ग्रहण करने योग्य यज्ञों में (सीदसि) स्थित हो रहे हो, (सः) सो आप (नः) हमारे (इमम्) इस (अध्वरम्) ग्रहण करने योग्य सुख के हेतु यज्ञ को (यज) सङ्गत अर्थात् इसकी सिद्धि को दीजिये॥११॥
भावार्थ
जिस ईश्वर ने सब मनुष्यों आदि प्राणियों के शरीर आदि पदार्थों को उत्पन्न करके धारण किये हैं, तथा जो यह सब कर्म उपासना तथा ज्ञानकाण्ड में अतिशय से पूजने के योग्य है, वही इस जगत् रूपी यज्ञ को सिद्ध करके हम लोगों को सुखयुक्त करता है॥११॥
विषय
अध्वर
पदार्थ
१. सोम की रक्षा के लिए जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि (अग्ने त्वं होता) - हे प्रभो । आप ही हमें सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले हैं , (मनुर्हितः) - ज्ञान के द्वारा आप ही हमारा कल्याण करनेवाले हैं । प्रभु जिसका कल्याण करते हैं उसे सद्बुद्धि व उत्तम ज्ञान प्राप्त कराते हैं ।
२. हे प्रभो ! आप (यज्ञेषु सीदसि) - यज्ञों में आसीन होते हैं । हमारा जीवन यज्ञमय होता है तो उसमें भी आपका निवास होता है । वस्तुतः तो आपकी कृपा से ही वे यज्ञ चल रहे होते हैं ।
३. (सः) - वे आप (नः) - हमारे (इमम्) - इस (अध्वरम्) - हिंसारहित जीवन - यज्ञ को (यज) - पूर्ण करनेवाले होओ । आपकी कृपा से ही यह जीवन - यज्ञ बना रहेगा और सरलता से पूर्ण हो सकेगा ; आपसे अलग होते ही मेरा यह जीवन 'अध्वर' न रहकर छल - छिद्र व कपट - जाल से भर जाता है और चार दिन की प्रतीयमान चमक के बाद वहाँ अन्धकार - ही - अन्धकार आ जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु होता है , मनुर्हित हैं , वे मेरे जीवन - यज्ञ को चलानेवाले हों , जिससे यह अध्वर बना रहे ।
विषय
अब इस मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अग्ने ! यः त्वं मनुः हितः होता यज्ञेषु सीदसि स त्वं नः-अस्माकम् इमम् अध्वरं यज सङ्गमय ॥११॥
पदार्थ
हे (अग्ने) पूजनीयतम=अतिशय पूजनीय परमेश्वर, (यः)=जो, (त्वम्)=आप, (मनुर्हितः) मनुषो मननकर्त्तारो मनुष्यादये हिता धृता येन सः=मनुष्यों का मनन, हित और धारण करानेवाले, (होता) सर्वस्य दाता=सब पदार्थों को देनेवाला, (यज्ञेषु) क्रियाकाण्डादिविज्ञानान्तेषु सङ्गमनीयेषु=क्रियाकाण्ड आदि के बाद ज्ञान होने पर सङ्गतिकरण करने योग्य, (सीदसि) अवस्थितो ऽ सि=स्थित हो रहे हो, (स)=ऐसे, (त्वम्)=आप, (नः-अस्माकम्)=हमारे लिये, (इमम्)=इस, (अध्वरम्) अहिंसनीयंसुखहेतुम्=अहिंसनीय सुख के साधन, (यज)सङ्गमयास्य सिद्धिं सम्पादय=सङ्गतिकरण वाली सिद्धि को दीजिये ॥११॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जिस ईश्वर ने सब मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं और जो यह सब कर्म उपासना तथा ज्ञानकाण्ड में अतिशय से पूजने के योग्य है, वही इस जगत् रूपी यज्ञ को सिद्ध करके हम लोगों को सुखयुक्त करता है॥११॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अग्ने) अतिशय पूजनीय परमेश्वर! (यः) जो (त्वम्) आप (मनुर्हितः) मनुष्यों के मनन करने, हित करने, धारण कराने वाले और (होता) सब पदार्थों को देने वाले हो। (यज्ञेषु) क्रियाकाण्ड आदि के बाद ज्ञान होने पर सङ्गतिकरण करने योग्य (सीदसि) स्थित हो रहे हो। (स) ऐसे (त्वम्) आप (नः) हमारे लिये (इमम्) इस (अध्वरम्) अहिंसनीय सुख के साधन (यज) और सङ्गतिकरण वाली सिद्धि को दीजिये ॥११॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) जगदीश्वरः (होता) सर्वस्य दाता (मनुर्हितः) मनुषो मननकर्त्तारो मनुष्यादयो हिता धृता येन सः (अग्ने) पूजनीयतम (यज्ञेषु) क्रियाकाण्डादिविज्ञानान्तेषु सङ्गमनीयेषु (सीदसि) अवस्थितोऽसि (सः) जगत्स्रष्टा धर्त्ता च (इमम्) अस्मदनुष्ठीयमानम्। अत्र सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्। (अष्टा०६.१.१३०) अनेन सोर्लोपः। (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) अहिंसनीयं सुखहेतुम् (यज) सङ्गमयास्य सिद्धिं सम्पादय॥११॥
विषयः- अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
अन्वयः- हे अग्ने ! यस्त्वं मनुर्हितो होता यज्ञेषु सीदसि स त्वं नोऽस्माकमिममध्वरं यज सङ्गमय॥११॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- येनेश्वरेण सर्वे मनुष्यव्यक्त्यादय उत्पाद्य धारिता, यस्मादयं सर्वेषु कर्मोपासनाज्ञानकाण्डेषु पूज्यतमोऽस्ति, तस्मात्स एवेदं जगदाख्यं यज्ञं सङ्गमयित्वाऽस्मान् सुखयतीति॥११॥
विषय
सुख प्राप्ति, पक्षान्तर में राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! ( त्वं ) तू ( होता ) यज्ञ में होता नाम ऋत्विज् के समान सब ज्ञानों को धारण करने वाला, ( मनुः ) मननशील, ( हितः ) सर्व हितकारी होकर ( यज्ञेषु ) यज्ञों में ( सीदसि ) विराज । ( सः ) वह तू ( नः ) हमारे ( इमं ) इस ( अध्वरम् ) यज्ञ, एवं न नाश करने योग्य, उत्तम, सुखजनक पदार्थ को ( यज ) प्राप्त करा । राजा के पक्ष में—राष्ट्र को अपने वश करने और सब को यथायोग्य मान, पद वेतन आदि देने में समर्थ, मननशील पुरुष को प्रजापालन के कार्यों में स्थापन करे। वह हमारे ( अध्वरम् ) प्रजापालन रूप यज्ञ को व्यवस्थित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या ईश्वराने सर्व माणसे व प्राणी यांचे शरीर इत्यादी पदार्थांना उत्पन्न करून धारण केलेले आहे, तसेच जो ज्ञान, कर्म, उपासनेत अत्यंत पूजनीय आहे तोच हा जगतरूपी यज्ञ सिद्ध करून आम्हाला सुख देतो. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Universal fire, lover and sustainer of humanity, you are the prime agent of the cosmic dynamics of life, and you preside over all the yajnas of nature and mankind. Pray grace this yajna of ours and help it rise to success.
Subject of the mantra
Now, by the word ‘Agni” God has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)=extremely revered God, (yaḥ)=that, (tvam)=You, (manurhitaḥ)= for contemplating, benefiting, sustaining human beings and, (hotā)=provider of all substances, (yajñeṣu)=compatible after realization of knowledge with rituals, (sīdasi)=are settling down, (tvam)=You, (tvam)=for us, (adhvaram)=non-violent means of delight, (yaja)=and provide us accomplishment of compatibility.
English Translation (K.K.V.)
O extremely revered God! That You, for contemplating, benefiting, sustaining human beings are provider of all the substances. You are compatible after realization of knowledge with rituals and settling down. Such you, kindly provide us accomplishment of compatibility.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The God who has created and imbibed the bodies of all humans and other living being beings and who is worthy of being worshiped with utmost devotion in all these deeds, worship and knowledge, He makes us happy by accomplishing the universe form of yajan for us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now by the term Agni, God is taught in the eleventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O most Adorable God, Thou art the Upholder of all thoughtful persons, Giver of all peace and Bliss, and present in all Yajnas (noble and philanthropic activities) Therefore kindly enable us to accomplish this non- violent and indestructible Yajna which is the cause of happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(होता) सर्वस्य दाता = Giver of all. (मनुर्हितः ) मनुषो मननकर्तारो मनुष्यादयः हिताः धृता येन स = The Upholder of all thoughtful men.(अध्वरम् )अहिंसनीय सुखहेतुम् = Indestructible Yajna, the cause of happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God creates and upholds all men and other beings. He is the most Adorable Supreme Being in all actions, Contemplation (communion) and knowledge. Therefore it is He who as the Performer of this vast Yajna in the form of the Universe, makes us happy.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has explained the word used in the Mantra as a thoughtful person. It is clearly on the basis of the verb मन-अवगमे or बोधे and the authority of the Aitarey Brahman which explaining अग्निहोंता मनुवृतः = says in 2.34 अग्निर्होता मनुसृतः अयम् (अग्निः) सर्वतो मनुष्यैर्वृतः ।। So it is clear that the word Manu is used in the Vedic literature for men. (होता) सर्वस्य दाता Here the word होता has been derived from the root हु-दानादनया: आदाने च The first meaning of "giving" has been taken by the Revered Commentator - Rishi Dayananda Sarasvati.
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