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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र वो॑ भ्रियन्त॒ इन्द॑वो मत्स॒रा मा॑दयि॒ष्णवः॑। द्र॒प्सा मध्व॑श्चमू॒षदः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । भ्रि॒य॒न्ते॒ । इन्द॑वः । म॒त्स॒राः । मा॒द॒यि॒ष्णवः॑ । द्र॒प्साः । मध्वः॑ । च॒मू॒ऽसदः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः। द्रप्सा मध्वश्चमूषदः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। भ्रियन्ते। इन्दवः। मत्सराः। मादयिष्णवः। द्रप्साः। मध्वः। चमूऽसदः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    एवं सम्प्रयोजिता एते किंहेतुका भवन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! यथा मया वो युष्मभ्यं पूर्वमन्त्रोक्तैरिन्द्राभिरेव मध्वो मत्सरा मादयिष्णवो द्रप्साश्चमूषद इन्दवः प्रभ्रियन्ते प्रकृष्टतया ध्रियन्ते तथा युष्माभिरपि मदर्थमेते सम्यग्धार्य्याः॥४॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्मभ्यम् (भ्रियन्ते) ध्रियन्ते (इन्दवः) रसवन्तः सोमाद्यौषधिगणाः (मत्सराः) माद्यन्ति हर्षन्ति यैस्ते। अत्र कृधूमदिभ्यः कित्। (उणा०३.७३) अनेन मदेः सरन् प्रत्ययः। (मादयिष्णवः) हर्षनिमित्ताः। अत्र णेश्छन्दसि। (अष्टा०३.२.१३७) अनेन ण्यन्तान्मदेरिष्णुच् प्रत्ययः। (द्रप्साः) दृप्यन्ति संहृष्यन्ते बलानि सैन्यानि वा यैस्ते। अत्र दृप हर्षणमोहनयोः इत्यस्माद्बाहुलकात्करणकारक औणादिकः सः प्रत्ययः। (मध्वः) मधुरगुणवन्तः (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्ति ते अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकमाश्रित्य सत्सूद्विष० (अष्टा०३.२.६१) अनेन करणे क्विप्। कृषिचमितनि० (उणा०१.८१) अनेन चमूशब्दश्च सिद्धः। चमन्त्यदन्ति विनाशयन्ति शत्रुबलानि याभिस्ताश्चम्वः॥४॥

    भावार्थः

    ईश्वरोऽभिवदति-मया धारितैर्मद्रचितैः पूर्वमन्त्रप्रतिपादितैर्विद्युदादिभिर्ये सर्वे पदार्थाः पोष्यन्ते ये तेभ्यो वैद्यकशिल्पशास्त्ररीत्या प्रकृष्टरसोत्पादनेन शिल्पकार्य्यसिद्ध्योत्तमसेनासम्पादनाद् रोगनाशविजयप्राप्तिं कुर्वन्ति तैर्विविधम् आनन्दं भुञ्जते इति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त पदार्थ इस प्रकार संयुक्त किये हुए किस-किस कार्य को सिद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैंने धारण किये, पूर्व मन्त्र में इन्द्र आदि पदार्थ कह आये हैं, उन्हीं से (मध्वः) मधुर गुणवाले (मत्सराः) जिनसे उत्तम आनन्द को प्राप्त होते हैं (मादयिष्णवः) आनन्द के निमित्त (द्रप्साः) जिन से बल अर्थात् सेना के लोग अच्छी प्रकार आनन्द को प्राप्त होते और (चमूषदः) जिनसे विकट शत्रुओं की सेनाओं में स्थिर होते हैं, उन (इन्दवः) रसवाले सोम आदि ओषधियों के समूहों को (वः) तुम लोगों के लिये (भ्रियन्ते) अच्छी प्रकार धारण कर रक्खे हैं, वैसे तुम लोग भी मेरे लिये इन पदार्थों को धारण करो॥४॥

    भावार्थ

    ईश्वर सब मनुष्यों के प्रति कहता है कि जो मेरे रचे हुए पहिले मन्त्र में प्रकाशित किये बिजुली आदि पदार्थों से ये सब पदार्थ धारण करके मैंने पुष्ट किये हैं, तथा जो मनुष्य इनसे वैद्यक वा शिल्पशास्त्रों की रीति से उत्तम रस के उत्पादन और शिल्प कार्य्यों की सिद्धि के साथ उत्तम सेना के सम्पादन होने से रोगों का नाश तथा विजय की प्राप्ति करते हैं, वे लोग नाना प्रकार के सुख भोगते हैं॥४॥

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    विषय

    इन्दु - भरण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित देवों के निवास के लिए कहते हैं कि (वः) - तुम्हारे लिए ये (इन्दवः) - शक्ति को देनेवाले (द्रप्साः) - बिन्दुरूप ये सोमकण (प्रभियन्ते) - प्रकर्षेण भूत होते हैं । ये तुम्हारे अन्दर धारण किये जाते हैं । ये (सोम मत्सराः) [मन्दतेस्तृप्तिकर्मणः] - एक विशेष तृप्ति को देनेवाले हैं  , (मादयिष्णवः) - ये जीवन में एक अनुपम उल्लास के जनक हैं । (मध्वः) [मधुराः] - जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले हैं तथा (चमूषदः) [चम्बौ द्यावापृथिव्यौ  , नि० ३.३०] - द्यावापृथिवी के हेतु से शरीर में रहनेवाले हैं । मस्तिष्क ही द्युलोक है  , शरीर ही पृथिवी है । इस सोम से जहाँ शरीर स्वस्थ व दृढ़ बनता है वहाँ मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि दीप्त होती है एवं यह सोम 'द्यावापृथिवी' में स्थित होता है । इसके रक्षण से एक मनुष्य ज्ञान में ऋषियों के तुल्य तथा बल में एक मल्ल के समान बनता है । 
    २. एवं  , मन्त्रार्थ से निम्न बातें स्पष्ट हैं - 
    [क] जब शरीर में सोम की रक्षा की जाती है तब ये सोमकण हमें शक्तिशाली बनाते हैं [इन्दवः] १.१४.६ 
    [ख] मन में एक तृप्ति का अनुभव कराते हुए उल्लास को पैदा करते हैं [मत्सराः]
    [ग] हमारी वाणी व व्यवहार में 'माधुर्य को प्रवाहित करते हैं [मध्वः]
    [घ] ये हमें शरीर से मल्ल के समान व मस्तिष्क से एक ऋषि के तुल्य बनानेवाले हैं [चमूषदः] । 


     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम शरीर में सोमकणों का प्रकर्षण भरण करें । ये सोमकण 'इन्दु  , मत्सर  , मादयिष्णु  , मधु व चमूषद' हैं । 

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    विषय

    उक्त पदार्थ इस प्रकार संयुक्त किये हुए किस-किस कार्य को सिद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! यथा मया वो युष्मभ्यं पूर्वमन्त्रोक्तैः इन्द्राभिः एव मध्वः मत्सरा मादयिष्णवः द्रप्साः चमूषद इन्दवः प्रभ्रियन्ते (प्रकृष्टतया ध्रियन्ते) तथा युष्माभिः अपि मदर्थम् एते सम्यक् धार्य्याः॥४॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)=मनुष्यों ! (यथा)=जिस प्रकार, (मया)=मेरे द्वारा, (वः-युष्मभ्यम्)=तुम सब के लिए, (पूर्वमन्त्रोक्तैः)=पूर्व मन्त्र में कहे गये, (इन्द्राभिः)=इन्द्र से, (एव)=ही, (मध्वः) मधुरगुणवन्तः= मधुर गुणवाले, (मत्सराः) माद्यन्ति हर्षन्ति यैस्ते= जिनसे उत्तम आनन्द को प्राप्त होते हैं, (मादयिष्णवः) हर्षनिमित्ताः= आनन्द के निमित्त, (द्रप्साः) दृप्यन्ति संहृष्यन्ते बलानि सैन्यानि वा यैस्ते=जिन से बल अर्थात् सेना के लोग अच्छी प्रकार आनन्द को प्राप्त होते हैं, (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्ति ते=जिनसे विकट शत्रुओं की सेनाओं में स्थिर होते हैं, (इन्दवः) रसवन्तः सोमाद्यौषधिगणाः= रसवाले सोम आदि ओषधियों के समूहों को, {प्र+भ्रियन्ते-(प्रकृष्टतया ध्रियन्ते)}=अच्छी प्रकार धारण कर रक्खे हैं, (तथा)=वैसे ही, (युष्माभिः)=तुम सबसे, (अपि)=भी, (मदर्थम्)=मेरे लिए, (एते)=ये,  (सम्यक्)=अच्छी तरह से, (धार्य्याः)=धारण किए जायें॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर सब मनुष्यों के प्रति कहता है कि जो मेरे रचे हुए पहले मन्त्र में प्रकाशित किये गये बिजली आदि पदार्थों से, ये सब पदार्थ धारण करके मैंने पुष्ट किये हैं, तथा जो मनुष्य इनसे वैद्यक  या  शिल्पशास्त्रों की रीति से उत्तम रस के उत्पादन और शिल्प कार्य्यों की सिद्धि के साथ उत्तम सेना के सम्पादन होने से रोगों का नाश तथा विजय की प्राप्ति करते हैं, वे लोग नाना प्रकार के सुख भोगते हैं॥४॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जिस प्रकार (मया) मेरे द्वारा (वः) तुम सब के लिए (पूर्वमन्त्रोक्तैः) पूर्व मन्त्र में कहे गये (इन्द्राभिः) विद्युत् और पवन से (एव) ही (मध्वः) जो मधुर गुणवाले हैं [और] (मत्सराः) जिनसे उत्तम आनन्द को प्राप्त होते हैं, (मादयिष्णवः) आनन्द के निमित्त (द्रप्साः) जिन से बल अर्थात् सेना के लोग अच्छी प्रकार आनन्द को प्राप्त होते हैं। (चमूषदः) जिनसे विकट शत्रुओं की सेनाओं में स्थिर होते हैं। [वे] (इन्दवः) रसवाले सोम आदि ओषधियों के समूहों को (प्रभ्रियन्ते) अच्छी प्रकार धारण कर रखे हैं (तथा) वैसे ही  (युष्माभिः) तुम सब के द्वारा (अपि) भी (मदर्थम्) मेरे लिए (एते) ये (सम्यक्) अच्छी तरह से (धार्य्याः) धारण किया जाएँ॥४॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्मभ्यम् (भ्रियन्ते) ध्रियन्ते (इन्दवः) रसवन्तः सोमाद्यौषधिगणाः (मत्सराः) माद्यन्ति हर्षन्ति यैस्ते। अत्र कृधूमदिभ्यः कित्। (उणा०३.७३) अनेन मदेः सरन् प्रत्ययः। (मादयिष्णवः) हर्षनिमित्ताः। अत्र णेश्छन्दसि। (अष्टा०३.२.१३७) अनेन ण्यन्तान्मदेरिष्णुच् प्रत्ययः। (द्रप्साः) दृप्यन्ति संहृष्यन्ते बलानि सैन्यानि वा यैस्ते। अत्र दृप हर्षणमोहनयोः इत्यस्माद्बाहुलकात्करणकारक औणादिकः सः प्रत्ययः। (मध्वः) मधुरगुणवन्तः (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्ति ते अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकमाश्रित्य सत्सूद्विष० (अष्टा०३.२.६१) अनेन करणे क्विप्। कृषिचमितनि० (उणा०१.८१) अनेन चमूशब्दश्च सिद्धः। चमन्त्यदन्ति विनाशयन्ति शत्रुबलानि याभिस्ताश्चम्वः॥४॥
    विषयः- एवं सम्प्रयोजिता एते किंहेतुका भवन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा मया वो युष्मभ्यं पूर्वमन्त्रोक्तैरिन्द्राभिरेव मध्वो मत्सरा मादयिष्णवो द्रप्साश्चमूषद इन्दवः प्रभ्रियन्ते प्रकृष्टतया ध्रियन्ते तथा युष्माभिरपि मदर्थमेते सम्यग्धार्य्याः॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरोऽभिवदति-मया धारितैर्मद्रचितैः पूर्वमन्त्रप्रतिपादितैर्विद्युदादिभिर्ये सर्वे पदार्थाः पोष्यन्ते ये तेभ्यो वैद्यकशिल्पशास्त्ररीत्या प्रकृष्टरसोत्पादनेन शिल्पकार्य्यसिद्ध्योत्तमसेनासम्पादनाद् रोगनाशविजयप्राप्तिं कुर्वन्ति तैर्विविधम् आनन्दं भुञ्जते इति॥४॥

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    विषय

    वीर विद्वानों और योगियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों के सुख के लिये ही ( इन्दवः ) द्रुतगति से जाने वाले, ( मत्सराः ) हर्षपूर्वक शत्रु पर प्रयाण करने वाले, (मादयिष्णवः) सबको हर्षित करने वाले, (द्रप्साः) अति गर्वशील, ( चमूषदः ) सेना में सुसज्जित ( मध्वः ) जलों के समान वेग से गतिशील, एवं शत्रुओं का पीड़न करने वाले वीर पुरुष ( भ्रियन्ते ) राष्ट्र में भृति, अन्न आदि द्वारा रक्खे और पाले पोसे जाते हैं । जलों और ओषधि रसों के पक्ष में—( इन्दवः ) द्रवणशील, (मत्सराः) तृप्तिकारक, (मादयिष्णवः) सुख, हर्षजनक, (द्रप्साः) तृप्तिजनक, द्रवरूप, ( चमूषदः ) पात्र स्थित, (मध्वः) मधुर जल (भ्रियन्ते) पात्रों में भरकर रक्खे जाते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर सर्व माणसांना सांगतो - मी पहिल्या मंत्रात प्रकट केलेल्या विद्युत इत्यादी पदार्थांपासून हे सर्व पदार्थ धारण करून पुष्ट केलेले आहेत. जी माणसे त्यांच्यापासून वैद्यक किंवा शिल्पशास्त्राच्या रीतीने उत्तम रसाचे उत्पादन करतात व शिल्पकार्याची सिद्धी करतात, तसेच उत्तम सेनेचे संपादन करतात, त्यामुळे रोगांचा नाश होतो व विजय प्राप्त होतो व ते लोक विविध प्रकारचे सुख भोगतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    All of you maintain these assets, soothing, inspiring, exhilarating, energising, honey-sweet and highly strengthening of growth and protection.

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    Subject of the mantra

    Aforesaid substances have been combined like this, accomplish which deeds, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ)=men, (yathā)=as, (mayā)=by me, (vaḥ)=for you all, (pūrvamantroktaiḥ)=as said in previous mantra, (indrābhiḥ)=by electricity and air, (eva)=only, (madhvaḥ)=which have sweet qualities, [aura]=and, (matsarāḥ)=from whom excellent enjoyment is obtained, (mādayiṣṇavaḥ)=for the sake of enjoyment, (drapsāḥ)=by whom forces, in other words army men get obtained to enjoyment, (camūṣadaḥ)=by whom stay stable against forces of formidable enemies, [ve]=they, (indavaḥ)=to juicy Soma etc. like groups of herbs, (prabhriyante)=are being contained properly, (tathā)= in the same way, (yuṣmābhiḥ)=by you all, (api)=also, (madartham)=for me, (ete)=these, (samyak)=properly, (dhāryyāḥ)=must be contained.

    English Translation (K.K.V.)

    O men! As for you all by me as said in previous mantra; by electricity and air only, which have sweet qualities and from whom excellent enjoyment is obtained for the sake of enjoyment; by whom forces, in other words army men obtain enjoyment; who stay stable against forces of formidable enemies. They contain properly juicy Soma etc. like groups of herbs, in the same way, by you all these must be contained for me properly as well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God says to all humans- “Which I have nourished by possessing all these substances from the things like electricity etc. revealed in the first mantra promulgated by me, and the man who produces the best juice from them in the way of herbal medicines or craftsmanship and with the accomplishment of craft works, making of the best army. Those who destroy diseases and attain victory by virtue, they enjoy different types of happiness”.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God says. As I have made and sustained all these things mentioned in the previous Mantra (Electricity, air, sun, moon etc.) which gladden and exhilarate, are sweet and satisfying, herbs and plants full of sap, giving strength to the soldiers in the army and others, so you should also maintain them, deriving full benefit from of them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्दवः ) रसवन्तः सोमाद्योषधिगणा: (मत्सरा) माद्यन्ति हर्षन्ति यैस्ते । अत्र कृषूमदिभ्यः कित् (उणा० ३.७१ ) अनेन मदे: सरन् प्रत्यय: (मादयिष्णवः ) हर्षानिमित्ताः अत्र णेश्छन्दसि (अष्टा० ३.२.१३७ ) अनेन ण्यन्तान्मदेः इष्णुन् प्रत्ययः । (द्रप्सा:) दृप्यन्ति संदृप्यन्ते बलानि सैन्यानि वा यैस्ते अत्रदृप-हर्षणमोहनयोः इत्यस्माद् बाहुलकात् करणकारक औणादिकः सः प्रत्ययः ॥

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God says “the articles electricity, air etc. which are made by me should be properly utilized according to the Medical science and technology. Those who do so, enjoy all kinds of happiness and bliss, by driving away, all diseases and getting victory by maintaining a strong army and drinking good juice of herbs and fruits etc.

    Translator's Notes

    According to the unadi Kosha 1.12 the word इन्दुः (Indu) is derived from उन्दी क्लेदने उन्देरिच्चादे: (Unadi 1.12 ) to make wet. Therefore Rishi Dayananda. has given the meaning as रसवन्तः सोमाद्योषधि गणाः ।

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