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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒न्द्र॒वा॒यू बृह॒स्पतिं॑ मि॒त्राग्निं॑ पू॒षणं॒ भग॑म्। आ॒दि॒त्यान्मारु॑तं ग॒णम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । बृह॒स्पति॑म् । मि॒त्रा । अ॒ग्निम् । पू॒षण॑म् । भग॑म् । आ॒दि॒त्यान् । मारु॑तम् । ग॒णम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम्। आदित्यान्मारुतं गणम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रवायू इति। बृहस्पतिम्। मित्रा। अग्निम्। पूषणम्। भगम्। आदित्यान्। मारुतम्। गणम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विश्वेषां देवानां मध्यात्काँश्चिदुपदिशति।

    अन्वयः

    हे कण्वा ! भवन्तः क्रियानन्दसिद्धय इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्रमग्निं पूषणं भगमादित्यान्मारुतं गणमहूषत स्पर्धध्वं गृणीत॥३॥

    पदार्थः

    (इन्द्रवायू) इन्द्रश्च वायुश्च तौ विद्युत्पवनौ (बृहस्पतिम्) बृहतां पालनहेतुं सूर्य्यप्रकाशम्। तद्बृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च। (अष्टा०६.१.१५७) अनेन वार्तिकेन बृहस्पतिः सिद्धः। पातेर्डतिः। (उणा०४.५८) अनेन पतिशब्दश्च (मित्रा) मित्रं प्राणम्। अत्र सुपां सुलुग्० इत्यमः स्थान आकारादेशः। (अग्निम्) भौतिकम् (पूषणम्) पुष्ट्यौषध्यादिसमूहप्रापकं चन्द्रलोकम्। पूषेति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेन पुष्टिप्राप्त्यर्थश्चन्द्रो गृह्यते। (भगम्) भजते सुखानि येन तच्चक्रवर्त्यादिराज्यधनम्। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) अत्र ‘भज’धातोः पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। (अष्टा०३.३.११८) अनेन घः प्रत्ययः। भगो भजतेः। (निरु०१.७) (आदित्यान्) द्वादशमासान् (मारुतम्) मरुतामिमम् (गणम्) वायुसमूहम्॥३॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् ‘कण्वा अहूषत गृणन्ति’ इति पदत्रयमनुवर्तते।ये मनुष्या एतानिन्द्रादिपदार्थानीश्वररचितान् विदितगुणान् कृत्वा क्रियासु सम्प्रयुज्यन्ते, ते सुखिनो भूत्वा सर्वान् प्राणिनो मृडयन्ति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में सब देवों में से कई एक देवों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे (कण्वाः) बुद्धिमान् विद्वान् लोगो ! आप क्रिया तथा आनन्द की सिद्धि के लिये (इन्द्रवायू) बिजुली और पवन (बृहस्पतिम्) बड़े से ब़ड़े पदार्थों के पालनहेतु सूर्य्यलोक (मित्रा) प्राण (अग्निम्) प्रसिद्ध अग्नि (पूषणम्) ओषधियों के समूह के पुष्टि करनेवाले चन्द्रलोक (भगम्) सुखों के प्राप्त करानेवाले चक्रवर्त्ति आदि राज्य के धन (आदित्यान्) बारहों महीने और (मारुतम्) पवनों के (गणम्) समूह को (अहूषत) ग्रहण तथा (गृणन्ति) अच्छी प्रकार जान के संयुक्त करो॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से कण्वाः अहूषत और गृणन्ति इन तीन पदों की अनुवृत्ति आती है।जो मनुष्य ईश्वर के रचे हुए उक्त इन्द्र आदि पदार्थों और उनके गुणों को जानकर क्रियाओं में संयुक्त करते हैं, वे आप सुखी होकर सब प्राणियों को सुखयुक्त सदैव करते हैं॥३॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में सब देवों में से कई एक देवों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे कण्वा ! भवन्तः क्रिया आनन्द सिद्धय इन्द्रवायू बृहस्पतिं  मित्रम् अग्निम्  पूषणं  भगम् आदित्यान् मारुतं गणम् अहूषत स्पर्धध्वं  गृणीत॥३॥

    पदार्थ

    हे (कण्वाः) मेधाविनो विद्वांसः=मेधावी विद्वान्, (भवन्तः)=आप सब, (क्रिया)=क्रिया, (आनन्द)=आनन्द, (सिद्धये)=सिद्धि के लिये, (इन्द्रवायू) इन्द्रश्च वायुश्च तौ विद्युत्पवनौ=इन्द्र और वायु अथवा विद्युत और पवन, (बृहस्पतिम्) बृहतां पालनहेतुं सूर्य्यप्रकाशम्=बड़े-बड़े पदार्थों का पालन करने वाले सूर्य, (मित्रम्) मित्रम् प्राणम्=प्राण रूपी मित्र, (अग्निम्) भौतिकम्=भौतिक अग्नि, (पूषणम्) पुष्ट्यौषध्यादिसमूहप्रापकं चन्द्रलोकम्=ओषधियों के समूह की पुष्टि करने वाले चन्द्रलोक, (भगम्) भजते सुखानि येन तच्चक्रवर्त्याराज्यधनम्=सुखों को प्राप्त कराने वाले चक्रवर्ति आदि राज्य के धन, (आदित्यान्) द्वादशमासान्=बारह माह, (मारुतम्) मरुतामिमम्=पवनों के, (गणम्) वायुसमूहम्=समूह को, (अहूषत) आह्वयन्ति-स्पर्धध्वम्=आह्वान करते हैं, (गृणीत) गृणन्ति-अर्चन्ति शब्दयन्ति वा=पूजा करते हैं॥३॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से कण्वाः अहूषत और गृणन्ति इन तीन पदों की अनुवृत्ति आती है। जो मनुष्य ईश्वर के रचे हुए उक्त इन्द्र आदि पदार्थों और उनके गुणों को जानकर क्रियाओं में संयुक्त करते हैं, वे आप सुखी होकर सब प्राणियों को सदैव सुखयुक्त करते हैं॥३॥ 

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य को ऋग्वेद के मन्त्र संख्या ०१.०४.०७  में स्पष्ट किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (कण्वाः) मेधावी विद्वान् (भवन्तः) आप सब (क्रिया) क्रिया और  (आनन्द) आनन्द की  (सिद्धये) सिद्धि के लिये (इन्द्रवायू) विद्युत और पवन (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े पदार्थों का पालन करने वाले सूर्य, (मित्रम्) प्राण रूपी मित्र (अग्निम्) भौतिक अग्नि और (पूषणम्) ओषधियों के समूह की पुष्टि करने वाले चन्द्रलोक (भगम्) सुखों को प्राप्त कराने वाले चक्रवर्ति आदि राज्य के धन (आदित्यान्) बारह माह (मारुतम्) पवनों के (गणम्) समूह का (अहूषत) आह्वान करते हैं (गृणीत) और पूजा करते हैं॥३॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रवायू) इन्द्रश्च वायुश्च तौ विद्युत्पवनौ (बृहस्पतिम्) बृहतां पालनहेतुं सूर्य्यप्रकाशम्। तद्बृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च। (अष्टा०६.१.१५७) अनेन वार्तिकेन बृहस्पतिः सिद्धः। पातेर्डतिः। (उणा०४.५८) अनेन पतिशब्दश्च (मित्रा) मित्रं प्राणम्। अत्र सुपां सुलुग्० इत्यमः स्थान आकारादेशः। (अग्निम्) भौतिकम् (पूषणम्) पुष्ट्यौषध्यादिसमूहप्रापकं चन्द्रलोकम्। पूषेति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेन पुष्टिप्राप्त्यर्थश्चन्द्रो गृह्यते। (भगम्) भजते सुखानि येन तच्चक्रवर्त्यादिराज्यधनम्। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) अत्र 'भज'धातोः पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। (अष्टा०३.३.११८) अनेन घः प्रत्ययः। भगो भजतेः। (निरु०१.७) (आदित्यान्) द्वादशमासान् (मारुतम्) मरुतामिमम् (गणम्) वायुसमूहम्॥३॥
    विषयः- अथ विश्वेषां देवानां मध्यात्काँश्चिदुपदिशति।

    अन्वयः- हे कण्वा ! भवन्तः क्रियानन्दसिद्धय इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्रमग्निं पूषणं भगमादित्यान्मारुतं गणमहूषत स्पर्धध्वं गृणीत॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् 'कण्वा अहूषत गृणन्ति' इति पदत्रयमनुवर्तते।ये मनुष्या एतानिन्द्रादिपदार्थानीश्वररचितान् विदितगुणान् कृत्वा क्रियासु सम्प्रयुज्यन्ते, ते सुखिनो भूत्वा सर्वान् प्राणिनो मृडयन्ति॥३॥

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    विषय

    देवालय

    पदार्थ

     १. पिछले मन्त्र में कहा था कि देवों के साथ (आगहि) - हमें प्राप्त होइए । उन देवों का ही परिगणन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभो  ! आप हमें (इन्द्रवायू) - इन्द्र व वायु को प्राप्त कराइए । आपकी कृपा से हम इन्द्रियों के अधिष्ठाता  , पूर्ण जितेन्द्रिय बन पाएँ । इस जितेन्द्रियता के लिए ही वायु बनें  , [वा गतिगन्धनयोः] गतिशीलता के द्वारा सब वासनाओं का गन्धन वा हिंसन करनेवाले हों । वासना - विनाश के बिना जितेन्द्रियता सम्भव नहीं । वासना - विनाश ही जितेन्द्रियता है । 

    २. (बृहस्पतिम्) - आप हमें बृहस्पति को प्राप्त कराइए  , अर्थात् आपका अनुग्रह हमें जितेन्द्रियता व क्रियाशीलता से ऊँचे - से - ऊँचा ज्ञानी बनने का सामर्थ्य दें । 

    ३. (मित्राग्निम्) - अब हम मित्र व अग्नि को प्राप्त करें । यह ज्ञान हमें सबके साथ एकत्व का दर्शन कराता हुआ स्नेह करनेवाला [मित्र] बनाये और इस प्रकार उन्नति पर आगे बढानेवाला हो [अग्नि] । 

    ४. इस जीवन - यात्रा में आगे बढ़नेवाले हमें आप (पूषणं भगम्) - पूषा व भग को प्राप्त कराइए । हम उचितरूप से अपना पोषण करनेवाले हों । हम शरीर  , मन व बुद्धि का ठीक विकास करनेवाले हों उसके लिए आवश्यक (भगम्) - ऐश्वर्य को उचित मात्रा में संगृहीत कर सकें । 

    ५. (आदित्यान्) - आप हमें आदित्यों को प्राप्त कराइए । ये आदित्य [आदानात्] उचित वस्तुओं का आदान करते हुए आगे बढ़ते चलते हैं । हम भी समाज में जिस - जिसके भी सम्पर्क में आयें उस उससे अच्छाइयों को ही ग्रहण करनेवाले हों । बुराई को न देखते हुए हम आगे बढ़ते चलें । 

    ६. (मारुतं गणम्) - हम प्राणों के गण को प्राप्त करें । शरीर में भिन्न - भिन्न कर्मों को करनेवाला यह ४९ मरुतों - प्राणों का समूह हमारे इस शरीर गृह को पूर्णरूप से स्वस्थ रखे । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे जीवन में 'इन्द्र  , वायु  , बृहस्पति  , मित्र  , अग्नि  , पूषा  , भग व मरुद्गण' का निवास हो । 

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    विषय

    पक्षान्तर में आत्मा का वर्णन

    भावार्थ

    ( कण्वाः ) विद्वान् पुरुष ( इन्द्र-वायू ) विद्युत् और वायु, ( बृहस्पतिम् ) बड़े २ लोकों के पालक, सूर्य, ( मित्रा ) मित्र, प्राण, ( अग्निम् ) भौतिक अग्नि, (पूषणम् ) सबके पोषक अन्नप्रद पृथिवी, अन्न और ओषधिवर्धक चन्द्र, ( भगम् ) सुख से सेवन करने योग्य ऐश्वर्य और ( आदित्यान् ) सूर्य और पृथिवी की गति से उत्पन्न १२ मासों और ( मारुतम् गणम् ) वायुओं के समूह इन सब का भी ( गृणन्ति ) उपदेश करें और उनको प्रयोग करें । अध्यात्म में—इन्द्र आत्मा । वायु = प्राण । बृहस्पति = परमेश्वर । मित्र = नासिकागत प्राण । अग्नि = जाठर । पूषा-अपान । भग = अष्टविध ऐश्वर्य । आदित्य = १२ प्राण, मारुत गण = प्राणादि वायुगण । इसी प्रकार राष्ट्र में इन्द्र-राजा । वायु-सेनापति । बृहस्पति-पुरोहित । मित्र-राजा । अग्नि-आयुधः । पूषा-पृथिवी और अन्न । भग-राज्य समृद्धि । आदित्य-वैश्यगण या विद्वान् गण, मारुत गण, सैनिक समूह वा प्रजाजन । इनको आदर पूर्वक बुलावें और इनके कर्त्तव्यों का उपदेश करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘कण्वो’ ‘अहूषत’ व ‘गृणन्ति’ या तीन पदांची अनुवृत्ती होते. जी माणसे ईश्वराने निर्माण केलेल्या वरील इन्द्र (विद्युत) इत्यादी पदार्थ व त्यांच्या गुणांना जाणून क्रियेमध्ये संयुक्त करतात ते स्वतः सुखी होऊन सर्व प्राण्यांना सदैव सुखी करतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Scholars of science and men of wisdom, study and celebrate the nature and powers of Indra, universal energy, Vayu, air, Brhaspati, nourishing and protective light of the sun, Mitra, pranic energy, Agni, heat and light, Pushan, moonlight, Bhaga, socio-economic power and prosperity, Adityas, zodiacs of the sun vis-a-vis the earth and other planets, and Maruts, the currents of wind.

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    Subject of the mantra

    Now in this mantra, out of all deities many have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(kaṇvāḥ)=brilliant scholar, (bhavantaḥ)=You all, (kriyā) =deeds, (ānanda)=bliss, (siddhaye)=for accomplishment, (indravāyū)=electricity and air, (bṛhaspatim)=The sun nourishing great substances, (mitram)=breath like friend, (agnim)=physical fire, (pūṣaṇam)=Moon-sphere which nourishes groups of herbs, (bhagam)=Wealth et cetera of Chakravatee kingdom which gets obtained happiness, (ādityān)=twelve months of vedic calendar, (māraphatam)=to group of airs, (gaṇam)=of group, (ahūṣata)=invoke, (gṛṇīta)=worship.

    English Translation (K.K.V.)

    O brilliant scholar! for the attainment of pleasure in all activities, the wind of electricity, the Sun that sustains big things, the physical fire as the friend of life, the moon that nourishes the group of herbal medicines and the Chakravarti kingdom that brings happiness, etc. And during twelve months they invoke the group of winds and worship them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, from the previous mantra, kaṇvāḥ ahūṣata and gṛṇanti three terms are being followed in this mantra as well. Those people who, knowing the above Indra etc. created by God and knowing theirvirtues, combine them in actions, they, being happy, make all living beings always happy.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The Chakravarti state has been explained in the Rigveda mantra No. 01.04.07.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men, you should praise or describe the properties of the electricity and air, the sun light, Prana or vital energy, . fire, moon, wealth of good empire etc., twelve months of the year and monsoon winds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्रवायू) इन्द्रश्च वायुश्च विद्युत्पवनौ = Electricity and air. (बृहस्पतिम्) पालन हेतु सूर्यप्रकाशम् करपत्योश्चोरदेवतयोः सुद् तलोपश्च (अष्टा० ६.१.१५७ ) अनेन वार्तिकेन बृहस्पतिः सिद्ध: (पातेर्डति:) उणा० ४.५८ अनेन पतिशब्दश्च = The light of the sun मित्रम् (प्राणम्) ==Vital energy (पूषणम् )पुष्टौषध्यादिसमूहप्रापकं चन्द्रलोकम् पुषेतिपदनामसु पठितम् (निघ० ५.६ ) अनेन पुष्टि प्राप्त्यर्थश्चन्द्रो गृह्यते । = Moon (आदित्यान् ) द्वादश मासान् = Twelve months of the year (मारुतं गणम् ) वायु समूहम् = Winds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who knowing the attributes of these objects like electricity, air, sun, moon etc. created by God, utilize them properly in their acts, enjoy happiness themselves and make other also happy.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted इन्द्र (Indra) here as विद्युत् i. e. Electricity for which there is the authority of यत् अशनिरिन्द्रस्तेन । कौषीतकी ब्राह्मणे ६.३ Lightning or electricity. स्तनयित्नुरेवेन्द्रः ॥ (शतपथ ब्रा० १७.३.६.९ ) यच्चक्षुः स बृहस्पतिः ।। ( गोपथ ३.४.११ ) सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुःर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः ॥ (कठोपनिषदि ३.१.११) इति प्रामाण्यात् बृहस्पतिपदेन सूर्यग्रहणम् || Sun is the eye of the Universe. So according to the Gopath Brahman, the sun may be called Brihaspati. Rishi Dayananda has given the derivative meaning as बृहतां (लोकानां वस्तूनां वां ) पाल्न हेतु सूर्यप्रकाशम् । = The protector or supporter of vast worlds or articles-sun (मित्र:) प्राणो मित्रम् (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३.३.६) प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ (शतपथ १.८.३.१२ ) (शत० ३.२.२.१३ ) So the meaning of the word f given by Rishi Dayananda as Prana or vital energy is authentic and not arbitrary. प्राणो वै मित्रः ॥ (शतं० ८.४.२.६ ) Rishi Dayananda has taken मारुतं गणम् as winds for which there is the authority of the Vedic Lexicon-Nighantu मरुत इति पदनामसु पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Taking the two meanings of गमन movement and Prapti गमनागमन क्रिया प्रापका वायव: the means of going and coming, airs or winds.

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