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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    विश्वे॑भिः सो॒म्यं मध्वग्न॒ इन्द्रे॑ण वा॒युना॑। पिबा॑ मि॒त्रस्य॒ धाम॑भिः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑भिः । सो॒म्यम् । मधु॑ । अग्ने॑ । इन्द्रे॑ण । वा॒युना॑ । पिब॑ । मि॒त्रस्य॑ । धाम॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना। पिबा मित्रस्य धामभिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वेभिः। सोम्यम्। मधु। अग्ने। इन्द्रेण। वायुना। पिब। मित्रस्य। धामऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केन सहैतत् क्रियाहेतुर्भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अयमग्निरिन्द्रेण वायुना सह मित्रस्य विश्वेभिर्धामभिः सोम्यं मधु पिबति॥१०॥

    पदार्थः

    (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसि इत्यैसभावः। (सोम्यम्) सोमसम्पादनार्हम्। सोममर्हति यः। (अष्टा०४.४.१३८) इति यः प्रत्ययः (मधु) मधुरादिगुणयुक्तम् (अग्ने) अग्निः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षः (इन्द्रेण) परमैश्वर्य्यहेतुना (वायुना) स्पर्शवता गतिमता पवनेन सह (पिब) पिबति गृह्णाति। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (मित्रस्य) सर्वगतस्य सर्वप्राणभूतस्य (धामभिः) स्थानैः॥१०॥

    भावार्थः

    अयं विद्युदाख्योऽग्निर्ब्रह्माण्डस्थेन वायुना शरीरस्थैः प्राणैः सह वर्त्तमानः सन् सर्वेषां पदार्थानां सकाशाद् रसं गृहीत्वोद्गिरति, तस्मादयं मुख्यं शिल्पसाधनमस्तीति॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    किसके साथ में यह विद्युत् अग्नि क्रियाओं की सिद्धि करानेवाला होता है, सो अगले मन्त्र में कहा है-

    पदार्थ

    (अग्ने) यह अग्नि (इन्द्रेण) परम ऐश्वर्य करानेवाले (वायुना) स्पर्श वा गमन करनेहारे पवन के और (मित्रस्य) सब में रहने तथा सब के प्राणरूप होकर वर्त्तनेवाले वायु के साथ (विश्वेभिः) सब (धामभिः) स्थानों से (सोम्यम्) सोमसम्पादन के योग्य (मधु) मधुर आदि गुणयुक्त पदार्थ को (पिब) ग्रहण करता है॥१०॥

    भावार्थ

    यह विद्युद्रूप अग्नि ब्रह्माण्ड में रहनेवाले पवन तथा शरीर में रहनेवाले प्राणों के साथ वर्त्तमान होकर सब पदार्थों से रस को ग्रहण करके उगलता है, इससे यह मुख्य शिल्पविद्या का साधन है॥१०॥

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    विषय

    दिव्यता का निधान 'सोम'

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - प्रगतिशील जीव  ! तू (विश्वेभिः) - सब दिव्यगुणों के हेतु से (इन्द्रेण) - इन्द्रियों के अधिष्ठातृत्व के दृष्टिकोण से (वायुना) - गतिशीलता के द्वारा सब बुराइयों के संहार के दृष्टिकोण से तथा (मित्रस्य धामभिः) - सूर्य के तेजों के दृष्टिकोण से (सोम्यं मधु) - इस सोमसम्बन्धी मधु का (पिब) - पान कर ।
    २. यदि हमें दिव्यगुणों को अपने में विकसित करना है  , यदि सब असुरों का संहार करनेवाला इन्द्र बनना है  , यदि क्रियाशील जीवन बनाकर हमें बुराइयों का संहार करना है और यदि हमें सूर्य के समान तेजस्वी बनना है तो इस सबके लिए उपाय एक ही है कि शरीर में उत्पन्न हुई - हुई सोमशक्ति का पान करें । इस बात को भूलें नहीं कि सब अच्छाइयाँ व दिव्यताएँ इस सोम में ही निहित हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सोम का पान करें । सोम को ही सब दिव्यताओं का निधान समझें । 

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    विषय

    किसके साथ में यह विद्युत् अग्नि क्रियाओं की सिद्धि करानेवाला होता है, सो इस मन्त्र में कहा है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अयम् अग्निः इन्द्रेण वायुना सह मित्रस्य विश्वेभिः धामभिः सोम्यं मधु पिबति॥१०॥

    पदार्थ

    (अयम्)=यह, (अग्निः) अग्नि, (इन्द्रेण) परमैश्वर्यहेतुना=परम ऐश्वर्य करानेवाले, (वायुना) स्पर्शवता गतिमता पवनेन सह=स्पर्श या गमन करनेहारे पवन के साथ, (मित्रस्य) सर्वगतस्य सर्वप्राणभूतस्य=सबमें रहने और सब के प्राणरूप होकर, (विश्वेभिः) सर्वैः=सब, (धामभिः) स्थानैः=स्थानों से, (मधु) मधुरादिगुणयुक्तम्=मधु आदि गुणयुक्त पदार्थ को, (पिबति)=ग्रहण करता है॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यह विद्युत् रूपी अग्नि ब्रह्माण्ड में रहनेवाले पवन तथा शरीर में रहनेवाले प्राणों के साथ वर्त्तमान होकर सब पदार्थों से रस को ग्रहण करके उगलता है। इससे यह मुख्य शिल्पविद्या का साधन है॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि (इन्द्रेण) परम ऐश्वर्य करानेवाले (वायुना) स्पर्श या गमन करनेहारे पवन के साथ (मित्रस्य) सबमें रहने और सब के प्राणरूप होकर (विश्वेभिः) सब (धामभिः) स्थानों से (मधु) मधु आदि गुणयुक्त पदार्थ को (पिबति) ग्रहण करता है॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसि इत्यैसभावः। (सोम्यम्) सोमसम्पादनार्हम्। सोममर्हति यः। (अष्टा०४.४.१३८) इति यः प्रत्ययः (मधु) मधुरादिगुणयुक्तम् (अग्ने) अग्निः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षः (इन्द्रेण) परमैश्वर्य्यहेतुना (वायुना) स्पर्शवता गतिमता पवनेन सह (पिब) पिबति गृह्णाति। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट् द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (मित्रस्य) सर्वगतस्य सर्वप्राणभूतस्य (धामभिः) स्थानैः॥१०॥
    विषयः- केन सहैतत् क्रियाहेतुर्भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- अयमग्निरिन्द्रेण वायुना सह मित्रस्य विश्वेभिर्धामभिः सोम्यं मधु पिबति॥१०॥

    महर्षिकृत (भावार्थ)- अयं विद्युदाख्योऽग्निर्ब्रह्माण्डस्थेन वायुना शरीरस्थैः प्राणैः सह वर्त्तमानः सन् सर्वेषां पदार्थानां सकाशाद् रसं गृहीत्वोद्गिरति, तस्मादयं मुख्यं शिल्पसाधनमस्तीति॥१०॥

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    विषय

    सुख प्राप्ति, पक्षान्तर में राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! जीव ! जिस प्रकार अग्नि ( इन्द्रेण वायुना ) ऐश्वर्य और तेज की वृद्धि करने वाले गतिशील वायु से और ( मित्रस्य धामभिः ) प्राण के धारण सामर्थ्य या जल के बलों से ( सोम्यं मधु पिबति ) प्रेरक बल को उत्पन्न करने वाले ( मधु ) द्रव पदार्थ को अपने भीतर ग्रहण करता है उसी प्रकार तू ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्य के उत्पादक ( वायुना ) वायु से और ( मित्रस्य धामभिः ) सूर्य के प्रकाशों के समान प्राण के धारण सामर्थ्यो से ( सोम्यम् मधु ) वीर्य के उत्पन्न करने वाले मधुर अन्न और ब्रह्मानन्द रस के जनक ( मधु ) मधुर ब्रह्मज्ञान का (पिब) पान कर, उसको ग्रहण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः । विश्वे देवा देवताः । गायत्री द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हा विद्युतरूपी अग्नी ब्रह्मांडात राहणाऱ्या पवन व शरीरात राहणारा प्राण यांच्याबरोबर विद्यमान असतो. सर्व पदार्थांपासून रसग्रहण करून परत देतो. यामुळे तो मुख्य शिल्पविद्येचे साधन आहे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The Holy fire of yajna along with the wind and currents of energy collects the soothing sweets of vitality from all the quarters of universal prana and the light of the sun for the benefit of humanity.

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    Subject of the mantra

    With whom, this electricity is capable of accomplishing fire actions, has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ayam)=this, (agniḥ)=physical fire, ( indreṇa)=providing extreme majesty, (vāyunā) =with air providing touch or motion, (mitrasya)=living and being life like in all, (viśvebhiḥ)=from all, (dhāmabhiḥ)=in all places, (madhu)=honey et cetera quality materials, (pibati)=takes.

    English Translation (K.K.V.)

    This physical fire, with the touch or moving wind of the supreme opulence, being present in all and being and is the life form of all, it receives the quality substances like honey from all the places.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    This physical fire in the form of electricity, being present with the wind stationed in the universe and the prana living in the body, after consuming the juice from all the substances, spews. From this, it is the means of main craftsmanship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    With what is all this accomplished is taught in the tenth Mantra—

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    This Agni (whether visible or invisible) with air when properly used is the cause of much prosperity and with all the places or splendors of the Prana takes sweet juice which gives peace.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This Agni in the form of electricity which is present with the air pervading the universe and with the Pranas in the body, takes sap from all articles and gives it back in the form of rain. For this reason, it is the principal means of technology, art and craft.

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