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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - स्वाहाकृत्यः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स्वाहा॑ य॒ज्ञं कृ॑णोत॒नेन्द्रा॑य॒ यज्व॑नो गृ॒हे। तत्र॑ दे॒वाँ उप॑ ह्वये॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑ । य॒ज्ञम् । कृ॒णो॒त॒न॒ । इन्द्रा॑य । यज्व॑नः । गृ॒हे । तत्र॑ । दे॒वान् । उप॑ । ह्व॒ये॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनो गृहे। तत्र देवाँ उप ह्वये॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। यज्ञम्। कृणोतन। इन्द्राय। यज्वनः। गृहे। तत्र। देवान्। उप। ह्वये॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    एतं क्रियाकाण्डं मनुष्याः कथं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे शिल्पकारिण ऋत्विजो ! यथा यूयं यत्र यज्वनो गृह इन्द्राय देवानाहूय स्वाहा यज्ञं कृणोतन तथा तत्राऽहं तानुपह्वये॥१२॥

    पदार्थः

    (स्वाहा) या सत्क्रियासमूहास्ति तया (यज्ञम्) त्रिविधम् (कृणोतन) कुरुत। अत्र तकारस्थाने तनबादेशः। (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यकरणाय (यज्वनः) यज्ञाऽनुष्ठातुः। अत्र सुयजोर्ङ्वनिप्। (अष्टा०३.२.१०३) अनेन ‘यज’ धातोर्ङ्वनिप् प्रत्ययः। (गृहे) निवासस्थाने यज्ञशालायां कलाकौशलसिद्धविमानादियानसमूहे वा (तत्र) तेषु कर्मसु (देवान्) परमविदुषः (उप) निकटार्थे (ह्वये) आह्वये॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या विद्याक्रियावन्तो भूत्वा सम्यग्विचारेण क्रियासमूहजन्यं कर्मकाण्डं गृहे गृहे नित्यं कुर्वन्तस्तत्र च विदुषामाह्वानं कृत्वा स्वयं वा तत्समीपं गत्वा तद्विद्याक्रियाकौशले स्वीकुर्वन्तु। नैव कदाचिद्युष्माभिरालस्येनैते उपेक्षणीये इति परमेश्वर उपदिशति॥१२॥अस्य त्रयोदशसूक्तार्थस्याग्न्यादिदिव्यपदार्थोपकारग्रहणार्थोक्तरीत्या द्वादशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    इस क्रियाकाण्ड को मनुष्य लोग किस प्रकार से करें, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे शिल्पविद्या के सिद्ध यज्ञ करने और करानेवाले विद्वानो ! तुम लोग जैसे जहाँ (यज्वनः) यज्ञकर्त्ता के (गृहे) घर यज्ञशाला कलाकुशलता से सिद्ध किये हुए विमान आदि यानों में (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये परम विद्वानों को बुलाके (स्वाहा) उत्तम क्रियासमूह के साथ (यज्ञम्) जिस तीनों प्रकार के यज्ञ को (कृणोतन) सिद्ध करनेवाले हो, वैसे वहाँ मैं (देवान्) उन उक्त चतुर श्रेष्ठ विद्वानों को (उपह्वये) प्रार्थना के साथ बुलाता रहूँ॥१२॥

    भावार्थ

    मनुष्य लोग विद्या तथा क्रियावान् होकर यथायोग्य बने हुए स्थानों में उत्तम विचार से क्रियासमूह से सिद्ध होनेवाले कर्मकाण्ड को नित्य करते हुए और वहाँ विद्वानों को बुलाकर वा आप ही उनके समीप जाकर उनकी विद्या और क्रिया की चतुराई को ग्रहण करें। हे सज्जन लोगो ! तुमको विद्या और क्रिया की कुशलता आलस्य से कभी नहीं छोड़नी चाहिये, क्योंकि ऐसी ही ईश्वर की आज्ञा सब मनुष्यों के लिये है॥१२॥इस तेरहवें सूक्त के अर्थ की अग्नि आदि दिव्य पदार्थों के उपकार लेने के विधान से बारहवें सूक्त के अभिप्राय के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि साहबों ने विपरीत ही वर्णन किया है॥

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    विषय

    इस क्रियाकाण्ड को मनुष्य लोग किस प्रकार से करें, सो उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे शिल्पकारिण ऋत्विजः ! यथा यूयं यत्र यज्वनः गृह इन्द्राय देवान् आहूय स्वाहा यज्ञं कृणोतन तथा तत्र अहं तान् उपह्वये॥१२॥

    पदार्थ

    हे (शिल्पकारिणः)=शिल्पकार, (ऋत्विजः)=ऋत्विज, (अहं जैसे, (यूयम्)=तुम सब, (यत्र)=यहाँ, (यज्वनः) यज्ञाऽनुष्ठातुः=यज्ञ में ठहरे, (गृहे)=घर में, (इन्द्राय) परमैश्वाकरणाय=परमेश्वर के करने के लिये, (देवान) परमविदुषः=परम विद्वान्, (आहूय)=बुलाकर, (स्वाहा) या सत्क्रियासमूहास्ति तया=सत्क्रियाओं के समूह के लिये, (यज्ञम्)=यज्ञ को, (कृणोतन) कुरुत=करता है, (तथा)=वैसे ही, (तत्र)=वहाँ, (अहम्)=मैं, (तान्)=उनको, (उप)=निकटार्थे= समीप, (ह्वये) आह्वये=प्रार्थना के साथ बुलाता हूँ॥१२॥  
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्य लोग विद्या तथा क्रियावान् होकर यथायोग्य बने हुए स्थानों में उत्तम विचार से क्रियासमूह से सिद्ध होनेवाले कर्मकाण्ड को नित्य करते हुए वहाँ विद्वानों को बुलाकर या स्वयं ही उनके समीप जाकर उनकी विद्या और क्रिया की चतुराई को स्वीकार करें। तुम सबको  इन  (विद्या और क्रिया की कुशलता ) आलस्य से कभी नहीं उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ऐसा ही ईश्वर का उपदेश है॥१२॥

    विशेष

    सूक्त के सम्बन्ध में महर्षिकृत टिप्पणी इस प्रकार है- इस तेरहवें सूक्त के अर्थ की अग्नि आदि दिव्य पदार्थों के उपकार लेने के विधान से बारहवें सूक्त के अभिप्राय के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि साहबों ने विपरीत ही वर्णन किया है॥
    अनुवादक की टिप्पणी- ऋत्विज शब्द की व्याख्या मन्त्र संख्या (ऋग्वेद ०१. १२. ०३) में की गयी है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (शिल्पकारिणः) शिल्पकार (ऋत्विजः) ऋत्विज! (यथा) जैसे (यूयम्) तुम सब (यत्र) यहाँ (यज्वनः) यज्ञ में ठहरते हो, हम  (गृहे) घर में (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये यज्ञ करने हेतु (देवान) परम विद्वान् को (आहूय) बुलाकर (स्वाहा) सत्कृयाओं के समूह के लिये (यज्ञम्) यज्ञ (कृणोतन) करते हैं, (तथा) वैसे ही (तत्र) वहाँ (अहम्) मैं (तान्) उनको (उप+ ह्वये) प्रार्थना के साथ समीप  बुलाता हूँ॥१२॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (स्वाहा) या सत्क्रियासमूहास्ति तया (यज्ञम्) त्रिविधम् (कृणोतन) कुरुत। अत्र तकारस्थाने तनबादेशः। (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यकरणाय (यज्वनः) यज्ञाऽनुष्ठातुः। अत्र सुयजोर्ङ्वनिप्। (अष्टा०३.२.१०३) अनेन 'यज' धातोर्ङ्वनिप् प्रत्ययः। (गृहे) निवासस्थाने यज्ञशालायां कलाकौशलसिद्धविमानादियानसमूहे वा (तत्र) तेषु कर्मसु (देवान्) परमविदुषः (उप) निकटार्थे (ह्वये) आह्वये॥१२॥
    विषयः- एतं क्रियाकाण्डं मनुष्याः कथं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे शिल्पकारिण ऋत्विजो ! यथा यूयं यत्र यज्वनो गृह इन्द्राय देवानाहूय स्वाहा यज्ञं कृणोतन तथा तत्राऽहं तानुपह्वये॥१२॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या विद्याक्रियावन्तो भूत्वा सम्यग्विचारेण क्रियासमूहजन्यं कर्मकाण्डं गृहे गृहे नित्यं कुर्वन्तस्तत्र च विदुषामाह्वानं कृत्वा स्वयं वा तत्समीपं गत्वा तद्विद्याक्रियाकौशले स्वीकुर्वन्तु। नैव कदाचिद्युष्माभिरालस्येनैते उपेक्षणीये इति परमेश्वर उपदिशति॥१२॥
    सूक्तस्य महर्षिकृत टिप्पणी-
    अस्य त्रयोदशसूक्तार्थस्याग्न्यादिदिव्यपदार्थोपकारग्रहणार्थोक्तरीत्या द्वादशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥

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    विषय

    यज्वा का घर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में प्रार्थना थी कि हे प्रभो  ! आप हमारे जीवनों में 'हविः' की सृष्टि कीजिए । इसी हवि के सर्जन के लिए प्रभु कहते हैं कि - स्वाहा यज्ञम् - [स्व+हा] स्वार्थत्यागरूप यज्ञ को (कृणोतन) - करनेवाले बनो । (इन्द्राय) - उस परमैश्वर्यवाले प्रभु को पाने के लिए तुम (यज्वनः) - विधिपूर्वक यज्ञ करनेवाले के (गृहे) - घर में यज्ञों के करनेवाले होओ । शास्त्र - विधान के अनुसार यज्ञ करनेवाला व्यक्ति 'यज्वा' कहलाता है । यज्वा अपने घर में स्वार्थत्यागरूप यज्ञों को सदा करनेवाला बनता है । इन यज्ञों से ही तो वह यज्ञरूप प्रभु की उपासना करता है - 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः'  , इस उपासना से वह उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को पाने का अधिकारी बनता है । 

    २. प्रभु कहते हैं कि (तत्र) - वहाँ इस यज्ञशील के घर में (देवान्) - सब देवों को  , मैं (उपह्वये) - पुकारता हूँ  , अर्थात् इस यज्ञशील के घर में दिव्यगुणों का वास होता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्य यज्ञशील बने । यज्ञशील पुरुष के घर में ही दिव्यगुणों का वास होता है । उसी को प्रभु प्राप्त होते हैं । यज्ञों से ही तो यज्ञरूप प्रभु आराधित होते हैं । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि जब प्रभु की ज्योति जगती है तब दिव्यगुण आते हैं [१] । प्रभु से जीव का मेल ही 'मधुमान्' यज्ञ है [२] । देवों का आगमन स्वस्थ शरीर में ही होता है [३] । निर्मल हृदय में अमृत प्रभु का दर्शन होता है [४]  , अतः हम दिन - रात अपने जीवन का सुन्दर निर्माण करें [६] । प्राणसाधना द्वारा प्रभु से मेल के लिए यत्नशील हों [७] । हमारे जीवनों में मधुरवाणी  , विद्या की आराधना व प्रभु की पूजा की भावना हो [८] । प्रभु का ही हम वरण करें [९] । त्यागशील बनकर चैतन्य को स्थिर रक्खें [१०] और यज्ञशील बनकर दिव्यगुणोंवाले हों [१२] । 

    अब अगले सूक्त में इन्हीं शब्दों से प्रारम्भ करते हैं कि प्रभु से हमारा मेल हो और हमें दिव्य गुणों की प्राप्ति हो -

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    विषय

    यज्ञ ।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग (स्वाहा) उत्तम आहुति द्वारा ( यज्ञं ) यज्ञ को ( यज्वनः ) दानशील धार्मिक पुरुष के ( गृहे ) घर में ( इन्द्राय ) उत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ति, वायु शुद्धि और ईश्वरोपासना के लिए ( कृणोतन ) करें । ( तत्र ) उस यज्ञ में मैं ( देवान् ) विद्वान् पुरुषों को ( उप ह्वये ) आदरपूर्वक बुलाऊँ । अध्यात्म में—आत्मा के ज्ञान के लिए सत्संग करने वाले समाहित पुरुष के देह में ( सु आहा ) उत्तम वाणी से ( यज्ञं कृणोतन ) आत्मा की उपासना करो । और उसमें ( देवान् ) प्राणगणों को या दिव्य गुणों को अपने वश करता हूं ।

    टिप्पणी

    १-४ मन्त्रों में विद्वानों के आह्वाता होता का वर्णन है । ५ वें में यज्ञ में आसन कुशाच्छादन है । ६ ठे में यज्ञशाला के द्वार, ७ में नक्त और उषा, ८ वें में दो दैव्य होता, ९ में ३ देविये १० में त्वष्टा ११ वें में वनस्पति, और १२ वें में स्वाहा का वर्णन है। अध्यात्म में क्रम से मन, देह, उसके प्राण द्वार, जागृत, स्वप्नदशा प्राण, अपान, दो होता, इडा पिङ्गला, सुषुम्ना तीन नाड़ियें, त्वष्टा परमेश्वर, वनस्पति आत्मा और उनकी परस्पर आहुति यह अध्यात्म यज्ञ का वर्णन है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्या व क्रिया यांनी युक्त होऊन यथायोग्य बनलेल्या यज्ञस्थळी उत्तम विचाराने, क्रियासमूहाद्वारे, प्रत्येक घरी नित्य कर्मकांड करीत जावे व तेथे विद्वानांना आमंत्रित करून स्वतः त्यांच्याजवळ जाऊन, त्यांची विद्या व क्रियाकौशल्य स्वीकारावे. कधी आळसाने सोडू नये किंवा उपेक्षा करू नये. कारण सर्व माणसांसाठी ईश्वराची अशी आज्ञा आहे.

    टिप्पणी

    या सूक्ताचे सायणाचार्य इत्यादी व युरोपियन विल्सन इत्यादी साहेबांनी विपरीत वर्णन केलेले आहे.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    In the house of the devotee of yajna where the scholars and artists perform yajna and offer libations of creation in truth of word and deed with the divine voice, I invoke and invite brilliant and dedicated scholars for the performance and the extension of power and glory for Indra on earth.

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    Subject of the mantra

    How should men perform this ritual, such preaching has been done in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śilpakāriṇaḥ)= having manual skills, (ṛtvijaḥ)=Ṝitvija, (yathā)=as, (yūyam)=you all, (yatra)=here, (yajvanaḥ)=stays at yajna, (gṛhe)=in home, (indrāya)=for God to do, (devāna)=absolute scholar, (āhūya)=inviting, (svāhā)=for set of good deeds, (yajñam)=to Yajna, (kṛṇotana)=does, (tathā)=in the same way, (tatra)=there, (aham)=I, (tān)=to them, (upa+ hvaye) =call closely with the prayer.

    English Translation (K.K.V.)

    O having manual skills Ṝitvija! As you all stay here for Yajan. We invite absolute scholar for Yajan of God, for set of good deeds, to perfom Yajan. In the same way, I call them there with a prayer closely.

    Footnote

    Maharishi’s comment regarding the hymn is as follows- The meaning of this thirteenth hymn should be known in association with the meaning of the twelfth hymn with the rule of taking favour of divine objects like fire. Sayanacharya etc. and European countrymen Wilson etc. have explained this hymn, in the opposite way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Human beings should accept the cleverness of their learning and action by calling scholars there or going near them themselves, while performing rituals that have been proved from the set of actions with good thoughts daily. All of you should never neglect these (the skill of learning and action) by laziness, because such is the preaching of God.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The word ‘ṛtvija’ has been explained in the mantra number (Rigveda 01/12/03).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men do this practical work (in the form of Yajna etc. is taught in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Artists and priests as you who perform the Yajna (of three kinds) in the cofferer's house or the sacrificial hall for the sake of prosperity by inviting great scholars with noble acts, so do I invite such enlightened persons respectfully and perform the Yajna.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गृहे) निवासस्थाने यज्ञशालायाम् कलाकौशलसिद्धविमानादिसमूहे वा (स्वाहा ) या सक्रिया समूहास्ति तया ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should acquire knowledge, do good deeds and should perform Yajnas etc. in every house thoughtfully. They should invite scholars to learn knowledge and art sitting at their feet. You should never neglect them on account of laziness. This is the commandment or injunction of God. In this thirteenth hymn, the way of utilizing fire and other divine objects is mentioned, so it has connection with the previous hymn. This hymn has also been wrongly interpreted by Sayanacharya, Wilson and others.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda explains Yajnam (यज्ञम् ) as त्रिविधं यज्ञम् consisting of देवपूजा, संगतिकरण दानेषु worship of God and respect to enlightened persons, association and charity. Sayanacharya takes naraashansa Tanoonapat. Swashta Gla, Sarasvati, Mahee, etc. as the names of some Gods and Goddesses which is against the spirit of the Vedic teaching of monotheism. Wilson and Griffith have also committed the same mistake. For instance. Wilson translating the first Mantra says Agni, bring hither the Gods. In the translation of the 8th Mantra he says t invoker of the gods. In the translation of the ninth Mantra he says-- "May the three undecaying Goddesses, givers of delight, Ila, Saraswati and Mahi. "Griffith's translation is still worse and more objectionable. While wilson puts "gods" in small letters, Griffith has put it in Capital as in the first Mantra "Agni well-kindled, bring the Gods for him etc. In the 2nd Mantra "O Sage, present our sacrifice to the Gods. In the Translation of the fourth mantra, he writes-- "Agni, on thy most easy car, glorified bring the Gods." In the translation of the 9th, Mantra he writes-- "lla, Sarasvati Mahi, three Goddesses who bring delight, Be seated peaceful, on the grass." It is very unfortunate, that these translators could not grass the spirit of the Vedic Mantras and misled the public. Rishi Dayananda therefore was right in criticizing them.

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