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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - देवीर्द्वार: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    विश्र॑यन्तामृता॒वृधो॒ द्वारो॑ दे॒वीर॑स॒श्चतः॑। अ॒द्या नू॒नं च॒ यष्ट॑वे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । श्र॒य॒न्ता॒म् । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । द्वारः॑ । दे॒वीः । अ॒स॒श्चतः॑ । अ॒द्य । नू॒नम् । च॒ । यष्ट॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः। अद्या नूनं च यष्टवे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। श्रयन्ताम्। ऋतऽवृधः। द्वारः। देवीः। असश्चतः। अद्य। नूनम्। च। यष्टवे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ गृहं यज्ञशाला यानानि चानेकद्वाराणि रचनीयानीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनीषिणोऽद्य यष्टवे गृहादेरसश्चत ऋतावृधो देवीर्द्वारो नूनं विश्रयन्ताम्॥६॥

    पदार्थः

    (वि) विविधार्थे (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं सुखं जलं वा वर्धयन्ति ताः। अत्र अन्येषामपि० इति दीर्घः। (द्वारः) द्वाराणि (देवीः) द्योतमानाः। अत्र वा च्छन्दसि इति जसः पूर्वसवर्णत्वम्। (असश्चतः) विभागं प्राप्ताः। अत्र सस्ज गतौ इत्यस्य व्यत्ययेन जकारस्य चकारः। (अद्य) अस्मिन्नहनि। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (नूनम्) निश्चये (च) समुच्चये (यष्टवे) यष्टुम्। अत्र ‘यज’ धातोस्तवेन् प्रत्ययः॥६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरनेकद्वाराणि गृहयज्ञशालायानानि रचयित्वा तत्र स्थितिं हवनं गमनागमने च कर्त्तव्ये॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में घर यज्ञशाला और विमान आदि रथ अनेक द्वारों के सहित बनाने चाहियें, इस विषय का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे (मनीषिणः) बुद्धिमान् विद्वानो ! (अद्य) आज (यष्टवे) यज्ञ करने के लिये घर आदि के (असश्चतः) अलग-अलग (ऋतावृधः) सत्य सुख और जल के वृद्धि करनेवाले (देवीः) तथा प्रकाशित (द्वारः) दरवाजों का (नूनम्) निश्चय से (विश्रयन्ताम्) सेवन करो अर्थात् अच्छी रचना से उनको बनाओ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को अनेक प्रकार के द्वारों के घर, यज्ञशाला और विमान आदि यानों को बनाकर उनमें स्थिति होम और देशान्तरों में जाना-आना करना चाहिये॥६॥

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    विषय

    अब इस मन्त्र में घर यज्ञशाला और विमान आदि रथ अनेक द्वारों के सहित बनाने चाहियें, इस विषय का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

     हे मनीषिणः अद्य यष्टवे गृहादेः असश्चत ऋतावृधः देवीः द्वारः नूनं वि श्रयन्ताम्॥६॥

    पदार्थ

    हे (मनीषिणः) बुद्धिमान् विद्वानो, (अद्य) अस्मिन्नहनि=आज ही, (यष्टवे) यष्टुम्= यज्ञ करने के लिये, (गृहादेः)= घर आदि के, (असश्चतः) विभागं प्राप्ताः= अलग-अलग, (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं सुखं जलं वा वर्धयन्ति ताः= सत्य सुख और जल के वृद्धि करनेवाले, (देवीः) द्योतमानाः= प्रकाशित, (द्वारः) द्वाराणि= दरवाजों का, (नूनम्) निश्चये= निश्चय से, (वि) विविधार्थे= विविध प्रकार से, (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम्=सेवन करो ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को अनेक प्रकार के द्वारों के घर, यज्ञशाला और विमान आदि यानों को बनाकर उनमें स्थित  होकर  होम और विभिन्न में भ्रमण करने का कार्य  करना चाहिये॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनीषिणः) बुद्धिमान् विद्वानों! (अद्य) आज  ही (यष्टवे) यज्ञ करने के लिये [और] (गृहादेः) घर आदि के (असश्चतः) अलग-अलग (ऋतावृधः) सत्य, सुख और जल के वृद्धि करने वाले (देवीः) प्रकाशित (द्वारः) दरवाजों का (नूनम्) निश्चय से (वि) विविध प्रकार से (श्रयन्ताम्) सेवन करो ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विविधार्थे (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं सुखं जलं वा वर्धयन्ति ताः। अत्र अन्येषामपि० इति दीर्घः। (द्वारः) द्वाराणि (देवीः) द्योतमानाः। अत्र वा च्छन्दसि इति जसः पूर्वसवर्णत्वम्। (असश्चतः) विभागं प्राप्ताः। अत्र सस्ज गतौ इत्यस्य व्यत्ययेन जकारस्य चकारः। (अद्य) अस्मिन्नहनि। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (नूनम्) निश्चये (च) समुच्चये (यष्टवे) यष्टुम्। अत्र 'यज' धातोस्तवेन् प्रत्ययः॥६॥
    विषयः- अथ गृहं यज्ञशाला यानानि चानेकद्वाराणि रचनीयानीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनीषिणोऽद्य यष्टवे गृहादेरसश्चत ऋतावृधो देवीर्द्वारो नूनं विश्रयन्ताम्॥६॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरनेकद्वाराणि गृहयज्ञशालायानानि रचयित्वा तत्र स्थितिं हवनं गमनागमने च कर्त्तव्ये॥६॥ 

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    विषय

    ऋतावृथ् द्वार

    पदार्थ

    १. इस शरीररूप नगरी में इन्द्रियाँ ही द्वार है - "अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" यह शरीररूप देवनगरी आठ चक्रोंवाली व नौ द्वारोंवाली है । 'पुरमेकादशद्वारम्' यह शरीररूप पुर ११ द्वारोंवाला है - 'दो कान  , दो नासिका - छिद्र  , दो आँखें व मुख' ये सात द्वार हैं  , दो अधोद्वार [पायु व उपस्थ] मिलकर ये ९ हो जाते हैं  , नाभि व ब्रह्मरन्ध्र के मिलने पर इनकी संख्या ११ हो जाती है । ये (द्वारः) - इन्द्रिय - द्वार (विश्रयन्ताम्) - विशेषरूप से पुरुष का आश्रय करनेवाले हों । ये द्वार पुरुष में (ऋतावृधः) - ऋत का वर्धन करनेवाले हों  , अर्थात् एक - एक इन्द्रिय ठीक कार्य करनेवाली हो । ये द्वार (देवीः) - प्रकाशमय हों - [दिव् द्युति] । एक - एक ज्ञानेन्द्रिय अपने - अपने विषय का ठीक प्रकार से प्रकाश करे । (असश्चतः) - [सश्च  , to stick  , cling] ये इन्द्रिय - द्वार विषयों से चिपक न जाएँ । आसक्ति ही तो सब उन्नतियों व विकासों को समाप्त करनेवाली है । 

    २. इस प्रकार ऋत का वर्धन करनेवाले - नियमितता से कार्यों को करनेवाले प्रकाशमय [देवीः] अनासक्त होकर विषयों में विचरनेवाले इन्द्रिय - द्वार इसलिए हमारा आश्रय व सेवन करें कि हम (अद्या) - आज से ही  , अभी से ही (नूनम्) - निश्चयपूर्वक (यष्टवे) - यज्ञ के लिए हों - हमारा जीवन यज्ञशील हो जाए । 

    ३. इन्द्रियों के 'ऋतावृध्' होने का अभिप्राय यही तो है कि वे यज्ञ में प्रवृत्त हैं  , (असश्चतः) वे भोगों से निवृत्त हैं  , अतएव (देवीः) - प्रकाशमय हैं । ऐसे ही इन्द्रिय - द्वार हमारे जीवन को यज्ञमय बनाने में सहायक होते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी इन्द्रियों 'ऋतावृध्' देवी तथा असश्चत्' हों  , ताकि हमारा जीवन अभी से यज्ञमय हो जाए ।  

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    विषय

    द्वारों और सेनाओं का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अद्य ) आज सदा ( नूनं च ) अवश्य ( यष्टवे ) यज्ञ करने के अवसर में ( ऋतावृधः ) सुख को, या निर्गमन और प्रवेश को बढ़ाने वाले ( देवीः द्वारः ) प्रकाश से युक्त द्वार ( असश्चतः ) पृथक् पृथक्, खुले, चौड़े, (वि श्रयन्ताम्) विविध रूप से लगाये जायं । गृहस्थ के पक्ष में— सब दिन यज्ञ रूप सुसंगत होने के लिए गृह में ( असश्चतः ) विषयों में अनासक्त होकर ( ऋतावृधः ) सत्य ज्ञान को बढ़ानेवाली ( देवीः ) देवियां ( द्वारः ) पापों का वर्जन करनेहारी होकर ( विश्रयन्ताम् ) विविध रूप से आश्रय लें। राष्ट्रपक्ष में—युद्ध यज्ञ के लिए ( द्वारः ) शत्रुओं का वारण करनेवाली ( देवीः ) विजयशालिनी सेनाएँ ( ऋतावृधः ) सत्य व्यवहार, और राष्ट्र बल को बढ़ाने वाली होकर विविध स्थानों पर छावनी बनाकर रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी अनेक दरवाजे असलेली घरे, यज्ञशाळा व विमाने इत्यादी याने तयार करावीत. त्यात राहून होम करावा व देशदेशान्तरी भ्रमण करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Scholars of science, servants of eternal truth who extend the bounds of knowledge, open the holy doors of inexhaustible light, the yajna must be performed to day.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra it has been preached that hall for the yajan and aircrafts etc. vehicles should be made with many doors.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manīṣiṇaḥ)=intelligent scholars, (adya) =to day itself, (yaṣṭave)=for performing yajan(oblation), [aura]=and, (gṛhādeḥ)=of house etc. (asaścataḥ)=different, (ṛtāvṛdhaḥ)=increasing truth, delight and water, (devīḥ)=illuminated, (dvāraḥ)=doors, (nūnam)=certainly, (vi)= in a variety of ways, (śrayantām)=use

    English Translation (K.K.V.)

    O Intelligent scholars! For performing yajan (oblation) today itself and to illuminate different doors of house etc. certainly, use in a variety of ways for increasing truth, delight and water.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Human beings should do the work of making various types of doors, hall for the yajan and aircrafts etc. and staying in those houses to perform the act of yajan (oblation) and go for travelling.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The place of Yajna (Sacrificial hall) and vehicles should be made of many doors is taught in the 6th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise learned men, in order to make a Yajna (Non-violent sacrifice) let the shining doors which are augmenters of happiness and truth and which are properly designed be certainly set open, as to-day the Yajna is to be performed.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं सुखं जलं वा वर्धयन्ति ताः अत्र अन्येषामपि दृश्यते । (अष्टा. ६.३.१३७) इति दीर्घः (असश्चतः) विभागं प्राप्तः । अत्र सम्ज-गतौ इत्यस्य व्यत्ययेन जकारस्य चकारः ।।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should make houses, sacrificial halls and conveyances of many doors so that persons may dwell there, perform Yajna and go in and come out easily.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has given three meanings of the term ऋतम्, सल्यं सुखं जलं .वेति ऋतमित्युदकनाम (निघ० १.१२ ) ऋतमिति सत्यनाम (निध. ३.१० ) ऋतमिति पदनाम पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च प्राप्यते मनीषिभिरिति ऋतं सुखम् On the authority of these quotations from the Vedic Lexicon Nighantu, it is quite clear that the meanings given by him are correct and authentic.

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