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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - त्वष्टा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒ह त्वष्टा॑रमग्रि॒यं वि॒श्वरू॑प॒मुप॑ ह्वये। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । त्वष्टा॑रम् । अ॒ग्रि॒यम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । उप॑ । ह्व॒ये॒ । अ॒स्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । केव॑लः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये। अस्माकमस्तु केवलः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह। त्वष्टारम्। अग्रियम्। विश्वऽरूपम्। उप। ह्वये। अस्माकम्। अस्तु। केवलः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तत्र किं किं कार्य्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अहं यं विश्वरूपमग्रियं त्वष्टारमग्निं परमात्मानमिहोपह्वये सम्यक् स्पर्द्धे स एवास्माकं केवल इष्टोऽस्त्वित्येकः।अहं यं विश्वरूपमग्रियं त्वष्टारं भौतिकमग्निमिहोपह्वये सोऽस्माकं केवलोऽसाधारणसाधनोऽस्तु भवतीति द्वितीयः॥१०॥

    पदार्थः

    (इह) अस्यां शिल्पविद्यायामस्मिन् गृहे वा (त्वष्टारम्) दुःखानां छेदकं सर्वपदार्थानां विभाजितारं वा (अग्रियम्) सर्वेषां वस्तूनां साधनानां वा अग्रे भवम्। घच्छौ च। (अष्टा०४.४.११८) इति सूत्रेण भवार्थे घः प्रत्ययः। (विश्वरूपम्) विश्वस्य रूपं यस्मिन् परमात्मनि वा विश्वः सर्वो रूपगुणो यस्य तम् (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्पर्द्धे (अस्माकम्) उपासकानां हवनशिल्पविद्यासाधकानां वा (अस्तु) भवतु भवति। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (केवलः) एक एवेष्टोऽसाधारणसाधनो वा॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरनन्तानन्दप्रद ईश्वर एवोपास्योऽस्ति। तथाऽयमग्निः सर्वपदार्थच्छेदको रूपगुणः सर्वद्रव्यप्रकाशकोऽनुत्तमः शिल्पविद्याया अद्वितीयसाधनोऽस्माकं यथावदुपयोक्तव्योऽस्तीति मन्तव्यम्॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वहाँ क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    मैं जिस (विश्वरूपम्) सर्वव्यापक, (अग्रियम्) सब वस्तुओं के आगे होने तथा (त्वष्टारम्) सब दुःखों के नाश करनेवाले परमात्मा को (इह) इस घर में (उपह्वये) अच्छी प्रकार आह्वान करता हूँ, वही (अस्माकम्) उपासना करनेवाला हम लोगों का (केवलः) इष्ट और स्तुति करने योग्य (अस्तु) हो॥१॥१०॥।और मैं (विश्वरूपम्) जिसमें सब गुण हैं, (अग्रियम्) सब साधनों के आगे होने तथा (त्वष्टारम्) सब पदार्थों को अपने तेज से अलग-अलग करनेवाले भौतिक अग्नि के (इह) इस शिल्पविद्या में (उपह्वये) जिसको युक्त करता हूँ, वह (अस्माकम्) हवन तथा शिल्पविद्या के सिद्ध करनेवाले हम लोगों का (केवलः) अत्युत्तम साधन (अस्तु) होता है॥२॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को अनन्त सुख देनेवाले ईश्वर ही की उपासना करनी चाहिये तथा जो यह भौतिक अग्नि सब पदार्थों का छेदन करने, सब रूप गुण और पदार्थों का प्रकाश करने, सब से उत्तम और हम लोगों की शिल्पविद्या का अद्वितीय साधन है, उसका उपयोग शिल्पविद्या में यथावत् करना चाहिये॥१०॥

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    विषय

    फिर वहाँ क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    (प्रथमः)- अहं यं विश्वरूपम् अग्रियम् त्वष्टारम् अग्निम् परमात्मानम् इह उपह्वये सम्यक् स्पर्द्धे स एव अस्माकं केवल इष्टः अस्ति॥१०॥

    (द्वितीयः)- अहम् यम् विश्वरूपम् अग्रियम् त्वष्टारं भौतिकम् अग्निम् इह उपह्वये सः अस्माकंकेवलः असाधारण साधनः अस्तु भवतीति॥१०॥

    पदार्थ

    (प्रथम)- (अहम्)=मैं, (यम्)=जिस, (विश्वरूपम्) विश्वस्य रूपं यस्मिन् परमात्मनि वा विश्वः सर्वो रूपगुणो यस्य तम्=जिस परमात्मा में विश्व के रूप हैं या जिसके समस्त रूप और गुण हैं, उसको, (अग्रियम्) सर्वेषां साधनानां वा अग्रे भवम्=सबके साधनों का अथवा पहले होने वाला, (त्वष्टारम्) दुःखानां छेदकं सर्वपदार्थानां विभाजितारं वा=दुःखों का छेदन करने वाला अथवा सब पदार्थो को विभाजित करने वाले, (भौतिकम्)=भौतिक, (अग्निम्)=अग्नि को, (परमात्मानम्)=परमात्मा को, (इह) अस्मिन् शिल्पविद्यायामस्मिन् गृहे वा=इस शिल्प विद्या में अथवा इस घर में, {उपह्नये-(उप+ह्नये)-(सामीप्ये-स्पर्द्धे)}समीपगमनार्थे सम्यक् स्पर्द्धे=निकट जाने के अर्थ में अथवा अच्छी तरह से स्पर्धा करने में, (स)=वह परमात्मा, (एव)=ही, (अस्माकम्)=हमारा, (केवलः) एक एवेष्टोऽसाधारणसाधनो वा=एक ही इष्ट अथवा साधारण साधन, (इष्टः)=इष्ट, (अस्ति)=है॥१०॥


    (द्वितीय)- (अहम्)=मैं, (यम्)=जिस, विश्वरूपम्-विश्वस्य रूपं यस्मिन् परमात्मनि वा विश्वः सर्वो रूपगुणो यस्य तम्=जिस परमात्मा में विश्व के रूप हैं या जिसके समस्त रूप और गुण हैं, उसको, (अग्रियम्) सर्वेषां साधनानां वा अग्रे भवम्=सबके साधनों का अथवा पहले होने वाले, (त्वष्टारम्) दुःखानां छेदकं सर्वपदार्थानां विभाजितारं वा=दुःखों का छेदन करने वाला अथवा सब पदार्थो को विभाजित करने वाले, (भौतिकम्)=भौतिक, (अग्निम्)=अग्नि को, इह-अस्मिन् शिल्पविद्यायामस्मिन् गृहे वा=इस शिल्प विद्या में अथवा इस घर में, {उपह्नये-(उप+ह्नये)-(सामीप्ये-स्पर्द्धे)}-समीपगमनार्थे सम्यक् स्पर्द्धे=निकट जाने के अर्थ में अथवा अच्छी तरह से स्पर्धा करने में, (सः) वह अग्नि (अस्माकम्) हमारा, (केवलम्) एक एवेष्टोऽसाधारणसाधनो वा=एक ही इष्ट (साधारण साधनो) साधारण साधन (अस्तु) हो॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। मनुष्यों को अनन्त सुख देनेवाले ईश्वर ही की उपासना करनी चाहिये तथा जो यह भौतिक अग्नि सब पदार्थों का छेदन करने, सब रूप गुण और पदार्थों का प्रकाश करने, सब से उत्तम और हम लोगों की शिल्पविद्या का अद्वितीय साधन है, उसका उपयोग शिल्पविद्या में यथावत् करना चाहिये॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

     प्रथम अर्थ परमात्मा  के पक्ष में-
    (अहम्) मैं (यम्) जिस (विश्वरूपम्) परमात्मा में विश्व के रूप हैं, उस (अग्रियम्) सब साधनों और (त्वष्टारम्) दुःखों के नष्ट करने वाले (परमात्मानम्) परमात्मा को (इह) इस घर में (उपह्नये) समीप आने के लिये आह्वान करता हूँ। (स) वह परमात्मा (एव) ही (अस्माकम्) हमारा (केवलः) एक (इष्टः) इष्ट (अस्ति) है॥१०॥
    द्वितीय अर्थ भौतिक अग्नि के पक्ष में- 
    (अहम्) मैं (यम्) जिस  (विश्वरूपम्) जिसके समस्त रूप और गुण हैं, उसको (अग्रियम्) जो सबका साधन और (त्वष्टारम्) सब पदार्थो को विभाजित करने वाला (भौतिकम्) भौतिक  (अग्निम्) अग्नि है। (इह) इस शिल्प विद्या में (उपह्नये) अच्छी तरह से स्पर्धा करने में (सः) वह अग्नि (अस्माकम्) हमारा, (केवलम्) एक ही इष्ट (साधारण साधनो) साधारण साधन (अस्तु) हो॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इह) अस्यां शिल्पविद्यायामस्मिन् गृहे वा (त्वष्टारम्) दुःखानां छेदकं सर्वपदार्थानां विभाजितारं वा (अग्रियम्) सर्वेषां वस्तूनां साधनानां वा अग्रे भवम्। घच्छौ च। (अष्टा०४.४.११८) इति सूत्रेण भवार्थे घः प्रत्ययः। (विश्वरूपम्) विश्वस्य रूपं यस्मिन् परमात्मनि वा विश्वः सर्वो रूपगुणो यस्य तम् (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्पर्द्धे (अस्माकम्) उपासकानां हवनशिल्पविद्यासाधकानां वा (अस्तु) भवतु भवति। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (केवलः) एक एवेष्टोऽसाधारणसाधनो वा॥१०॥
    विषयः- पुनस्तत्र किं किं कार्य्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- अहं यं विश्वरूपमग्रियं त्वष्टारमग्निं परमात्मानमिहोपह्वये सम्यक् स्पर्द्धे स एवास्माकं केवल इष्टोऽस्त्वित्येकः।अहं यं विश्वरूपमग्रियं त्वष्टारं भौतिकमग्निमिहोपह्वये सोऽस्माकं केवलोऽसाधारणसाधनोऽस्तु भवतीति द्वितीयः॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरनन्तानन्दप्रद ईश्वर एवोपास्योऽस्ति। तथाऽयमग्निः सर्वपदार्थच्छेदको रूपगुणः सर्वद्रव्यप्रकाशकोऽनुत्तमः शिल्पविद्याया अद्वितीयसाधनोऽस्माकं यथावदुपयोक्तव्योऽस्तीति मन्तव्यम्॥१०॥ 

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    विषय

    त्वष्टा - अग्रिय - विश्वरूप

    पदार्थ

    १. (इह) - इस जीवन में मैं उस प्रभु को (उपह्वये) - पुकारता हूँ  , जो प्रभु (त्वष्टारम्) - [त्विष् दीप्तौ] स्वयं ज्ञान से दीप्त हैं और हमें ज्ञान से द्योतित करनेवाले हैं  , अथवा [त्वक्षतेर्वा करोति कर्मणः] सारे ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करनेवाले हैं  , सब सूर्यादि देवों के शिल्पी हैं । हमारे जीवनों को भी उत्तम रूप देनेवाले हैं । 

    २. (अग्रियम्) - वे प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले हैं 'हिरण्यगर्भः समवर्तत्ताग्ने' । 

    ३. (विश्वरूपम्) - ब्रह्माण्ड के सारे पदार्थों का निरूपण करनेवाले हैं । वेद में प्रभु ने तुण से लेकर सूर्यपर्यन्त सब वस्तुओं का प्रतिपादन किया है । उस ज्ञान को प्राप्त करके हम इन सब पदार्थों से सुख का साधन कर सकते हैं । 

    ४. (अस्माकम्) - हमारा यह (के - वलः) - आनन्द में विचरण करनेवाला प्रभु ही (अस्तु) - हो । हम प्रकृति के दास न बन जाएँ । यदि बन गये तो प्रकृति की जड़ता को ही प्राप्त करेंगे  , अपनी अल्प चेतना को भी खो बैठेंगे । प्रभु - भक्त बनकर उस आनन्दमय प्रभु के आनन्द में भागी होंगे । एवं  , हमारा तो वह प्रभु ही हो  , उसी के हम उपासक बनें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु 'त्वष्टा  , अग्रिय व विश्वरूप' हैं । हम उस प्रभु के ही होकर रहें । 

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    विषय

    संसार का कर्त्ता विश्वरूप त्वष्टा ।

    भावार्थ

    (इह) यहाँ मैं (अग्रियम् ) अग्र, सर्व-प्रथम, सर्वोच्च अग्रासन के योग्य, सर्वश्रेष्ठ, ( विश्वरूपम् ) समस्त रूपों को धारण करने वाले, ( त्वष्टारम् ) संसार के कर्त्ता, सब दुःखों के छेदक, एवं तेजस्वी परमेश्वर को ( उप ह्वये ) स्मरण करता हूं । वह ( केवलः ) केवल, एक अद्वितीय ( अस्माकम् ) हमारा उपाय ( अस्तु ) हो । अग्निपक्ष में—सब पदार्थों के विभाजक सब प्रकार के रूपों के दिखाने वाले, तेजोमय अग्नि का मैं प्रयोग करूँ । आत्मापक्ष में—उस तेजोमय, दुःखों के नाशक, पुष्टि में सब से श्रेष्ठ, विश्वरूप = आत्मा की उपासना करता हूं । वह ही केवल हमारा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी अनंत सुख देणाऱ्या ईश्वराची उपासना केली पाहिजे. हा भौतिक अग्नी सर्व पदार्थांना छिन्न भिन्न करणारा, सर्व रूप, गुण पदार्थांचा प्रकाश करणारा, सर्वात उत्तम असून, शिल्पविद्येचे अद्वितीय साधन आहे. त्याचा शिल्पविद्येत यथायोग्य उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Here to this house of yajna, from the core of my heart, I invoke and invite Tvashta, first pioneer of all, omnipresent lord of cosmic dynamics and maker of beautiful forms of existence. May He be the sole object of our worship.

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    Subject of the mantra

    Then, what should be done there, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God- (aham)=I, (yam)=which, (viśvarūpam)=Universal form are in God, (agriyam)=of all means, (tvaṣṭāram)= destroyer of sorrows, (paramātmānam)= to God, (iha)= in this home, (upahnaye)=invoke for coming in close quarters, (sa)= that God, (eva)=only, (asmākam)=our, I (kevalaḥ)=one, (iṣṭaḥ)=desired goal, (asti)=is. Second in favour of physical fire- (aham)-I, (yam)=which, (viśvarūpam) =who has all the forms and qualities, to that, (agriyam)= everyone's means, (tvaṣṭāram)= apportions all substances, (bhautikam)= to physical, (agnim)=fire is, (iha)= in this craft (upahnaye)= to compete well, (saḥ)=that fire, (asmākam)=our, (kevalam)=only desired, (sādhāraṇa sādhano)=general means, (astu)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of God- I invoke God for coming in close quarters in this home, which has a universal form. That is with all means, destroyer of sorrows. That God only is our one desired goal. Second meaning in favour of physical fire- I, the one who has all forms and qualities, who is the means of all living beings and the physical fire; and apportions all the substances. To compete well in this craft, let that fire be our only desired general means.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. One should worship the God only who gives eternal happiness to human beings and this material fire is to pierce all things; illuminates all forms, qualities and the substances; is best of all and is our unique means of craftsmanship. It should be used properly in craftsmanship.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) I invoke in this house or sacrificial hall, God who is All-pervading, being present in all forms, destroyer of all miseries, the Chief or the Best of all. May He be for us the only object of worship. (2) I invoke or utilize in this science of art and industry, fire which is disintegrator of particles, the Chief among the means, that is, the extra-ordinary means for our practical accomplishments.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्वष्टारम्) परमात्मपक्षे दुःखानां छेदकम्, अग्निपक्षे सर्वपदार्थानां विभाजितारम् (विश्वरूपम्) विश्वस्य रूपं यस्मिन् परमात्मनि तम्, विश्वः सर्वो रूपगुणो यस् तमग्निं भौतिकम् (केवल:) उपासकानाम् एक एवेष्टः परमेश्वर:, हवनशिल्पविद्यासाधकानाम् असाधारणसाधनो वा भौतिकाग्निः ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshalankar or double meaning here. Men should regard God Who is the Giver of infinite bliss as the only object of worship and this fire as the disintegrator of the particles of all objects, multiform, the illuminator of all things, the un-paralleled means of the accomplishment of the science of art and industry which should be properly utilized.

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