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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इळ: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॑ सु॒खत॑मे॒ रथे॑ दे॒वाँ ई॑ळि॒त आ व॑ह। असि॒ होता॒ मनु॑र्हितः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । सु॒खऽत॑मे । रथे॑ । दे॒वान् । इ॒ळि॒तः । आ । व॒ह॒ । असि॑ । होता॑ । मनुः॑ऽहितः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह। असि होता मनुर्हितः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। सुखऽतमे। रथे। देवान्। इळितः। आ। वह। असि। होता। मनुःऽहितः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    स एवमुपकृतः किंहेतुको भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    मनुष्यैर्योऽग्निर्मनुर्होतेडितोऽस्ति स सुखतमे रथे हितः स्थापितः सन् देवानावह समन्ताद्वहति देशान्तरं प्रापयति॥४॥

    पदार्थः

    (अग्ने) भौतिकोऽयमग्निः (सुखतमे) अतिशयितानि सुखानि यस्मिन् (रथे) गमनहेतौ रमणसाधने विमानादौ (देवान्) विदुषो भोगान्वा (ईडितः) मनुष्यैरध्येषितोऽधिष्ठितः (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (असि) अस्ति (होता) सुखदाता (मनुः) विद्वद्भिः क्रियासिध्यर्थं यो मन्यते (हितः) धृतः सन् हितकारी॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्बहुकलासमन्वितो भूजलान्तरिक्षगमनहेतुरग्निर्जलादिना सह सम्प्रयोजितस्त्रिविधे रथे हितकारी सुखतमो भूत्वा बहुकार्य्यसिद्धिप्रापको भवतीति बोध्यम्॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त अग्नि इस प्रकार उपकार में लिया हुआ किसका हेतु होता है, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो (अग्ने) भौतिक अग्नि (मनुः) विद्वान् लोग जिसको मानते हैं तथा (होता) सब सुखों का देने और (ईडितः) मनुष्यों को स्तुति करने योग्य (असि) है, वह (सुखतमे) अत्यन्त सुख देने तथा (रथे) गमन और विहार करानेवाले विमान आदि सवारियों में (हितः) स्थापित किया हुआ (देवान्) दिव्य भोगों को (आवह) अच्छे प्रकार देशान्तर में प्राप्त कराता है॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को बहुत कलाओं से संयुक्त पृथिवी जल और अन्तरिक्ष में गमन का हेतु तथा अग्नि वा जल आदि पदार्थों से संयुक्त तीन प्रकार का रथ कल्याणकारक तथा अत्यन्त सुख देनेवाला होकर बहुत उत्तम-उत्तम कार्य्यों की सिद्धि को प्राप्त करानेवाला होता है॥४॥

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    विषय

    उक्त अग्नि इस प्रकार उपकार में लिया हुआ किसका हेतु होता है, सो उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्यैः यः अग्निः मनुः होता ईडितः अस्ति स सुखतमे रथे हितः स्थापितः सन् देवान् वहति समन्तात् वहति देशान्तरं प्रापयति॥४॥

    पदार्थ

    (मनुष्यैः)=मनुष्यों के द्वारा, (यः)=जो, (अग्निः) भौतिकोऽयमग्निः= भौतिक अग्नि, (मनुः)- विद्वद्भिः क्रियासिध्यर्थं यो मन्यते=जो विद्वानों की क्रिया की सिद्धि के लिये मानी जाती है, (होता) सुखदाता, (ईडितः) मनुष्यैरध्येषितोऽधिष्ठितः=मनुष्यों के द्वारा स्तुति किये जाने योग्य, (अस्ति)=है, (स)=वह, (सुखतमे)-अतिशयानि सुखानि=अत्यन्त सुख देने (यस्मिन्)=जिसमें अतिशय सुख हों, (रथे) गमनहेतौरमणसाधने विमानादौ=आवागमन के लिये विमान आदि साधन, (हितः) धृतः सन् हितकारी=स्थापित किया हुआ हितकारी (स्थापितः+ सन्) धैर्य के लिए हितकारी होते हुए, (देवान्) विदुषो भोगान्वा=अथवा विद्वानों के भोग के लिए, (आसमन्तात्)=हर ओर से, (देशान्तरम्)=देशान्तर में, (प्रापयति)= प्राप्त होती है॥४॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के लिए  बहुत कलाओं से संयुक्त पृथिवी, जल और अन्तरिक्ष में गमन का माध्यम तथा अग्नि वा जल आदि पदार्थों से संयुक्त तीन प्रकार का रथ कल्याणकारक तथा अत्यन्त सुख देनेवाला होकर बहुत उत्तम-उत्तम कार्य्यों की सिद्धि को प्राप्त करानेवाला होता है॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (यः) जो (अग्निः)  भौतिक अग्नि (मनुः) विद्वानों की क्रिया की सिद्धि के लिये मानी जाती है, (होता)  और सुखदाता (ईडितः) मनुष्यों के द्वारा स्तुति किये जाने योग्य (अस्ति) है। (स) वह (सुखतमे) जिसमें अतिशय सुख हो (रथे) आवागमन के लिये विमान आदि साधन और (स्थापितः+सन्) धैर्य के लिए हितकारी होते हुए (देवान्) अथवा विद्वानों के भोग  के लिए (आसमन्तात्) हर ओर से (देशान्तरम्) भिन्न-भिन्न स्थानों में (प्रापयति) प्राप्त होती है॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अग्ने) भौतिकोऽयमग्निः (सुखतमे) अतिशयितानि सुखानि यस्मिन् (रथे) गमनहेतौ रमणसाधने विमानादौ (देवान्) विदुषो भोगान्वा (ईडितः) मनुष्यैरध्येषितोऽधिष्ठितः (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (असि) अस्ति (होता) सुखदाता (मनुः) विद्वद्भिः क्रियासिध्यर्थं यो मन्यते (हितः) धृतः सन् हितकारी॥४॥
    विषयः- स एवमुपकृतः किंहेतुको भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- मनुष्यैर्योऽग्निर्मनुर्होतेडितोऽस्ति स सुखतमे रथे हितः स्थापितः सन् देवानावह समन्ताद्वहति देशान्तरं प्रापयति॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्बहुकलासमन्वितो भूजलान्तरिक्षगमनहेतुरग्निर्जलादिना सह सम्प्रयोजितस्त्रिविधे रथे हितकारी सुखतमो भूत्वा बहुकार्य्यसिद्धिप्रापको भवतीति बोध्यम्॥४॥ 

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    विषय

    सुखतम - रथ 

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! आप (ईळितः) - हमसे स्तुति किये हुए (सुखतमे रथे) - इस अत्यन्त उत्तम इन्द्रिय - [ख] - रूप घोड़ेवाले शरीररूप रथ में (देवान्) - देवों को (आवह) - सब प्रकार से प्राप्त कराइए । जिस समय हम इस शरीर का रोगादि के आक्रमण से रक्षण करते हैं और एक - एक इन्द्रिय की शक्ति को क्षीण नहीं होने देते  , उस समय हम प्रभु की इस धरोहर की रक्षा करने से प्रभु की सच्ची उपासना कर रहे होते हैं । इस पूर्ण स्वस्थ शरीर में और इन्द्रियों की शक्ति का उत्तम विकास होने पर प्रभु हमारे हदयों में दिव्यगुणों का विकास करते हैं । यही देवों का आह्वान है । शरीर अस्वस्थ हो  , इन्द्रियाँ जीर्ण शक्तिशाली हों  , तो वह शरीर दिव्यगुणों का अधिष्ठान बनने की योग्यता नहीं रखता । 

    २. हे प्रभो ! आप (होता) - सब अच्छाइयों के दाता हो  , आपकी कृपा से ही सब दिव्यगुण प्राप्त हुआ करते हैं । 

    ३. (मनुर्हितः) - [मनुना मन्त्रेण हितः] ज्ञान के द्वारा आप कल्याण करनेवाले हैं । प्रभु का कल्याण करने का प्रकार यही है कि वे ज्ञान देते हैं और मार्ग के स्पष्ट होने से हमारा उसपर चलना सुगम हो जाता है । मार्ग पर चलनेवाला कभी अवसाद व विनाश को प्राप्त नहीं होता । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम शरीर - रथ को उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला बनाएँ । यही हमारा प्रभु - पूजन होगा । आराधित प्रभु हमें दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाले होंगे । सब अच्छाइयों के देनेवाले वे प्रभु ही तो हैं । वे प्रभु ज्ञान के द्वारा आराधक का कल्याण करते हैं । 

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन, पक्षान्तर में विद्वान् जठराग्नि, भौतिक अग्नि, आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्ने ! ज्ञानवन् ! ( ईळितः ) स्तुति किया गया, चाहा गया, ( सुखतमे रथे ) अति सुख देने वाले रमण करने योग्य साधन विमान यान आदि में तू ( देवान्) विद्वान् पुरुषों को ( आवह ) ले आ । तू ( होता ) सब सुखों का देने वाला ( मनुः ) मननशील होकर ( हितः ) सबका हितकारी (असि) है । अथवा ( मनुः होता हितः असि ) तू ज्ञानवान् होकर यज्ञ के ‘होता’ रूप से स्थापित है। भौतिक पक्ष में—अग्नि, विद्युत् ही नाना यानों का चालक है। वह विद्वानों द्वारा जानने योग्य होने से ‘मनु’ है । गति देने और सुखप्रद होने से ‘होता’ है । यज्ञ में होतृवरण भी इसी से हुआ जानें । अध्यात्म में—आत्मा, मननशील होने से ‘मनु’ है । सब इन्द्रियों का वशकारी, प्रवर्त्तक होने से ‘होता’ है । वह देव, इन्द्रियों को अति, सुखप्रद रथ रूप देह में धारण करता है। सबसे प्रिय होने से आत्मा ‘ईळित’ है । ईश्वर पक्ष में—स्तुति किया जाकर वह परमेश्वर विद्वान् पुरुषों को अति सुखप्रद आनन्द रस में लीन कर लेता है । वह सवाश्रय दाता होने से ‘होता’, ज्ञान योग्य होने से ‘मनु’ और पोषक होने से ‘हित’ है ।

    टिप्पणी

    आत्मा नस्तुकामाय सर्वं प्रियं भवति ।’ बृहदा० ४॥५॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बऱ्याच कलांनी युक्त, पृथ्वी, जल व अंतरिक्षात गमन करण्याचा हेतू तसेच अग्नी किंवा जल इत्यादी पदार्थांनी संयुक्त तीन प्रकारचा रथ कल्याणकारक व अत्यंत सुखदायक असून, माणसांना पुष्कळ उत्तम कार्याची सिद्धी प्राप्त करून देणारा असतो. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, invoked, lighted and honoured by all, you are the lord and agent of yajna for the benefit of humanity. Come and bring the best powers and divinities of nature in the most comfortable chariot.

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    Subject of the mantra

    Aforesaid fire used as benefaction is cause of whom, is preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (manuṣyaiḥ)=by men, (yaḥ)=which, (agniḥ) =Physical fire, (manuḥ)=It is considered proper for accomplishment of deeds of scholars, (hotā) =and provider of delights, (īḍitaḥ)=praiseworthy for men, (asti) =is, (sa)=that, (sukhatame)=Which has lot of happiness, (rathe)= aircrafts et cetera means of travelling, (sthāpitaḥ+san)= being good for patience, (devān)=by enjoyment of scholars, (āsamantāt)=from every direction, (deśāntaram)=by going to different places, (prāpayati)= is obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    The physical fire which is considered proper for accomplishment of deeds of scholars, that is praiseworthy for provider of delights men. That fire which has lot of happiness, aircrafts et cetera, means of travelling and being good for the patience. That fire is obtained from every direction in different places for the enjoyment of scholars.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    For human beings, combined with many mechanical parts, the medium of movement in earth, water and space, and three types of chariots combined with fire or water, etc., are beneficial and give great pleasures and get the accomplishment of very good works.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Agni (fire) when used in the most easy going Chariot (in the form of aero plane etc.) which confers happiness upon its passengers, gives divine enjoyments. It is used by wise men for the accomplishment of various acts and is very beneficent.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ((रथे) गमनहेतौ रमणसाधने विमानादौ । (मनुः ) विद्वद्भिः क्रियासिद्ध्यर्थ यो मन्यते सः || It is very wrong on the part of Griffith to take the word Manu as proper noun and translate the last line as "Manu appointed thee as priest." It is against the fundamental principles of he Vedic terminology as pointed out before. See shataph Brahman S. 6.3.18. ये विद्वांसस्ते मनवः || (शत. ८. ६.३.१८ ) The learned are called Manus. In the Aitareya Brahmana 2. 34 it is said. अग्निर्हेता मनुवृतः । अयम् अग्निर्हि सर्वतो मनुष्यैर्वृतः ॥ (ऐतरेय ब्राह्मणे २.३४) So Wilson's translation is better than Griffith's who has translated the last line as "instituted by men. The spiritual meaning of the Mantra is-- “O God, extolled by us, bring the enlightened persons in our most pleasant devotional sacrifice which gives happiness. Thou art the Giver of the fruit of action, Omniscient and Beneficent to all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should know that the fire used in many mechanical devices becomes fit to travel on earth, water and the sky, confers happiness on all and accomplishes various processes, that are beneficial to all.

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