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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - नराशंस: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    नरा॒शंस॑मि॒ह प्रि॒यम॒स्मिन्य॒ज्ञ उप॑ह्वये। मधु॑जिह्वं हवि॒ष्कृत॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नरा॒शंस॑म् । इ॒ह । प्रि॒यम् । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । उप॑ । ह्व॒ये॒ । मधु॑ऽजिह्वम् । ह॒विः॒ऽकृत॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उपह्वये। मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नराशंसम्। इह। प्रियम्। अस्मिन्। यज्ञे। उप। ह्वये। मधुऽजिह्वम्। हविःऽकृतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    नरैः प्रशंसनीयस्य भौतिकाग्नेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    अहमस्मिन् यज्ञे इह संसारे च हविष्कृतं मधुजिह्वं प्रियं नराशंसमग्निमुपह्वय उपगम्योपतापये॥३॥

    पदार्थः

    (नराशंसम्) नरैरभितः शस्यते प्रशस्यते तं सुखसमूहकारकम्। नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निमिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति। (निरु०८.६) (इह) अस्मद्भोगविषये संसारे (प्रियम्) प्रीणति सर्वान् प्राणिनस्तम् (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (यज्ञे) यष्टव्ये (उप) उपगतभोगद्योतने (ह्वये) उपतापये (मधुजिह्वम्) मधुरगुणसम्पादिका जिह्वा ज्वाला यस्य तम्। जिह्वा जोहुवा। (निरु०५.२६) काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ इति मुण्डकोपनि० (मुण्डक १.२.४) (हविष्कृतम्) हविर्भिः क्रियते तम्। अत्र वर्त्तमानकाले कर्मण्यौणादिकः क्तः प्रत्ययः॥३॥

    भावार्थः

    योऽयं भौतिकोऽग्निरस्मिन् जगति युक्त्या सेवितः प्राणिनां प्रियकारी भवति, तस्याऽग्नेः सप्त जिह्वाः सन्ति। काली=शुक्लादिवर्णप्रकाशिका, कराली=दुःसहा, मनोजवा=मनोवद्वेगवती, सुलोहिता= शोभनो लोहितो रक्तो वर्णो यस्याः सा, सुधूम्रवर्णा=शोभनो धूम्रो वर्णो यस्याः सा, स्फुलिङ्गिनी=बहवः स्फुलिङ्गाः कणा विद्यन्ते यस्यां सा। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। विश्वरूपी=विश्वं सर्वं रूपं यस्याः सा। इति सप्तविधा। पुनः सा किं भूता देवी देदीप्यमाना, लेलायमाना लेलायति सर्वत्र प्रकाशयति या सा। अत्र लेला दीप्तावित्यस्मात् कण्ड्वादित्वाद्यक्। व्यत्ययेनात्मनेपदं च। सा जिह्वाऽर्थाज्जोहुवा पुनः पुनः सर्वान् पदार्थान् जुहोत्यादत्तेऽसाविति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में मनुष्यों के प्रशंसा करने योग्य भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    मैं (अस्मिन्) इस (यज्ञे) अनुष्ठान करने योग्य यज्ञ तथा (इह) संसार में (हविष्कृतम्) जो कि होम करने योग्य पदार्थों से प्रदीप्त किया जाता है और (मधुजिह्वम्) जिसकी काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुलिङ्गिनी और विश्वरूपी ये अति प्रकाशमान चपल ज्वालारूपी जीभें हैं (प्रियम्) जो सब जीवों को प्रीति देने और (नराशंसम्) जिस सुख की मनुष्य प्रशंसा करते हैं, उसके प्रकाश करनेवाले अग्नि को (उपह्वये) समीप प्रज्वलित करता हूँ॥३॥

    भावार्थ

    जो भौतिक अग्नि इस संसार में होम के निमित्त युक्ति से ग्रहण किया हुआ प्राणियों की प्रसन्नता करानेवाला है, उस अग्नि की सात जीभें हैं अर्थात् काली जो कि सुपेद आदि रङ्ग का प्रकाश करनेवाली, कराली-सहने में कठिन, मनोजवा-मन के समान वेगवाली, सुलोहिता-जिसका उत्तम रक्तवर्ण है, सुधूम्रवर्णा-जिसका सुन्दर धुमलासा वर्ण है, स्फुलिङ्गिनी-जिससे बहुत से चिनगे उठतें हों तथा विश्वरूपी-जिसका सब रूप हैं। ये देवी अर्थात् अतिशय करके प्रकाशमान और लेलायमाना-प्रकाश से सब जगह जानेवाली सात प्रकार की जिह्वा हैं अर्थात् सब पदार्थों को ग्रहण करनेवाली होती हैं। इस उक्त सात प्रकार की अग्नि की जीभों से सब पदार्थों में उपकार लेना मनुष्यों को चाहिये॥३॥

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    विषय

    विषय(भाषा)- अब इस मन्त्र में मनुष्यों के प्रशंसा करने योग्य भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहम् अस्मिन् यज्ञे इह संसारे च हविष्कृतं मधुजिह्वं  प्रियं नराशंसम् अग्निम् उपह्वय उपगम्य उपतापये॥३॥

    पदार्थ

    (अहम्)=मैं, (अस्मिन्) प्रत्यक्षे= इस प्रत्यक्ष, (यज्ञे) यष्टव्ये= यज्ञ में, (इह) अस्मद्भोगविषये संसारे= भोग विषयी संसार में, (च)=और, (हविष्कृतम्) हविर्भिः क्रियते तम्= जो कि होम करने योग्य पदार्थों से प्रदीप्त किया जाता है, उसको (मधुजिह्वम्) मधुरगुणसम्पादिका जिह्वा ज्वाला यस्य तम्= जिसकी मधुर गुणों को सम्पादित करने वाली जिह्वा है, (प्रियम्)=उस प्रिय को, (नराशंसम्) नरैरभितः शस्यते प्रशस्यते तं सुखसमूहकारकम्=जिस सुख की मनुष्य प्रशंसा करते हैं, उसके प्रकाश करनेवाले, अग्निम्=अग्नि को, (उप) उपगतभोगद्योतने= समीप में भोग का प्रकाश करने के लिये ,  (ह्वये) उपतापये=प्रज्वलित करता हूँ॥३॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो भौतिक अग्नि इस संसार में होम के निमित्त युक्ति से ग्रहण किया हुआ प्राणियों की प्रसन्नता करानेवाला है। उस अग्नि की सात जीभें हैं अर्थात् (१) काली जो कि सफेद आदि रंग का प्रकाश करनेवाली है। (२) कराली- यह सहने में कठिन है। (३) मनोजवा- यह मन के समान वेगवाली है। (४) सुलोहिता-जिसका उत्तम रक्तवर्ण है। (५) सुधूम्रवर्णा-जिसका सुन्दर धुमलासा वर्ण है। (६) स्फुलिङ्गिनी-जिससे बहुत से चिनगे उठतें हों और (७) विश्वरूपी-जिसके सब रूप हैं। ये देवी अर्थात् अतिशय करके प्रकाशमान और लेलायमाना-प्रकाश से सब जगह जानेवाली सात प्रकार की जिह्वा हैं अर्थात् सब पदार्थों को ग्रहण करनेवाली होती हैं। इस उक्त सात प्रकार की अग्नि की जीभों से सब पदार्थों में उपकार लेना मनुष्यों को चाहिये॥३॥
     

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- मुण्डकोपनिषदि ( १ । २ । ४ ) के अनुसार अग्नि की सात जिह्वा हैं- “काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा । स्फुलिङ्गिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः” ॥ )

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्) मैं (अस्मिन्) इस प्रत्यक्ष (यज्ञे) यज्ञ के लिये (इह) भोग विषयी संसार में (च) और (हविष्कृतम्) जो कि होम करने योग्य पदार्थों से प्रदीप्त किया जाता है, उसको (मधुजिह्वम्) जिसकी मधुर गुणों को सम्पादित करने वाली जिह्वा है, (प्रियम्) उस प्रिय को (नराशंसम्) जिस सुख की मनुष्य प्रशंसा करते हैं, उसके प्रकाश करनेवाले (अग्निम्) अग्नि को (उप) समीप में भोग का प्रकाश करने के लिये  (ह्वये) प्रज्वलित करता हूँ॥३॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नराशंसम्) नरैरभितः शस्यते प्रशस्यते तं सुखसमूहकारकम्। नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निमिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति। (निरु०८.६) (इह) अस्मद्भोगविषये संसारे (प्रियम्) प्रीणति सर्वान् प्राणिनस्तम् (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (यज्ञे) यष्टव्ये (उप) उपगतभोगद्योतने (ह्वये) उपतापये (मधुजिह्वम्) मधुरगुणसम्पादिका जिह्वा ज्वाला यस्य तम्। जिह्वा जोहुवा। (निरु०५.२६) काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ इति मुण्डकोपनि० (मुण्डक १.२.४) (हविष्कृतम्) हविर्भिः क्रियते तम्। अत्र वर्त्तमानकाले कर्मण्यौणादिकः क्तः प्रत्ययः॥३॥
    विषयः- नरैः प्रशंसनीयस्य भौतिकाग्नेर्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- अहम् अस्मिन् यज्ञे इह संसारे च हविष्कृतं मधुजिह्वं प्रियं नराशंसमग्निमुपह्वय उपगम्योपतापये॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- योऽयं भौतिकोऽग्निरस्मिन् जगति युक्त्या सेवितः प्राणिनां प्रियकारी भवति, तस्याऽग्नेः सप्त जिह्वाः सन्ति। काली=शुक्लादिवर्णप्रकाशिका, कराली=दुःसहा, मनोजवा=मनोवद्वेगवती, सुलोहिता= शोभनो लोहितो रक्तो वर्णो यस्याः सा, सुधूम्रवर्णा=शोभनो धूम्रो वर्णो यस्याः सा, स्फुलिङ्गिनी=बहवः स्फुलिङ्गाः कणा विद्यन्ते यस्यां सा। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। विश्वरूपी=विश्वं सर्वं रूपं यस्याः सा। इति सप्तविधा। पुनः सा किं भूता देवी देदीप्यमाना, लेलायमाना लेलायति सर्वत्र प्रकाशयति या सा। अत्र लेला दीप्तावित्यस्मात् कण्ड्वादित्वाद्यक्। व्यत्ययेनात्मनेपदं च। सा जिह्वाऽर्थाज्जोहुवा पुनः पुनः सर्वान् पदार्थान् जुहोत्यादत्तेऽसाविति॥३॥

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    विषय

    हविष्कृत् मधुजिह्व

    पदार्थ

    १. (अस्मिन् यज्ञे) - गतमन्त्र में वर्णित ('मधुमान् यज्ञ') माधुर्य मेल के निमित्त (इह) - इस मानव - जीवन में प्रभु को (उपह्वये) - पुकारता है  , जो प्रभु (नराशंसम्) - मनुष्यों से शंसन के योग्य हैं । प्रभु का शंसन [गुणों का उच्चारण] ही हमारी उन्नति का कारण बनकर हमें 'नर' बनाता है  , [नॄ नये] यही हमें उन्नति - पथ पर आगे ले - चलता है  , 

    २. (प्रियम्) - [प्रीणाति] वे प्रभु हमें प्रीणित करनेवाले हैं । प्रभु की प्राप्ति ही एक अनिर्वचनीय आनन्द के द्वारा तृप्ति को देनेवाली है  , 

    ३. (मधुजिह्वम्) - वे प्रभु माधुर्यमय जिह्वावाले हैं  , अर्थात् हृदयस्थ होकर अत्यन्त मधुरता से निरन्तर सत्प्रेरणा दे रहे हैं  , 

    ४. और इस प्रेरणा के द्वारा (हविष्कृतम्) - हमारे जीवनों में हवि को करनेवाले हैं । प्रभु के मेल में हम उस आनन्द का अनुभव करते हैं जिसके सामने संसार के सब भोग अत्यन्त तुच्छ हो जाते हैं  , अतः इन भोगों के आकर्षण के समाप्त हो जाने से हमारा जीवन हविर्मय हो जाता है । उस समय हम स्वाद के लिए न खाकर क्षुधारूप रोग की निवृत्ति के लिए खा रहे होते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'नराशंस - प्रिय  , मधुजिह्व  , हविष्कृत्' प्रभु का आह्वान करें  , ताकि उस प्रभु से हमारा मेल हो सके । 

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन, पक्षान्तर में विद्वान् जठराग्नि, भौतिक अग्नि, आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (इह यज्ञे) इस यज्ञ में (प्रियम्) प्रिय, मनोहर, (नराशंसम्) सब नायक पुरुषों से स्तुति करने योग्य, ( मधु-जिह्वम् ) मधुर जिह्वा वाले, मधुर वाणी बोलने वाले, ( हविष्कृम् ) स्वीकार करने योग्य अन्न चरु के सम्पादन और ज्ञानोपदेश करने वाले विद्वान् को मैं ( उपह्वये ) आदर से बुलाता हूं । भौतिक अग्निपक्ष में—जिसके लिए हवि किया जाय, ऐसे सबसे स्तुति किये, मधुर ज्वाला वाले अग्नि को प्रज्वलित करूँ । भौतिक अग्नि की काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुर्लिंगिनी, विश्वरूपी ये ७ जिह्वा कही गई हैं। वे मधुर प्रकाश देनेवाली हैं। घृत से उत्पन्न जिह्वा होने भी अग्नि ‘मधु-जिह्व’ है । हवि को छिन्न-भिन्न करने से वह ‘हविष्कृत्’ है । अथवा नाना पात्र में रखे पदार्थों को क्रिया में प्रवृत्त कराने से ‘हविष्कृत्’ है । विद्वानों से उपदेश किये जाने योग्य होने से ‘नराशंस’ है । मनुष्यों से प्राणी अग्नि को उत्पन्न नहीं कर सकते । वह सब पदार्थों का साधक होने से ‘प्रिय’ है । अथवा ‘मधुजिह्वं’ अर्थात् मधु, जल है ज्वाला में जिसके ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो भौतिक अग्नी या जगात होमाच्या निमित्ताने युक्तीने ग्रहण केलेला असतो, तो प्राण्यांना प्रसन्न करणारा असतो. त्या अग्नीच्या सात जिव्हा असतात. काली - काळे-पांढरे रंग प्रदर्शित करणारी, कराली- सहन करण्यास कठीण, मनोजवा- मनाप्रमाणे वेगवान, सुलोहिता- जिचा उत्तम रक्तवर्ण आहे, सुधूम्रवर्णा- जिचा सुंदर धूम्रयुक्त वर्ण आहे, स्फुल्लिङ्गिनी - जिच्यातून स्फुल्लिंग बाहेर पडतात तसेच विश्वरूपी- जिचे सर्व रूप आहे ती देवी अर्थात अतिशय प्रकाशमान व लोलायमाना - प्रकाशाने सर्वत्र जाणारी अशा सात प्रकारच्या जिव्हा आहेत. अर्थात सर्व पदार्थांना ग्रहण करणाऱ्या आहेत. या वरील सात प्रकारच्या अग्नीच्या जिव्हांद्वारे माणसांनी सर्व पदार्थांत त्यांचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I invoke Agni, universally adorable lord of light and life, in my heart, and kindle the fire in this dear auspicious yajna with offerings of holy materials to be tasted and consumed by the honey flames of fire for the good of the people.

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    Subject of the mantra

    Now, in this mantra the praiseworthy virtues of men and qualities of physical qualities of fire have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham)=I, (asmin) =in this perceptible, (yajñe)=for the yajan to be performed, our=and, (iha)= in the world of enjoyment, (ca)=also, (haviṣkṛtam)=that which is illuminated with the substances offered in the yajna, to that, (madhujihvam)= the tongue that bestows the sweet qualities, (priyam) =to that affectionate, (narāśaṃsam)= delight which men praise, its promulgator, (agnim)=fire, (upa)= to manifest the enjoyment closely, (hvaye)= I ignite.

    English Translation (K.K.V.)

    For this perceptible yajan to be performed, in the world of enjoyment and which is illumined by the substances offered in the yajan, the one who has the tongue that bestows the sweet qualities, the one who adores the beloved, the fire that illumines him. I ignite it to manifest the enjoyment closely.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The material fire which is received in this world for the purpose of home (Yajan), is supposed to bring happiness to the living beings. That fire has seven tongues i.e. (1) kālī which is the light of white etc. (2) Karālī - It is difficult to bear. (3) Manojavā nojva- It is as quick as the mind. (4) Sulohitā - One which has excellent blood colour. (5) Sudhūmravarṇā - One which has a beautiful fuzzy complexion. (6) Sphuliṅginī – from which many sparks arise and (7) Viśvarūpī – which has all forms. These deities are the seven types of tongues that go everywhere through light, that is, they are the receivers of all things. Human beings should take favour of all things with the tongues of these seven types of fire.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    According to Mundakopanishadi (1. 2. 4) Agni has seven tongues- Kālī Karālī, Manojavā, Sulohitā, Sudhūmravarṇā, Sphuliṅginī and Viśvarūpī.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Agni which is admired by all are told in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I kindle the fire in this Yajna (non-violent sacrifice) which is beloved and beneficent to the people, the sweet tongued(which makes things sweet) and in which oblations are put.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The material fire when properly or becomes beloved of or dear to the people. various ways. The seven flames of the fire mentioned in the methodically used It is beneficial in Mundakopanishat are काली कराली च मनोजवा च, सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा | स्फुलिंगिनी विश्वरूपी च देवी, लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥ (Mundak. 1.2.4)

    Translator's Notes

    Besides the above meaning given by Rishi Dayananda, the inner or spiritual meaning of the Mantra, when by Agni, God is taken as clearly stated in the first Mantra. is as follows I invoke in this non-violent sacrifice, God who is extolled by men, the Beloved, the sweet-tongued (giver of the knowledge of the sweet Vedas which are full of sweetness) and the most Liberal Donor. नरैः आशंस्यते स्तूयते इति नराशंसः (मधु जिह्वम् ) मधु ज्ञानम् मन-अवगमे इति धातोः (मनेघेश्छन्दसि उणादि० २.११७) ज्ञानमयी जिह्वा यस्य सः अथवा माधुर्ययुक्तवेदज्ञानदायकम् ।।

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