ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - भुरिग्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मरु॑तः॒ पिब॑त ऋ॒तुना॑ पो॒त्राद्य॒ज्ञं पु॑नीतन। यू॒यं हि ष्ठा सु॑दानवः॥
स्वर सहित पद पाठमरु॑तः । पिब॑त । ऋ॒तुना॑ । पो॒त्रात् । य॒ज्ञम् । पू॒नी॒त॒न॒ । यू॒यम् । हि । स्थ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन। यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥
स्वर रहित पद पाठमरुतः। पिबत। ऋतुना। पोत्रात्। यज्ञम्। पुनीतन। यूयम्। हि। स्थ। सुऽदानवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ऋतुभिः सह मरुतः पदार्थानाकर्षन्ति पुनन्ति चेत्युपदिश्यते।
अन्वयः
इमे मरुत ऋतुना सर्वान् पिबत पिबन्ति, त एव पोत्राद्यज्ञं पुनीतन पुनन्ति हि यतो यूयमेते सुदानवः स्थ सन्ति तस्माद्युक्त्या योजिता कार्य्यसाधका भवन्तीति॥२॥
पदार्थः
(मरुतः) वायवः। मृग्रोरुतिः। (उणा०१.९४) इति ‘मृङ्’धातोरुतिः प्रत्ययः। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन गमनागमनक्रियाप्रापका वायवो गृह्यन्ते। (पिबत) पिबन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (पोत्रात्) पुनाति येन गुणेन तस्मात्। अत्र सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। (उणा०४.१५९) इति पूञ्धातोः ष्ट्रन् प्रत्ययः स्वरव्यत्ययश्च। (यज्ञम्) त्रिविधं पूर्वोक्तम् (पुनीतन) पुनन्ति पवित्रीकुर्वन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् तकारस्य तनबादेशश्च। (यूयम्) एते (हि) यतः (स्थ) सन्ति। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट्, अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घश्च। (सुदानवः) सुष्ठु दानहेतवः। दाभाभ्यां नुः। (उणा०३.३१) इति सूत्रेण नुः प्रत्ययः॥२॥
भावार्थः
ऋतुपर्य्यायेण वायुष्वपि गुणा यथाक्रममुत्पद्यन्ते तद्विशिष्टाः सर्वेषां त्रसरेण्वादीनां चेष्टानां च हेतवः सन्त्यग्नौ सुगन्ध्यादिहोमद्वारा पवित्रीभूत्वा सर्वान् सुखयुक्तान् कृत्वा त एव दानादानहेतवो भवन्ति॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ऋतुओं के साथ पवन आदि पदार्थ सब को खींचते और पवित्र करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
ये (मरुतः) पवन (ऋतुना) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ सब रसों को (पिबत) पीते हैं, वे ही (पोत्रात्) अपने पवित्रकारक गुण से (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ को (पुनीतन) पवित्र करते हैं, तथा (हि) जिस कारण (यूयम्) वे (सुदानवः) पदार्थों के अच्छी प्रकार दिलानेवाले (स्थ) हैं, इससे वे युक्ति के साथ क्रियाओं में युक्त हुए कार्य्यों को सिद्ध करते हैं॥२॥
भावार्थ
ऋतुओं के अनुक्रम से पवनों में भी यथायोग्य गुण उत्पन्न होते हैं, इसीसे वे त्रसरेणु आदि पदार्थों वा क्रियाओं के हेतु होते हैं तथा अग्नि के बीच में सुगन्धित पदार्थों के होमद्वारा वे पवित्र होकर प्राणीमात्र को सुखसंयुक्त करते हैं और वे ही पदार्थों के देने-लेने में हेतु होते हैं॥२॥
विषय
मरुतों का सोमपान
पदार्थ
१. गतमन्त्र में (ऋतुना) - समय रहते सोमपान का उल्लेख था । वह प्रस्तुत मन्त्र में भी है । इसका अभिप्राय यह है कि सोम का उत्पादन जिस अवस्था में अत्यधिक होता है , उस यौवन में ही इसकी रक्षा की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है । जीवन के चरमकाल में तो वैसे ही कुछ शान्ति हो जाती है , अतः हमें सोपान का विचार 'प्रातः व माध्यन्दिनसवन' बाल्य [प्रथमावस्था] व यौवन में पूर्णरूप से करना चाहिए 'प्रथमे वयसि यः शान्तः स शान्त इत्युच्यते । धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते' ॥ प्रथम अवस्था में जो शान्त हुआ , शान्त तो वही हुआ , धातुओं के क्षीण होने पर तो शान्ति किसे नहीं हो जाती? अतः कहते हैं कि (मरुतः) - हे प्राणो! (ऋतुना) - समय रहते (सोमम्) - सोम को (पिबत) - पीने का ध्यान करो । उत्पन्न सोमकणों को शरीर में ही सुरक्षित रखने के लिए प्राणसाधना अत्यन्त उपयोगी है । प्राणसाधना के द्वारा ये वीर्यकण ऊर्ध्वगतिवाले होकर शरीर में ही व्याप्त हो जाते हैं , यही मरुतों का सोमपान है ।
२. हे मरुतो ! यह सोम शरीर को नीरोग और मन को निर्मल बनाकर जीवन को पवित्र करनेवाला है । इस (पोत्रात्) - पवित्र करनेवाले सोम से (यज्ञम्) - हमारे जीवन - यज्ञ को (पुनीतन) - तुम पवित्र कर दो । प्राणसाधना से सोम शरीर में व्याप्त होगा और जीवन को पवित्र कर देगा ।
३. इस प्रकार हे मरुतो ! (यूयम्) - तुम (हि) - निश्चय से (सुदानवः) - [स्थ] उत्तमता से बुराइयों के काटनेवाले [दाप् लवणे] हो ।
४. पिछले मन्त्र में 'इन्द्र' शब्द के द्वारा जितेन्द्रियता का संकेत किया गया था , प्रस्तुत मन्त्र में 'मरुतः' से प्राणसाधना का निर्देश है । सोम के शरीर में ही व्यापन के लिए जितेन्द्रियता व प्राणसाधना दोनों ही आवश्यक हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम द्वारा हम सोम को शरीर में ही व्याप्त करें । यह सुरक्षित सोम हमारे जीवनों को पवित्र करेगा ।
विषय
अब ऋतुओं के साथ पवन आदि पदार्थ सब को खींचते और पवित्र करते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
इमे मरुत ऋतुना सर्वान् पिबत (पिबन्ति), त एव पोत्रात् यज्ञं पुनीतन (पुनन्ति) हि यतः यूयं एते सुदानवः स्थ सन्ति तस्मात् युक्त्या योजिता कार्य्यसाधका भवन्ति इति॥२॥
पदार्थ
(इमे)=ये, (मरुत) वायवः=पवन, (ऋतुना) ऋतुभिः सह=ऋतुओं के साथ, (सर्वान)=सब, (पिबत-पिबन्ति)=रसों को पीते हैं, (ते)=वे, (एव)=ही, (पोत्रत्) पुनाति येन गुणेन तस्मात्=जिस गुण से पवित्र करते हैं, उससे, (यज्ञम्)=यज्ञ को, (पुनीतन-पुनन्ति)=पवित्र करते हैं, (हि-यतः)=इसलिये, (यूयम्)=तुम सब, (एते)=इन, (सुदानवः) सुष्ठु दानहेतवः=पदार्थों को अच्छी तरह से दिलाने वाले, (स्थ)=हो, (तस्मात्)=उससे, (युक्त्या) योजिता=युक्त करते हुए, (कार्य्यसाधका)=कार्य को सम्पादित करने वाले, (भवन्ति)=होते हैं॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
ऋतुओं के अनुक्रम से पवनों में भी यथा योग्य गुण उत्पन्न होते हैं, इसीसे वे त्रसरेणु आदि पदार्थों या क्रियाओं के हेतु होते हैं, अग्नि के बीच में सुगन्धित पदार्थों के होम द्वारा वे पवित्र होकर प्राणीमात्र को सुख से युक्त करते हैं और वे ही पदार्थों के देने-लेने में हेतु होते हैं॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी-त्रसरेणु- सूर्य-किरण में गतिमान धूल का कण या परमाणु (सबसे कम कोटि का आदर्श भार माना जाता है।)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(इमे) ये (मरुत) पवन (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (सर्वान) सब (पिबत) रसों को पीते हैं। (ते) वे (एव) ही (पोत्रत्) जिस गुण से पवित्र करते हैं, [उससे] (यज्ञम्) यज्ञ को (पुनीतन) पवित्र करते हैं। (हि) इसलिये (यूयम्) तुम सब (एते) इन (सुदानवः) पदार्थों को अच्छी तरह से दिलाने वाले (स्थ) हो। (तस्मात्) उससे (युक्त्या) युक्त करते हुए (कार्य्यसाधका) वे कार्य को सम्पादित करने वाले (भवन्ति) होते हैं॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मरुतः) वायवः। मृग्रोरुतिः। (उणा०१.९४) इति 'मृङ्'धातोरुतिः प्रत्ययः। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन गमनागमनक्रियाप्रापका वायवो गृह्यन्ते। (पिबत) पिबन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (पोत्रात्) पुनाति येन गुणेन तस्मात्। अत्र सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। (उणा०४.१५९) इति पूञ्धातोः ष्ट्रन् प्रत्ययः स्वरव्यत्ययश्च। (यज्ञम्) त्रिविधं पूर्वोक्तम् (पुनीतन) पुनन्ति पवित्रीकुर्वन्ति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् तकारस्य तनबादेशश्च। (यूयम्) एते (हि) यतः (स्थ) सन्ति। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट्, अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घश्च। (सुदानवः) सुष्ठु दानहेतवः। दाभाभ्यां नुः। (उणा०३.३१) इति सूत्रेण नुः प्रत्ययः॥२॥
विषयः- अथ ऋतुभिः सह मरुतः पदार्थानाकर्षन्ति पुनन्ति चेत्युपदिश्यते।
अन्वयः- इमे मरुत ऋतुना सर्वान् पिबत पिबन्ति, त एव पोत्राद्यज्ञं पुनीतन पुनन्ति हि यतो यूयमेते सुदानवः स्थ सन्ति तस्माद्युक्त्या योजिता कार्य्यसाधका भवन्तीति॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ऋतुपर्य्यायेण वायुष्वपि गुणा यथाक्रममुत्पद्यन्ते तद्विशिष्टाः सर्वेषां त्रसरेण्वादीनां चेष्टानां च हेतवः सन्त्यग्नौ सुगन्ध्यादिहोमद्वारा पवित्रीभूत्वा सर्वान् सुखयुक्तान् कृत्वा त एव दानादानहेतवो भवन्ति॥२॥
विषय
वायुओं के दृष्टान्त से वीरों, विद्वानों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) मरुत्गण ! विद्वान् जनो ! जिस प्रकार ( मरुतः ऋतुना पिबन्ति ) वायुगण ऋतुओं के अनुसार जल को सूक्ष्म रूप से पान करते हैं और सूक्ष्मरूप से अपने भीतर धारण करते हैं और (पोत्रात्) अपने पवित्र करने के सामर्थ्य से ( यज्ञं पुनन्ति ) यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ को पवित्र करते हैं और वे ( सुदानवः ) उत्तम सुख और वृष्टि जल, कृषि फल को प्रदान करते हैं, उसी प्रकार आप विद्वान् जन भी ऋतुना, ज्ञान और बल और प्राण के सामर्थ्य से (पिबत) अन्न ओषधि आदि के रस का पान करो। और (पोत्रात् ) पवित्र करने वाले परमेश्वर, प्राण या जल के सत्यज्ञान और सामर्थ्य से ( यज्ञं पुनीतन ) अपने आत्मा को, और शरीर को पवित्र करो । हे विद्वान् जनो ! ( हि ) क्योंकि आप लोग ( सुदानवः) उत्तम कल्याणकारी ज्ञान और ऐश्वर्य का दान करने हारे ( स्थ ) हो । प्राणों के पक्ष में—हे ( मरुतः ) प्राणगण ( ऋतुना ) मुख्य प्राण या ओंकार के बल से आत्मा को पवित्र करो । तुम उत्तम बलप्रद हो । सैनिकों के पक्ष में—हे शत्रुमारक वीर पुरुषो ! तुम सेनापति के बल से राष्ट्र का उपभोग करो, पालन करो, ब्राह्मण के बल से यज्ञ रूप राष्ट्र को स्वच्छ करो, तुम ( सुदानवः ) उत्तम रक्षाकारी हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ऋतूंच्या अनुक्रमाने वायूमध्येही यथायोग्य गुण उत्पन्न होतात. त्यामुळे ते त्रसरेणू इत्यादी पदार्थांचे किंवा क्रियेचे कारण असतात, तसेच अग्नीमध्ये सुगंधित पदार्थ टाकल्याने ते पवित्र बनून प्राणिमात्राला सुखी करतात व तेच पदार्थांच्या देण्याघेण्याचे कारण असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, pure and purifying powers of the winds, drink the sap of nature according to the seasons, purify the yajna of nature according to the seasons by your powers of purity. Stay you all in your element, noble generous givers.
Subject of the mantra
Now, with the ongoing seasons air et cetera substances extract all things and purify them, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ime)=these, (maruta)=segments of the air, (ṛtunā)=with ongoing seasons, (sarvāna)=all, (pibata)= suck juices, (te)= They, (eva)=only, (potrat)= by the virtues sanctify, (yajñam)= the yajan, (punītana)=sanctify, (hi)=Therefore, (yūyam)=you all, (ete)=these, (sudānavaḥ)= facilitators of the substances well, (stha)= are, (tasmāt)= with that, (yuktyā)=containing it, (kāryyasādhakā)=accomplishing the task, (bhavanti)=are.
English Translation (K.K.V.)
These segments of the air suck all juices with ongoing seasons. By the virtues, they only sanctify the yajan. Therefore, you all are facilitators of these substances well. Containing it, they are the ones to accomplish the task.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Due to the sequence of seasons, suitable qualities are produced in the winds, that is why they are for substances or actions like Trasareṇu etc., that becomes pure by the home of aromatic substances in the midst of fire and makes all living beings full of happiness and those are the cause of giving and receiving of things.
TRANSLATOR’S NOTES-
Trasareṇu:- The mote or atom of dust moving in a sun-beam. (considered as an ideal weight either of the lowest denomination.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the airs draw the articles with seasons and purify them is taught in the 2nd verse.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
These airs take all the sap of juice of the herbs and the plants etc. They by their purifying properties, purify the Yajna, because they are givers of happiness and health. When utilized properly, they accomplish various acts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मरुतः) वायवः मृग्नोरुति: (उणा० १९४ ) इति मृड़धातोः उतिः प्रत्ययः मरुत इति पदनामसु पठितम् (निघ० ५.५ ) अनेन गमनागमनक्रिया वायवो गृह्यन्ते (सुदानव:) सुष्ठु दानहेतवः दाभाभ्यां नुः (उणा० ३.११) To make clear Rishi Dayananda has taken many verbs in changed form. Had he not done so, ordinary men would have been misled: Hence the necessity of changing forms and gender etc. This should always be borne in mind.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
According to seasons, in airs are also attributes which are the causes of various movements of other particles. When fragrant oblations are put into the fire which are full of ghee etc. they purify them and make everyone happy.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Manuj Sangwan
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal