ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यु॒वं दक्षं॑ धृतव्रत॒ मित्रा॑वरुण दू॒ळभ॑म्। ऋ॒तुना॑ य॒ज्ञमा॑शाथे॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । दक्ष॑म् । धृ॒त॒ऽव्र॒ता॒ । मित्रा॑वरुणा । दुः॒ऽदभ॑म् । ऋ॒तुना॑ । य॒ज्ञम् । आ॒शा॒थे॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम्। ऋतुना यज्ञमाशाथे॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। दक्षम्। धृतऽव्रता। मित्रावरुणा। दुःऽदभम्। ऋतुना। यज्ञम्। आशाथे इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
इदानीं वायुविशेषौ प्राणोदानावृतुना सह किं कुरुत इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
युवमिमौ धृतव्रतौ मित्रावरुणावृतुना दूडभं दक्षं यज्ञमाशाथे व्याप्तवन्तौ स्तः॥६॥
पदार्थः
(युवम्) ताविमौ। अत्र व्यत्ययः प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्। (अष्टा०७.२.८८) इति भाषायामाकारस्य विधानादत्राकारादेशो न। (दक्षम्) बलम् (धृतव्रता) धृतानि व्रतानि बलानि याभ्यां तौ (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च तौ प्राणोदानौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेराकारादेशो व्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (दूडभम्) शत्रुभिर्दुःखेन दम्भितुमर्हम्। दुरो दाशनाशदभध्येषूत्वं वक्तव्यमुत्तरपदादेश्च ष्टुत्वम्। (अष्टा०६.३.१०९) इति वार्तिकेन दुर इत्यस्य रेफस्योकारः सवर्णदीर्घादेशो धातोर्दकारस्य डकारश्च, खलन्तं रूपम्। सायणाचार्य्येण दूडभपदस्य ‘दह’ धातो रूपमिति साधितं तन्महाभाष्यकारव्याख्यानविरुद्धत्वादशुद्धमेव। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधं क्रियाजन्यम् (आशाथे) व्याप्तवन्तौ स्तः। अत्र व्यत्ययः॥६॥
भावार्थः
सर्वमित्रो बाह्यगतिः प्राण आभ्यन्तरगतिर्बलसाधको वरुण उदानः, एताभ्यामेव प्राणिभिः सर्वजगदाख्यो यज्ञो बलं चतुर्योगेन धृत्वा व्याप्यते, येन सर्वे व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
अब वायुविशेष प्राण वा उदान ऋतुओं के साथ क्या-क्या प्रकाश करते हैं, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
(युवम्) ये (धृतव्रतौ) बलों को धारण करनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और अपान (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (दूडभम्) जो कि शत्रुओं को दुःख के साथ धर्षण कराने योग्य (दक्षम्) बल तथा (यज्ञम्) उक्त तीन प्रकार के यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं॥६॥
भावार्थ
जो सबका मित्र बाहर आनेवाला प्राण तथा शरीर के भीतर रहनेवाला उदान है, इन्हीं से प्राणी ऋतुओं के साथ सब संसाररूपी यज्ञ और बल को धारण करके व्याप्त होते हैं, जिससे सब व्यवहार सिद्ध होते हैं॥६॥
विषय
यौवन में यज्ञ
पदार्थ
१. गतमन्त्र में यह स्पष्ट था कि हम यौवन में ही संयमी जीवन बनाने का प्रयास करेंगे तो इस मानव - जीवन में प्रभु की अविच्छिन्न मित्रता को प्राप्त कर सकेंगे । इसी प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हमें यज्ञों को बूढ़ा होकर ही नहीं करना - धर्म बुढ़ापे के लिए नहीं है , अपितु यौवन में ही हमें जीवन को यज्ञमय बनाना है । हे (धृतव्रता) - धारण किया है व्रत जिन्होंने ऐसे (मित्रावरुणा) - मित्र और वरुण देवो - स्नेह और निर्द्वेषता के दिव्य गुणो! (युवम्) - आप दोनों (ऋतुना) - समय से , अर्थात् समय बीतने से पूर्व ही (यज्ञम्) - यज्ञ को (आशाथे) - प्राप्त करते हो । जो यज्ञ (दक्षम्) - बल की वृद्धि करनेवाला है और (दूळभम्) - हिंसित होनेवाला नहीं है ।
२. यहाँ मन्त्रार्थ में निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं -
[क] जिन्होंने व्रत धारण किया है ऐसे मित्रावरुण हमें जीवन में यज्ञ को प्राप्त करानेवाले हों । वस्तुतः मनुष्य का सर्वमहान् व्रत यही होना चाहिए कि "मैं स्नेह से चलूँगा' [मित्र] , "किसी से द्वेष न करूंगा' [वरुण] । यह व्रत हमारे जीवन में शक्ति को बढ़ानेवाला होता है [दक्षम्] और यह व्रत हमें हिंसा से बचानेवाला है [दूळभम्] । [ख] यदि हम यौवन में ही 'स्नेह व निषता' के व्रत को धारण करते हैं तो यह हमारा उचित समय पर होनेवाला यज्ञ हो जाता है । वृद्धावस्था में जाकर हम निषता व स्नेह का पाठ पढ़े तो क्या पढ़े? जीवन तो अयज्ञिय ही बीत गया ।
भावार्थ
भावार्थ - हम यौवन में ही स्नेह व निर्द्वेषता का व्रत धारण करें । यह हमारे बल का वर्धक व हमें हिंसित न होने देनेवाला होगा ।
विषय
अब वायुविशेष प्राण वा उदान ऋतुओं के साथ क्या-क्या प्रकाश करते हैं, इस बात का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
युवं इमौ धृतव्रतः मित्रावरुणा वृतुना दूडभं दक्षं यज्ञम् आशाथे व्याप्तवन्तौ स्तः॥६॥
पदार्थ
(युवम्) ताविमौ=ये, (धृतव्रतौ) धृतानि व्रतानि बलानि याभ्यां तौ =बल को धारण करने वाले दोनों, (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च तौ प्राणोदानौ=प्राण और अपान दोनों, (ऋतुना) ऋतुभिः सह=ऋतुओं के साथ, (दूडभम्) शत्रुभिर्दुःखेन दम्भितुमर्हम्=जो शत्रुओं को दुःख के साथ धर्षण कराने योग्य, (दक्षम्) बलम्=बल, (यज्ञम) पूर्वोक्त त्रिविधं क्रियाजन्यम्=पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञों को, {आशाथे-(व्याप्तवन्तौ स्तः)}=व्याप्त होते हैं ॥६॥।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो सबके मित्र बाहर आनेवाले प्राण तथा शरीर के भीतर रहनेवाले उदान हैं, इन्हीं से प्राणी ऋतुओं के साथ सब संसाररूपी यज्ञ और बल को धारण करके व्याप्त होते हैं। जिससे सब व्यवहार सिद्ध होते हैं॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(युवम्) ये (धृतव्रतौ) बल को धारण करने वाले (मित्रावरुणा) प्राण और अपान दोनों, (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (दूडभम्) जो शत्रुओं को दुःख के साथ धर्षण कराने योग्य हैं। (दक्षम्) बल और (यज्ञम) पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञों को (आशाथे) व्याप्त होते हैं ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युवम्) ताविमौ। अत्र व्यत्ययः प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम्। (अष्टा०७.२.८८) इति भाषायामाकारस्य विधानादत्राकारादेशो न। (दक्षम्) बलम् (धृतव्रता) धृतानि व्रतानि बलानि याभ्यां तौ (मित्रावरुणा) मित्रश्च वरुणश्च तौ प्राणोदानौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेराकारादेशो व्यत्ययेन ह्रस्वत्वं च। (दूडभम्) शत्रुभिर्दुःखेन दम्भितुमर्हम्। दुरो दाशनाशदभध्येषूत्वं वक्तव्यमुत्तरपदादेश्च ष्टुत्वम्। (अष्टा०६.३.१०९) इति वार्तिकेन दुर इत्यस्य रेफस्योकारः सवर्णदीर्घादेशो धातोर्दकारस्य डकारश्च, खलन्तं रूपम्। सायणाचार्य्येण दूडभपदस्य 'दह' धातो रूपमिति साधितं तन्महाभाष्यकारव्याख्यानविरुद्धत्वादशुद्धमेव। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधं क्रियाजन्यम् (आशाथे) व्याप्तवन्तौ स्तः। अत्र व्यत्ययः॥६॥
विषयः- इदानीं वायुविशेषौ प्राणोदानावृतुना सह किं कुरुत इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- युवमिमौ धृतव्रतौ मित्रावरुणावृतुना दूडभं दक्षं यज्ञमाशाथे व्याप्तवन्तौ स्तः॥६॥
महर्षिकृत (भावार्थ)- सर्वमित्रो बाह्यगतिः प्राण आभ्यन्तरगतिर्बलसाधको वरुण उदानः, एताभ्यामेव प्राणिभिः सर्वजगदाख्यो यज्ञो बलं चतुर्योगेन धृत्वा व्याप्यते, येन सर्वे व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥६॥
विषय
गृहस्थों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( धृतव्रता ) व्रतों, नियमों को धारण करने और उनको स्थिर रखने वाले ( मित्रावरुणा ) मित्र सब के स्नेही, दुष्टों के वारक तुम दोनों (ऋतुना) सूर्य और चन्द्र जिस प्रकार दोनों ऋतु के अनुसार संवत्सर रूप यज्ञ को धारण करते हैं और प्राण और अपान दोनों गति बल से जिस प्रकार देह को धारण करते हैं उसी प्रकार (युवं) तुम दोनों राजा और मन्त्री, गृह में गृहस्थ और गृहपत्नी ( ऋतुना ) सत्य धारक बल से ( दूळद्वभम् ) शत्रुओं से नाश न होने वाले ( दक्षं ) बल को और ( यज्ञम् ) परस्पर संग से उत्पन्न प्रजापालन व्यवहार को ( आशाथे ) व्याप्त होकर रहो । उस पर वश रक्खो । इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सर्वांचा मित्र असून बाहेर येणारा प्राण व शरीराच्या आत राहणारा उदान असतो, त्यांच्यामुळेच प्राणी ऋतूंबरोबर सर्व संसाररूपी यज्ञ व बल यांना धारण करून व्याप्त होतात, ज्यामुळे सर्व व्यवहार सिद्ध होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Mitra and Varuna, vital energies of prana and udana, both versatile, formidable and committed to life, pervade and endow yajna with power and vitality according to the seasons.
Subject of the mantra
How breath-inhale (Prana) and breath-exhale (Udana) interact with seasons, has been preached in this mantra now.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yuvam)=these two, (dhṛtavratau)=holding power, (mitrāvaruṇā)=inhale (Prᾱņᾱ) and exhale (Udᾱna) of breath, (ṛtunā)=together with seasons, (dūḍabham)=capable of getting struggle of enemies against sorrows, (dakṣam)=power, [aura]=and, (yajñama)=afore said three types of yajnas, (āśāthe)=pervade, staȟ=helping verb.
English Translation (K.K.V.)
These two holding power, inhale and exhale of breath together with seasons are capable of getting struggle of enemies against sorrows, pervade in powers and afore said three types of yajans.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The friends of all who are exhaling breath coming out are ‘prāṇa’ and the residing within the body are ‘udāna’, from whom the living beings pervade with the seasons by imbibing all the worldly yajans and strengths. By that all process are accomplished.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do Prana and Udana (The vital airs) do with seasons is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
These two (Prana and Udana) which are upholders of strength, pervade this mighty Yajna (of the bodily functions) with every season.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Prana is the friend of all which has its movement outwards and Udana is strengthening, moving inwards. The whole Yajna in the form of this universe is pervaded by these two, so that all works are accomplished.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted मित्रावरुणौ as प्राणोदानौ for which the following authorities may be quoted- प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ (शतपथ० १.८.३.१२ ॥ ३.६.१. १६ ॥ ५.३. ५. ३४ ॥ ९.५.१.५६) प्राणोदानौ मित्रावरुणौ ( शत० ३.२.२.१३ ) प्राणो मित्रम् ॥ जैमिनीयोपनिषदब्राह्मणे ३.३.६॥ Thus it is clear that Rishi Dayananda's interpretation of मित्रावरुणौ is well authenticated and it is not his own imagination.
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