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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - द्रविणोदाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    द्र॒वि॒णो॒दा द॑दातु नो॒ वसू॑नि॒ यानि॑ शृण्वि॒रे। दे॒वेषु॒ ता व॑नामहे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒वि॒णः॒ऽदाः । द॒दा॒तु॒ । नः॒ । वसू॑नि । यानि॑ । शृ॒ण्वि॒रे । दे॒वेषु॑ । ता । व॒ना॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे। देवेषु ता वनामहे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्रविणःऽदाः। ददातु। नः। वसूनि। यानि। शृण्विरे। देवेषु। ता। वनामहे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    स एव सर्वेषां पदार्थानां प्रदातेत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अस्माभिर्यानि देवेषु दिव्येषु कर्म्मसु राज्येषु वा शिल्पविद्यासिद्धेषु विमानादिषु सत्सु वसूनि शृण्विरे श्रूयन्ते ता तानि वयं वनामह एतानि च द्रविणोदा जगदीश्वरो नोऽस्मभ्यं ददातु भौतिकश्च ददाति॥८॥

    पदार्थः

    (द्रविणोदाः) सुष्ठूपासितो जगदीश्वरः सम्यग्योजितो भौतिको वा (ददातु) ददाति वा। अत्र पक्षे लडर्थे लोट्। (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यप्राप्याण्युत्तमानि धनानि (यानि) परोक्षाणि (शृण्विरे) श्रूयन्ते। अत्र ‘श्रु’ धातोः छन्दसि लुङ्लङ्लिट इति लडर्थे लिट्, छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकत्वेन श्नुविकरण आर्द्धधातुकत्वाद्यगभावः, विकरणव्यवहितत्वाद् द्वित्वं च न भवति। (देवेषु) विद्वत्सु दिव्येषु सूर्य्यादिपदार्थेषु वा (ता) तानि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः। (वनामहे) सम्भजामहे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्॥८॥

    भावार्थः

    परमेश्वरणास्मिन् जगति प्राणिभ्यो ये पदार्था दत्तास्तेभ्य उपकारे संयोजितेभ्यो यावन्ति प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाणि वस्तुजातानि वर्त्तन्ते, तानि देवेषु विद्वत्सु स्थित्वैव सुखप्रदानि भवन्तीति॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त अग्नि ही सब पदार्थों का देने वा उनका दिलानेवाला है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हम लोगों के (यानि) जिन (देवेषु) विद्वान् वा दिव्य सूर्य्य आदि अर्थात् शिल्पविद्या से सिद्ध विमान आदि पदार्थों में (वसूनि) जो विद्या, चक्रवर्त्ति राज्य और प्राप्त होने योग्य उत्तम धन (शृण्विरे) सुनने में आते तथा हम लोग (वनामहे) जिनका सेवन करते हैं, (ता) उनको (द्रविणोदाः) जगदीश्वर (नः) हम लोगों के लिये (ददातु) देवे तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ भौतिक अग्नि भी देता है॥८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने इस संसार में जीवों के लिये जो पदार्थ उत्पन्न किये हैं, उपकार में संयुक्त किये हैं, उन पदार्थों से जितने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष वस्तु से सुख उत्पन्न होते हैं, वे विद्वानों ही के सङ्ग से सुख देनेवाले होते हैं॥८॥

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    विषय

    देवनिमित्त धन

    पदार्थ

    १. (द्रविणोदाः) - सब धनों को देनेवाले प्रभु (नः) - हमें (वसूनि ददातु) - उन धनों को दें (यानि श्रृण्विरे) - जो खूब सुने जाते हैं , अर्थात् जिस धन को हम खूब दान के रूप में देते हैं और इस प्रकार यश को प्राप्त करते हैं । 

    २. (ता) - उन धनों को हम (देवेषु) - देवों के निमित्त

    (वनामहे) - सेवित करते हैं , अर्थात् इन धनों को भोगविलास में व्यय न करके विद्वानों को लोकहित के कार्यों के लिए देते हैं तथा यज्ञादि द्वारा वायु आदि देवों की शुद्धि के लिए उनका विनियोग करते हैं । इन धनों को दान में देकर , लोभ को जीतने से , हम व्यसनों के मूलभूत इस लोभ को नष्ट करके दिव्यगुणों को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार ये धन हमारे यश - ही - यश का कारण बनते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें वे धन दें जो कि दानरूप में दिये जाकर हमारे यश का कारण बनें और हमारे दिव्य गुणों का वर्धन करनेवाले हों । 

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    विषय

    उक्त अग्नि ही सब पदार्थों का देने वा उनका दिलानेवाला है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अस्माभिः यानि देवेषु दिव्येषु कर्म्मसु राज्येषु वा शिल्पविद्यासिद्धेषु विमानादिषु सत्सु वसूनि शृण्विरे श्रूयन्ते ता तानि वयं वनामह एतानि च द्रविणोदा जगदीश्वरः नः-अस्मभ्यं ददातु भौतिकः  च ददाति॥८॥

    पदार्थ

    (अस्माभिः)=हम लोगों द्वारा  (यानि) जिन अपरिचित लोगों के  अर्थात् (देवेषु-दिव्येषु) विद्वान्, दिव्य और सूर्य आदि पदार्थों से (कर्म्मसु)=कर्मों में, (राज्येषु)=राज्यों में, (वा)=अथवा,  (शिल्पविद्यासिद्धेषु)= शिल्पविद्या को सिद्ध किये हुए लोगों में, (विमानादिषु)=विमान आदि में, (सत्सु)=जल में, (वसूनि) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यप्राप्याण्युत्तमानि धनानि=विद्या चक्रवर्त्ती राज्य की प्राप्ति आदि उत्तम धन, (शृण्विरे) श्रूयन्ते=सुनते हैं, (ता-तानि)=उनको, (वयम्)=हम, (वनामहे) सम्भजामहे=जिनका सेवन करते हैं, (एतानि)=ये, (च)=और,  (द्रविणोदाः) सुष्ठुपासितो जगदीश्वरः साम्यग्योजितो भौतिको वा=अच्छी तरह उपासनीय परमेश्वर या अच्छी तरह प्रयोग किये लाने योग्य भौतिक अग्नि, (नः-अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (भौतिकः)=भौतिक अग्नि, (च)=भी, ददातु (ददाति)=दे॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    परमेश्वर ने इस संसार में जीवों के लिये जो पदार्थ उत्पन्न किये हैं और उपकार में संयुक्त किये हैं, उन पदार्थों से जितने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष वस्तुओं  से सुख उत्पन्न होते हैं, वे विद्वानों ही के सङ्ग से सुख देनेवाले होते हैं॥८॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    प्रथम परमेश्वर के पक्ष मे-
    (अस्माभिः) हम लोगों द्वारा (यानि) जिन अपरिचित लोगों के  अर्थात् (देवेषु) विद्वान्, दिव्य और सूर्य आदि पदार्थों से (कर्म्मसु) कर्मों में, (राज्येषु) राज्यों में (वा) अथवा  (शिल्पविद्यासिद्धेषु)  शिल्पविद्या को सिद्ध किये हुए लोगों में, (विमानादिषु) विमान आदि में, (सत्सु) जल में (वसूनि) विद्या चक्रवर्त्ती राज्य की प्राप्ति आदि उत्तम धन (शृण्विरे)  सुनते आये हैं (ता) उनको (वयम्) हम (वनामहे) जिनका सेवन करते हैं (एतानि) ये (च) और  (द्रविणोदाः) अच्छी तरह उपासनीय परमेश्वर (नः) हमारे लिये (च) भी   (ददातु) दे॥८॥ 
    द्वितीय भौतिक अग्नि  के पक्ष मे-
     (अस्माभिः) हम लोगों द्वारा (यानि) जिन अपरिचित लोगों के  अर्थात् (देवेषु) विद्वान्, दिव्य और सूर्य आदि पदार्थों से (कर्म्मसु) कर्मों में (राज्येषु) राज्यों में (वा) अथवा  (शिल्पविद्यासिद्धेषु)  शिल्पविद्या को सिद्ध किये हुए लोगों में (विमानादिषु) विमान आदि में (सत्सु) जल में (वसूनि) विद्या चक्रवर्त्ती राज्य की प्राप्ति आदि उत्तम धन (शृण्विरे)  सुनते हैं। (ता-तानि) उनको (वयम्) हम (वनामह) जिनका सेवन करते हैं (एतानि) ये (च) और  (द्रविणोदाः) अच्छी तरह अच्छी तरह प्रयोग किये लाने योग्य भौतिक अग्नि  (नः) हमारे लिये (भौतिकः) भौतिक अग्नि (च) भी   (ददातु) दे॥८॥

    संस्कृत भाग

    द्र॒वि॒णः॒ऽदाः । द॒दा॒तु॒ । नः॒ । वसू॑नि । यानि॑ । शृ॒ण्वि॒रे । दे॒वेषु॑ । ता । व॒ना॒म॒हे॒ ॥
    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (द्रविणोदाः) सुष्ठूपासितो जगदीश्वरः सम्यग्योजितो भौतिको वा (ददातु) ददाति वा। अत्र पक्षे लडर्थे लोट्। (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यप्राप्याण्युत्तमानि धनानि (यानि) परोक्षाणि (शृण्विरे) श्रूयन्ते। अत्र 'श्रु' धातोः छन्दसि लुङ्लङ्लिट इति लडर्थे लिट्, छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकत्वेन श्नुविकरण आर्द्धधातुकत्वाद्यगभावः, विकरणव्यवहितत्वाद् द्वित्वं च न भवति। (देवेषु) विद्वत्सु दिव्येषु सूर्य्यादिपदार्थेषु वा (ता) तानि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः। (वनामहे) सम्भजामहे। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्॥८॥
    विषयः- स एव सर्वेषां पदार्थानां प्रदातेत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- अस्माभिर्यानि देवेषु दिव्येषु कर्म्मसु राज्येषु वा शिल्पविद्यासिद्धेषु विमानादिषु सत्सु वसूनि शृण्विरे श्रूयन्ते ता तानि वयं वनामह एतानि च द्रविणोदा जगदीश्वरो नोऽस्मभ्यं ददातु भौतिकश्च ददाति॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमेश्वरणास्मिन् जगति प्राणिभ्यो ये पदार्था दत्तास्तेभ्य उपकारे संयोजितेभ्यो यावन्ति प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाणि वस्तुजातानि वर्त्तन्ते, तानि देवेषु विद्वत्सु स्थित्वैव सुखप्रदानि भवन्तीति॥८॥ 

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    विषय

    विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यानि ) जिन भी बहुत से ( वसूनि ) प्राणियों को सुखपूर्वक बसानेवाले ऐश्वर्य ( शृण्विरे ) सुने जाते हैं, उन सबको वह ( द्रविणोदाः ) सब ऐश्वर्यों का देने वाला ही ( नः ) हमें ( ददातु ) प्रदान करे । और ( ता ) उनको ( देवेषु ) दिव्य कार्यों, राज्य व्यवहारों और विद्वानों के निमित्त ( वनामहे ) प्राप्त करें और उनके हित के लिये प्रदान करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराने या जगात जीवांसाठी जे पदार्थ उत्पन्न केलेले आहेत व उपकारासाठी व्यवहारात आणलेले आहेत, त्या पदार्थांनी जितके प्रत्यक्ष किंवा अप्रत्यक्ष वस्तूंपासून सुख उत्पन्न होते ते विद्वानांच्या संगतीनेच होते. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the lord creator and giver of wealth bless us with treasures of wealth which we have heard of, which we love, and which abound in the generous stores of nature, in yajna, and in the products of science and technology.

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    Subject of the mantra

    Aforesaid fire (Agni) is provider and making provided all the substances, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First- in favour of God- (asmābhiḥ)=By us, (yāni)=by those unknown persons, (deveṣu)=by scholars, by divine entities and sun et cetera substances, (karmmasu)=in deeds, (rājyeṣu)=in kingdoms, (vā)=or, (śilpavidyāsiddheṣu)=those who have accomplished craftsmanship, (vimānādiṣu)=in aircrfats et cetera, (satsu)=in water, (vasūni)=knowledge and Chakravartï kingdom et cetera as good wealth, (śṛṇvire)=have been listening, (tā)=to them, (vanāmaha)=those they serve, (vayam)=we, Vanᾱmaha=listen to those, (etāni)=these, (ca)=and, (draviṇodāḥ)=That God which can be worshiped well, (naḥ)= for us, (ca)=as well, (dadātu)=must give. Second- in favour of physical fire- (asmābhiḥ)=By us, (yāni)=by those unknown persons, (deveṣu)=by scholars, by divine entities and sun et cetera substances, (karmmasu)=in deeds, (rājyeṣu)=in kingdoms, (vā)=or, (śilpavidyāsiddheṣu)=those who have accomplished craftsmanship, (vimānādiṣu)=in aeroplanes et cetera, (satsu)=in water, (vasūni)=knowledge and Chakravartï kngdom et cetera as good wealth, (śṛṇvire)=have been listening, (tā)=to them, (vanāmaha)=those they serve, (vayam)=we, Vanᾱmaha=listen to those, (etāni)=these, (ca)=and, (draviṇodāḥ)=That God which can be worshiped well, (naḥ)= for us, (ca)=as well, (dadātu)=must give.

    English Translation (K.K.V.)

    First in favour of God- We have been listening acquisition through those unknown persons, by divine and Sun et cetera substances, by scholars, in deeds, in kingdoms, or in those who have accomplished craftsmanship, in aircrafats et cetera, in water, in obtaining Chakravartee kingdom et cetera as good wealth. To that God about whom, we have been listening, which is well-worshiped. He may kindly give for us as well. Second in favour of physical fire- We have been listening through those unknown persons, by divine and Sun et cetera substances, in deeds, in kingdoms, or in those who have accomplished craftsmanship, in aircrafts et cetera, in water, in obtaining Chakravartee kingdom et cetera as good wealth. To that physical fire, which we have been using, kindly give us these and physical fire and usable properly as well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The things which God has created for the living beings in this world and combined them in benevolence, the happiness that arises from those things directly or indirectly, that happiness is delightful in the company of scholars only.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The Chakravarti state is explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    He (God) is the Giver of all things is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) May God the Giver of all wealth and strength give us good riches to be got from knowledge and good and vast Government that are renowned everywhere in divine works, Governments and aero planes etc. accomplished with the science of art. (2) May fire give us wealth of various kinds when properly utilized.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वसूनि) विद्याचक्रवर्तिराज्यप्राप्याण्युत्तमानि धनानि । = Wealth acquired from knowledge and vast but good Government. वनामहे (संभजामहे ) = We properly distribute.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All things created by God in this world give happiness only when they are properly utilized by the wise and learned persons.

    Translator's Notes

    वन-संभक्तौ यज्ञकर्तॄणामृतुषु कर्तव्यान्युपदिश्यन्ते ॥

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