ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
अ॒भि य॒ज्ञं गृ॑णीहि नो॒ ग्नावो॒ नेष्टः॒ पिब॑ ऋ॒तुना॑। त्वं हि र॑त्न॒धा असि॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । य॒ज्ञम् । गृ॒णी॒हि॒ । नः॒ । ग्रावः॑ । नेष्ट॒रिति॑ । पिब॑ । ऋ॒तुना॑ । त्वम् । हि । र॒त्न॒ऽधा । असि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना। त्वं हि रत्नधा असि॥
स्वर रहित पद पाठअभि। यज्ञम्। गृणीहि। नः। ग्नावः। नेष्टरिति। पिब। ऋतुना। त्वम्। हि। रत्नऽधा। असि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथर्तुना सह विद्युत् किं करोतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे विद्वन् ! यत इयं नेष्टर्नेष्ट्रीविद्युदृतुना सह रसान् पिब पिबति रत्नधा अस्यस्ति सा ग्नावो ग्नावती न इमं यज्ञमभिगृणीहि गृणाति। तस्मात्त्वमेतया कार्य्याणि साधय॥३॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (यज्ञम्) सङ्गम्यमानं पूर्वोक्तम् (गृणीहि) गृणाति स्तुतिहेतुर्भवति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (नः) अस्माकम् (ग्नावः) सर्वपदार्थप्राप्तिर्यस्य व्यवहारे। ग्ना इति उत्तरपदनामसु पठितम्। (निघं०३.२९) (नेष्टः) विद्युत् पदार्थशोधकत्वात्पोषकत्वाच्च नेनेक्ति सर्वान् पदार्थानिति। नप्तृनेष्टृ० (उणा०२.९६) अनेन निपातनम् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (त्वम्) सोऽयम् (हि) यतः (रत्नधाः) रत्नानि रमणार्थानि पृथिव्यादीनि वस्तूनि दधातीति सः (असि) अत्र व्यत्ययः॥३॥
भावार्थः
इयं विद्युदग्नेः सूक्ष्मावस्था वर्त्तते, सा सर्वान् मूर्त्तद्रव्यसमूहावयवानभिव्याप्य धरति छिनत्ति वाऽतएव चाक्षुषोऽग्निः प्रादुर्भवत्यत्रैवान्तर्दधाति चेति॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ऋतुओं के साथ विद्युत् अग्नि क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
यह (नेष्टः) शुद्धि और पुष्टि आदि हेतुओं से सब पदार्थों का प्रकाश करनेवाली बिजुली (ऋतुना) ऋतुओं के साथ रसों को (पिब) पीती है तथा (हि) जिस कारण (रत्नधाः) उत्तम पदार्थों की धारण करनेवाली (असि) है, (त्वम्) सो यह (ग्नावः) सब पदार्थों की प्राप्ति करानेहारी (नः) हमारे इस (यज्ञम्) यज्ञ को (अभिगृणीहि) सब प्रकार से ग्रहण करती है, इसलिये तुम लोग इससे सब कार्य्यों को सिद्ध करो॥३॥
भावार्थ
यह जो बिजुली अग्नि की सूक्ष्म अवस्था है, सो सब स्थूल पदार्थों के अवयवों में व्याप्त होकर उनको धारण और छेदन करती है, इसी से यह प्रत्यक्ष अग्नि उत्पन्न होके उसी में विलीन हो जाता है॥३॥
विषय
नेष्टा का सोमपान
पदार्थ
१. 'ग्ना' शब्द छन्दों का वाचक है - 'छन्दाँसि वै ग्नाः छन्दोभिर्हि स्वर्ग लोकं गच्छन्ति' [शत० ५/५/४/७] । इन छन्दोंवाला ग्नावा है । उसे सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि (ग्नावः) - हे ज्ञान की वाणियोंवाले विद्वन् ! (नः) - हमें (यज्ञम् अभि) - यज्ञ का लक्ष्य करके (गृणीहि) - उपदेश दीजिए । हमारा जीवन यज्ञमय होगा तो हम विलास के मार्ग में न जाकर इस सोम के रक्षण के लिए अधिक समर्थ होंगे ।
२. हे (नेष्टः) [नेनेक्ति] - जीवन को शुद्ध करनेवाले विद्वन्! (ऋतुना) - समय रहते (पिब) - तू सोम का पान करनेवाला बन ।
३. हे नेष्टः ! (त्वम्) - तू (हि) - निश्चय से (रत्नधा असि) - रमणीय पदार्थों का धारण करनेवाला है । सोम के रक्षण से शरीर अत्यन्त रमणीय बन जाता है । नीरोगता , निर्मलता और बुद्धि की तीव्रता , ये सब - के - सब सोमरक्षण से ही साध्य होते हैं । इस सोमरक्षण के लिए यह अपने जीवन को यज्ञ की ओर ले - चलता है , वेदवाणियों का अध्ययन करता है , जीवन को शुद्ध बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम यज्ञशील बनें , जीवन के शोधन के लिए समय रहते सोमपान करनेवाले बनें और इस प्रकार जीवन को रमणीय बनाएँ ।
विषय
अब ऋतुओं के साथ विद्युत् अग्नि क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वन् ! यत इयं नेष्टः नेष्ट्री विद्युत् ऋतुना सह रसान् पिब पिबति रत्नधा अस्यस्ति सा ग्नावो ग्नावती न इमं यज्ञम् अभि गृणीहि गृणाति। तस्मात् त्त्वम् एतया कार्य्याणि साधय॥३॥
पदार्थ
हे (विद्वन्)=विद्वान् लोगों! (यतः)=जिस कारण से, (इयम्)=यह, {नेष्टः(नेष्ट्री विद्युत्)} विद्युत् पदार्थशोधकत्वात्पोषकत्वाच्च नेनेक्ति सर्वान् पदार्थातानिति=पदार्थों को शोधित और पोषित करने वाली और सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाली बिजली, (ऋतुना-ऋतुभिः) ऋतुओं के (सह)= साथ, रसान=रसों को, (पिब-पिबति)=पीती है, (रत्नधाः) रत्नानि रमणार्थानिपृथिव्यादीनि वस्तूनिदधातीति सः=वह उल्लास के लिये पृथिवी आदि वस्तुओं और रत्नों को देता है, (असि) अस्ति=है, (सः)=वह, (ग्नावा-ग्नावती) सर्वपदार्थप्राप्तिर्यस्य व्यवहारे=सब पदार्थों की प्राप्ति का व्यवहार कराने वाली, (नः)=हमारे लिए, (इमम्)=इस, (यज्ञम्)=यज्ञ को, (अभि)=सब प्रकार से, (गृणीहि-गृणाति)=ग्रहण करती है, (तस्मात्)=इसलिये, (त्वम्)=आप, (एतया)=इसके द्वारा, (कार्य्याणि)=कार्यों को, (साधय)=सिद्ध करो॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
यह जो बिजली अग्नि की सूक्ष्म अवस्था है, इसलिये सब स्थूल पदार्थों के अवयवों में व्याप्त होकर उनको धारण और छेदन करती है, इसी से यह प्रत्यक्ष अग्नि उत्पन्न होके उसी में विलीन हो जाता है॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वन्) विद्वान् लोगों! (यतः) जिस कारण से (इयम्) यह (नेष्ट्री) पदार्थों को शोधित और पोषित करने वाली और सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाली बिजली (ऋतुना) ऋतुओं के (सह) साथ (रसान) रसों को (पिब) पीती है (रत्नधाः) वह उल्लास के लिये पृथिवी आदि वस्तुओं और रत्नों को देता (असि) है। (सः) वह (ग्नावा) सब पदार्थों की प्राप्ति का व्यवहार कराने वाली (नः) हमारे लिए (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ को (अभि) सब प्रकार से (गृणीहि) ग्रहण करती है, (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) आप (एतया) इसके द्वारा (कार्य्याणि) कार्यों को (साधय) सिद्ध करो॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभि) आभिमुख्ये (यज्ञम्) सङ्गम्यमानं पूर्वोक्तम् (गृणीहि) गृणाति स्तुतिहेतुर्भवति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (नः) अस्माकम् (ग्नावः) सर्वपदार्थप्राप्तिर्यस्य व्यवहारे। ग्ना इति उत्तरपदनामसु पठितम्। (निघं०३.२९) (नेष्टः) विद्युत् पदार्थशोधकत्वात्पोषकत्वाच्च नेनेक्ति सर्वान् पदार्थानिति। नप्तृनेष्टृ० (उणा०२.९६) अनेन निपातनम् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (ऋतुना) ऋतुभिः सह (त्वम्) सोऽयम् (हि) यतः (रत्नधाः) रत्नानि रमणार्थानि पृथिव्यादीनि वस्तूनि दधातीति सः (असि) अत्र व्यत्ययः॥३॥
विषयः- अथर्तुना सह विद्युत् किं करोतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे विद्वन् ! यत इयं नेष्टर्नेष्ट्रीविद्युदृतुना सह रसान् पिब पिबति रत्नधा असि अस्यति सा ग्नावो ग्नावती न इमं यज्ञमभिगृणीहि गृणाति। तस्मात्त्वमेतया कार्य्याणि साधय॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- इयं विद्युदग्नेः सूक्ष्मावस्था वर्त्तते, सा सर्वान् मूर्त्तद्रव्यसमूहावयवानभिव्याप्य धरति छिनत्ति वाऽतएव चाक्षुषोऽग्निः प्रादुर्भवत्यत्रैवान्तर्दधाति चेति॥३॥
विषय
गृहस्थों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( ग्नावः ) सब पदार्थों को प्राप्त करने की शक्ति वाले ! हे (नेष्टः ) सब पदार्थों को शुद्ध करनेहारे! तू ( यज्ञं अभि नः गृणीहि ) यज्ञ, प्रजापति, परमेश्वर को लक्ष्य करके हमें उपदेश कर । और ( ऋतुना ) सत्यज्ञान के बल पर ( पिब ) आनन्द रस का पान कर । ( हि ) क्योंकि ( हि ) निश्चय से ( त्वं हि ) तू ही ( रत्नधा ) अति रमण करने योग्य ज्ञान और आत्म तत्व को धारण करने वाला ( असि ) है । गृहस्थ पक्ष में—हे ( ग्नावन् ) सत् स्त्री से युक्त ! उसके स्वामिन् ! हे (नेष्टः) विवेकिन् तू ( यज्ञम् अभि गृणीहि) परमेश्वर की उपासना कर और ( ऋतुना पिब ) ऋतु के अनुसार अन्नादि भोग्य पदार्थों का भोग कर । तू ही ( रत्नधाः) रमण योग्य भोग्य स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्य आदि के धारण पोषण करनेहारा है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्युत ही अग्नीची सूक्ष्म अवस्था आहे. त्यामुळे सर्व स्थूल पदार्थांच्या अवयवांमध्ये व्याप्त होऊन त्यांना धारण करते व छिन्न भिन्न करते. त्यासाठी हा प्रत्यक्ष अग्नी उत्पन्न होऊन त्यातच विलीन होतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Electricity, purifier of everything, generous giver of things, receive and appraise the fragrance of our yajna, drink the sweets of it according to the seasons and give us the jewels, treasure of jewels as you are.
Subject of the mantra
What does electricity as fire (Agni) do with seasons, has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan)=scholars, (yataḥ)=Due to which reason, (iyam)=this, (neṣṭrī)=purifying and nourishing substances ; and illuminating all things as electricity, (rasāna)=to saps, (ṛtunā)= seasons, (saha)= with (piba)=drinks, (ratnadhāḥ)=provides earth and gems et cetera substances for rejoicing, (asi)=be, (saḥ)=that, (gnāvā)=is going to to conduct the procurement of things, (naḥ)=for us, (imam)=this, (yajñam)=to yajna, (abhi)=in every way, (gṛṇīhi)=accepts, (tasmāt)=therefore, (tvam)=you, (etayā)=by it, kāryyāṇi)=deeds, (sādhaya)=accomplish.
English Translation (K.K.V.)
O scholars! due to which reason, purifying and nourishing substances and illuminating all things as electricity with seasons, provides earth and gems et cetera substances for rejoicing, that is going to conduct the procurement of things and for us accepts this yajan in every way. Therefore, you accomplish deeds through this.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
This lightning, which is a subtle state of fire, therefore pervades the components of all gross substances, holds and pierces them, due to this evident fire arises and merges in it.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now what does electricity do with seasons is taught in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man! because this electricity purifies all things, takes the sap with seasons and is the upholder of the earth etc. which are meant for proper legitimate enjoyment, so it is praised in our Yajnas or noble philanthropic activities; you should therefore accomplish various works, utilizing it properly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ग्नाव:) सर्व पदार्थप्राप्तिर्यस्य व्यवहारे ग्ना इति उत्तर पदनामसु पठितम् (निघ० ३.१६ ) (नेष्ट:) विद्युत् पदार्थशोधकत्वात् पोषकत्वाच नेक्ति सर्वान् पदार्थान् इति । (रत्नधाः) रत्नानि रमणार्थानि पृथिव्यादीनि वस्तूनि दधातीति सः ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
This electricity is the subtle form of fire. It pervades and upholds all the particles or gross forms and disintegrates them. The visible fire is originated from it and dissolves in it at the end.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted नेष्ट: as विद्युत् or electricity. It is derived from णिजिर-शौचपोषणयोः Purification and nourishment. As electricity possesses these properties, it is called as neshtree. Sayanacharya takes it as the name of Twashta त्वष्टा नेष्टृ शब्दोऽत्रत्वष्टारं देवमाह । कस्मिंश्चिद् देवसत्रे नेष्टृत्वेन त्वण्टुवृर्तत्वात् ॥ which Prof. Wilson translates in his foot-note as "Neshtri is another name of Twastri, from his having assumed, it is said, upon some occasion, the function of the Neshtri, or priest so denominated, at a sacrifice.” Griffith also gives the same note saying "Neshtri is said to be another name for the God Twashtar from his having on some occasion assumed the function of a Neshtar priest." All these translators take Neshtar to be the name of some "God" who is addressed here to come with his wife and drink the Soma Juice ग्नाव: has been translated by Sayanacharya as पत्नी युक्त which Wilson translates as “Neshtra, with thy spouse, commend our sacrifice to the gods. etc. Griffith also commits the same blunder by translating it as “O Neshtar, with thy Dame accept our sacrifice" etc. So it is not Omnipresent Formless God that they mean by Twashta which is certainly one of the names of God as Creator of the world, but some God with his wife and children in the heaven. What a wrong notion about the Vedic conception of God ?"
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