ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 11
य उ॒दृची॑न्द्र दे॒वगो॑पाः॒ सखा॑यस्ते शि॒वत॑मा॒ असा॑म। त्वां स्तो॑षाम॒ त्वया॑ सु॒वीरा॒ द्राघी॑य॒ आयुः॑ प्रत॒रं दधा॑नाः ॥
स्वर सहित पद पाठये । उ॒त्ऽऋचि॑ । इ॒न्द्र॒ । दे॒वऽगो॑पाः । सखा॑यः । ते॒ । शि॒वऽत॑माः । असा॑म । त्वाम् । स्तो॒षा॒म॒ । त्वया॑ । सु॒ऽवीराः॑ । द्राघी॑यः । आयुः॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दधा॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
य उदृचीन्द्र देवगोपाः सखायस्ते शिवतमा असाम। त्वां स्तोषाम त्वया सुवीरा द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः ॥
स्वर रहित पद पाठये। उत्ऽऋचि। इन्द्र। देवऽगोपाः। सखायः। ते। शिवऽतमाः। असाम। त्वाम्। स्तोषाम। त्वया। सुऽवीराः। द्राघीयः। आयुः। प्रऽतरम्। दधानाः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
विषय - विज्ञान का अध्ययन
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ये) = जो हम (उदृचि) = 'उत्कृष्टा ऋचो यस्मिन्नध्ययने दया.' उत्कृष्ट ऋचाओंवाले अध्ययन में, अर्थात् विज्ञान का उत्तम अध्ययन करते हुए (देवगोपाः) = [देवा गोपा येषाम्] सूर्यादि देवों को अपना रक्षक बनानेवाले (ते सखायः) = आपके मित्र, (शिवतमाः) = अत्यन्त कल्याणमय स्थितिवाले (असाम) = हों । प्रभु के बनाये हुए इस संसार को समझने के लिए विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है । यही बात यहाँ 'उदृचि' शब्द से स्पष्ट की गई है । विज्ञान का अध्ययन ठीक से होने पर ये सब प्राकृतिक शक्तियाँ हमारा कल्याण - ही - कल्याण करनेवाली होती हैं । इनका ठीक उपयोग करनेवाले हम प्रभु के सच्चे मित्र बनते हैं और शिवतम स्थिति को प्राप्त करते हैं । २. उस समय हमें इन रचनाओं में प्रभु की महत्ता का अनुभव होने लगता है और हम हे प्रभो ! (त्वां स्तोषाम) = आपका स्तवन करते हैं । (त्वया सवीराः) = आपके सम्पर्क में आने से हम उत्तम वीर बनते हैं और (द्राघीयः) = दीर्घ तथा (प्रतरम्) = उत्कृष्ट (आयुः) = जीवन को (दधानाः) = धारण करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ -
भावार्थ - हम विज्ञान द्वारा सूर्यादि देवों को समझें । इनके ठीक प्रयोग से कल्याण को सिद्ध करें । इनमें प्रभु - महिमा को देखकर प्रभुस्तवन करते हुए प्रभु - सम्पर्क से वीर बनें तथा दीर्घ व उत्कृष्ट जीवन को धारण करें ।
विशेष / सूचना -
विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार है कि हम पुरुषार्थ से धनार्जन कर दान देनेवाले हों [१] । वस्तुतः सब धनों के स्वामी व दाता प्रभु ही हैं [२] प्रभुभक्तों को किसी प्रकार की कमी नहीं रहती [३] । अमति व द्वेष को दूर करके हम उत्कृष्ट जीवनवाले बनें [४] । हम सम्पत्ति, शक्ति व सुमति को प्राप्त करें [५] । मनः प्रसाद, हितकर कार्यों तथा सोमरक्षण से हम प्रभु को प्रसन्न करें [६] | अंहकार को जीतें [७] । पर - पीड़न, चौर्य व कुटिल कार्यों से बचें [८] । शतशः प्रवाहोंवाली वासना - सरित् को तरें [९] । अपने को प्रभु द्वारा रक्षण का पात्र बनाएँ [१०] । विज्ञान के अध्ययन से देवों को अपना रक्षक बनाएँ और प्रभु के भक्त बनें [११] । प्रभु हमारा रक्षण करेंगे -