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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    मा नो॑ अ॒स्मिन्म॑घवन्पृ॒त्स्वंह॑सि न॒हि ते॒ अन्तः॒ शव॑सः परी॒णशे॑। अक्र॑न्दयो न॒द्यो॒३॒॑ रोरु॑व॒द्वना॑ क॒था न क्षो॒णीर्भि॒यसा॒ समा॑रत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । अ॒स्मिन् । म॒घ॒व॒न् । पृ॒त्ऽसु । अंह॑सि । न॒हि । ते॒ । अन्तः॑ । शव॑सः । प॒रि॒ऽनशे॑ । अक्र॑न्दयः । न॒द्यः॑ । रोरु॑वत् । वना॑ । क॒था । न । क्षो॒णीः । भि॒यसा॑ । सम् । आ॒र॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो अस्मिन्मघवन्पृत्स्वंहसि नहि ते अन्तः शवसः परीणशे। अक्रन्दयो नद्यो३ रोरुवद्वना कथा न क्षोणीर्भियसा समारत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। अस्मिन्। मघवन्। पृत्ऽसु। अंहसि। नहि। ते। अन्तः। शवसः। परिऽनशे। अक्रन्दयः। नद्यः। रोरुवत्। वना। कथा। न। क्षोणीः। भियसा। सम्। आरत ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (मघवन्) = [मघ - मख] सम्पूर्ण ऐश्वर्यों व यज्ञोंवाले प्रभो ! आप (नः) = हमें (अस्मिन् अंहसि) = इस कष्ट के कारणभूत पाप में तथा (पृत्सु) = इन वासनाओं के साथ होनेवाले संग्रामों में (मा) = मत (अक्रन्दयः) = रुलाइए । आपकी शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर ही तो मैं इन पापों व वासनाओं को पराजित कर पाऊँगा । २. (ते) = आपके (शवसः) = बल का (अन्तः) = अन्त (नहि परीणशे) = नहीं प्राप्त किया जा सकता । (नद्यः) = नदियों को (अक्रन्दयः) = आप ही शब्दयुक्त करते हैं । वस्तुतः गड़गड़ाती हुई व तीव्रगति से चलती हुई ये नदियाँ आपकी ही महिमा का प्रतिपादन कर रही हैं । (वना) = वनों को भी (रोरुवत्) = आप ही शब्दयुक्त करते हैं । इन वनों के सघन वृक्षों में से जब वायु बहती है तब उनकी शाखाओं व पत्तों से होनेवाली मर्मर - ध्वनि में आपका ही स्तवन सुनाई पड़ता है । ३. हे प्रभो ! ऐसी स्थिति में (क्षोणीः) = इन पृथिवियों में निवास करनेवाले प्राणी (भियसा) = भय से (कथा) = क्योंकर (न समारत) = संगत न हों । जैसे पिता की उपस्थिति में पुत्र एक आदरयुक्त भय [awe] को अनुभव करता हुआ अशुभ कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, इसी प्रकार नदियों व वनादि में सर्वत्र आपकी शक्ति का दर्शन करनेवाला व्यक्ति पाप व वासनाओं में नहीं फंसता ; सर्वत्र प्रभु की शक्ति व महिमा का दर्शन करनेवाला पापों से सदा ऊपर उठा रहता है ।

    भावार्थ -

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से हम अपने में शक्ति का संचार करके वासना - संग्राम में विजयी बनें ।

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