ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 12
ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः
देवता - द्रुघण इन्द्रो वा
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
त्वं विश्व॑स्य॒ जग॑त॒श्चक्षु॑रिन्द्रासि॒ चक्षु॑षः । वृषा॒ यदा॒जिं वृष॑णा॒ सिषा॑ससि चो॒दय॒न्वध्रि॑णा यु॒जा ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । विश्व॑स्य । जग॑तः । चक्षुः॑ । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । चक्षु॑षः । वृषा॑ । यत् । आ॒जिम् । वृष॑णा । सिसा॑ससि । चो॒दय॑न् । वध्रि॑णा । यु॒जा ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं विश्वस्य जगतश्चक्षुरिन्द्रासि चक्षुषः । वृषा यदाजिं वृषणा सिषाससि चोदयन्वध्रिणा युजा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । विश्वस्य । जगतः । चक्षुः । इन्द्र । असि । चक्षुषः । वृषा । यत् । आजिम् । वृषणा । सिसाससि । चोदयन् । वध्रिणा । युजा ॥ १०.१०२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
विषय - चक्षुषः चक्षुः
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र के अनुसार आत्मदर्शन करनेवाली बुद्धि आत्मदर्शन करती हुई कहती है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (विश्वस्य जगतः) = सम्पूर्ण जगत् की (चक्षुषः) = आँख की (चक्षुः असि) = आँख हो । वे 'सूर्यः चक्षुर्भूत्वा०' सूर्य ही चक्षु का रूप धारण करके सब प्राणियों की आँखों में रह रहा है, सो सूर्य सम्पूर्ण जगत् की चक्षु है । इस चक्षु का भी चक्षु वे प्रभु हैं । सूर्य को भी दीप्ति देनेवाले प्रभु ही तो हैं । [२] यह बुद्धि प्रभु को जगत् की चक्षु के भी चक्षु के रूप में देखती है तो अपने पति आत्मा को कहती है कि वृषा शक्तिशाली होता हुआ तू (यत्) = जब (वधिणा) = [वध्री - वरत्रा - रज्जु] व्रतबन्धन में बद्ध (युजा) = इस अपने साथी मन के द्वारा (वृषणा) = शक्तिशाली ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (चोदयन्) = प्रेरित करता है, तो (आजिं सिषाससि) = इस संसार संग्राम को प्राप्त करने की कामनावाला होता है [सन् = to oblain] इस संसार-संग्राम में मन को वश में करके जब हम मनरूप लगाम से इन इन्द्रियाश्वों को चलाते हैं तो अवश्य विजयी होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- बुद्धि से हम प्रभु को सब संसार को दीप्ति देनेवाले के रूप में देखते हैं, और आत्मा को मन के द्वारा इन्द्रियाश्वों को प्रेरित कर युद्ध विजेता के रूप में । सम्पूर्ण सूक्त आत्मदर्शन के भाव को प्रकट कर रहा है। आत्मदर्शन करनेवाला इस संसार- संग्राम में विजेता बनता है । यह विजेता 'अद्वितीय विजेता' है, अनुपम योद्धा है [matchless wnslior] यह युद्ध विजयी बनकर पिता प्रभु का दर्शन करता है, प्रभु का हो जाता है । सो यह 'ऐन्द्रः' [इन्द्रस्यायम्] कहलाने लगता है । 'अप्रतिरथ ऐन्द्र' ही अगले सूक्त का ऋषि है-
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