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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पणयोऽ सुराः देवता - सरमा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किमि॒च्छन्ती॑ स॒रमा॒ प्रेदमा॑नड्दू॒रे ह्यध्वा॒ जगु॑रिः परा॒चैः । कास्मेहि॑ति॒: का परि॑तक्म्यासीत्क॒थं र॒साया॑ अतर॒: पयां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । इ॒च्छन्ती॑ । स॒रमा॑ । प्र । इ॒दम् । आ॒न॒ट् । दू॒रे । हि । अध्वा॑ । जगु॑रिः । प॒रा॒चैः । का । अ॒स्मेऽहि॑तिः । का । परि॑ऽतक्म्या । आ॒सी॒त् । क॒थम् । र॒सायाः॑ । अ॒त॒रः॒ । पयां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानड्दूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः । कास्मेहिति: का परितक्म्यासीत्कथं रसाया अतर: पयांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । इच्छन्ती । सरमा । प्र । इदम् । आनट् । दूरे । हि । अध्वा । जगुरिः । पराचैः । का । अस्मेऽहितिः । का । परिऽतक्म्या । आसीत् । कथम् । रसायाः । अतरः । पयांसि ॥ १०.१०८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] पणि कहते हैं कि (किं इच्छन्ती) = क्या चाहती हुई (सरमा) = यह सरणशीला बुद्धि (इदम्) = इस हमारे स्थान को (प्र आनट्) = प्रकर्षेण व्याप्त करनेवाली हुई है। इस सरमा का (अध्वा) = मार्ग (हि) = निश्चय से (दूरे) = सुदूर है, बड़ा लम्बा है और यह मार्ग (पराधैः) = [परा अञ्च्] विषयों से पराङ्मुख होनेवालों से ही (जगुरिः) = गन्तव्य है, जाने योग्य है। इस बुद्धि के मार्ग पर विषयों से निवृत्त हुए हुए पुरुष ही चल सकते हैं। [२] हे सरमे ! (अस्मे) = हम पणियों में, व्यवहारी पुरुषों में का (हितिः) = तेरा क्या प्रयोजन निहित है ? (का परितक्म्य आसीत्) = किस प्रकार तेरा चारों ओर गमन हुआ [तक् गतौ ] । (कथम्) = कैसे (रसाया) = इस रसमयी पृथिवी के (पयांसि) = विषयरूप जलों को (अतरः) = तू तैरी ? बुद्धि पणियों में क्या परिवर्तन करना चाहती है ? किस प्रकार वह उन्हें सांसारिक विषयों से ऊपर उठाकर प्रभु-प्रवण करने के लिए यत्नशील होती है ?

    भावार्थ - भावार्थ-पणिक् वृत्ति में बुद्धि ही परिवर्तन को ला पाती है। यह बुद्धि का मार्ग लम्बा व विषय पराङ्मुख लोगों से ही गन्तव्य है ।

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