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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सरमा देवशुनी देवता - प्रणयः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॑स्य दू॒तीरि॑षि॒ता च॑रामि म॒ह इ॒च्छन्ती॑ पणयो नि॒धीन्व॑: । अ॒ति॒ष्कदो॑ भि॒यसा॒ तन्न॑ आव॒त्तथा॑ र॒साया॑ अतरं॒ पयां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । दू॒तीः । इ॒षि॒ता । च॒रा॒मि॒ । म॒हः । इ॒च्छन्ती॑ । प॒ण॒यः॒ । नि॒ऽधीन् । वः॒ । अ॒ति॒ऽस्कदः॑ । भि॒यसा॑ । तम् । नः॒ । आ॒व॒त् । तथा॑ । र॒सायाः॑ । अ॒त॒र॒म् । पयां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्व: । अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । दूतीः । इषिता । चरामि । महः । इच्छन्ती । पणयः । निऽधीन् । वः । अतिऽस्कदः । भियसा । तम् । नः । आवत् । तथा । रसायाः । अतरम् । पयांसि ॥ १०.१०८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] सरमा उत्तर देती है कि मैं (इन्द्रस्य दूती:) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की सन्देशवाहिका हूँ । (इषिता) = उसी से प्रेरित हुई - हुई मैं चरामि गति करती हूँ । हे (पणयः) = पणिक् वृत्तिवाले पुरुषो ! मैं (वः) = तुम्हारे लिए (महः) = अधिक महत्त्वपूर्ण (निधीन्)= कोशों को (इच्छन्ती) = चाहती हुई हूँ । बाह्य समृद्धियों की अपेक्षा आन्तर ज्ञान की सम्पत्ति अधिक महत्त्वपूर्ण है। मैं तुम्हारे लिए उसी आन्तर ज्ञान सम्पत्ति को देने के लिए आई हूँ। [२] (तत्) = वह ज्ञानधन (नः) = हमें (अतिष्कदः) = अति तीव्र आक्रमण के करनेवाले (वृत्र) = [ = कामवासना] के (भियसा) = भय से (आवत्) = बचाता है। तथा उस प्रकार से ही, अर्थात् ज्ञान के द्वारा ही मैं (रसाया:) = इस रसमयी पृथिवी के (पयांसि) = विषय जलों को (अतरम्) = तैरे गई हूँ। ज्ञान ही मनुष्य को विषयों में फँसने से बचाता है । बाह्य धन विषयों में फँसाने का कारण बनता है तो यह आन्तर धन हमें उन विषयों से बचाता है। बुद्धि पणियों को यही प्रभु का सन्देश देना चाहती है कि ज्ञान धन को महत्त्व दो, नकि इस बाह्य धन को ।

    भावार्थ - भावार्थ- बुद्धि हमें यही सन्देश देती है कि 'ज्ञानधन को अपनाओ और विषयों से बचो' ।

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