ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
रप॑द्गन्ध॒र्वीरप्या॑ च॒ योष॑णा न॒दस्य॑ ना॒दे परि॑ पातु मे॒ मन॑: । इ॒ष्टस्य॒ मध्ये॒ अदि॑ति॒र्नि धा॑तु नो॒ भ्राता॑ नो ज्ये॒ष्ठः प्र॑थ॒मो वि वो॑चति ॥
स्वर सहित पद पाठरप॑त् । ग॒न्ध॒र्वीः । अप्या॑ । च॒ । योष॑णा । न॒दस्य॑ । ना॒दे । परि॑ । पा॒तु॒ । मे॒ । मनः॑ । इ॒ष्टस्य॑ । मध्ये॑ । अदि॑तिः । नि । धा॒तु॒ । नः॒ । भ्राता॑ । नः॒ । ज्ये॒ष्ठः । प्र॒थ॒मः । वि । वो॒च॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रपद्गन्धर्वीरप्या च योषणा नदस्य नादे परि पातु मे मन: । इष्टस्य मध्ये अदितिर्नि धातु नो भ्राता नो ज्येष्ठः प्रथमो वि वोचति ॥
स्वर रहित पद पाठरपत् । गन्धर्वीः । अप्या । च । योषणा । नदस्य । नादे । परि । पातु । मे । मनः । इष्टस्य । मध्ये । अदितिः । नि । धातु । नः । भ्राता । नः । ज्येष्ठः । प्रथमः । वि । वोचति ॥ १०.११.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - स्तवन व वेदज्ञान
पदार्थ -
[१] एक घर में गृहिणी घर का केन्द्र होती है, वही घर को बनाती है, बच्चों का निर्माण करती है। उसकी एक-एक क्रिया बच्चों के चरित्र पर प्रभाव डालनेवाली होती है। सो वह (रपत्) = प्रातः उठकर प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करती है। यह स्तोत्रोच्चारण घर के सारे वातावरण को सुन्दर बनाता है। बच्चों में भी इस से भक्तिभाव का उदय होता है । [२] (गन्धर्वीः) = यह [गांधारयति] वेदवाणी का धारण करती है। स्वाध्याय को जीवन का नियमित अंग बनाती है। [३] (अप्या) = [अप्सु साध्वी] कर्मों में यह उत्तम होती है। वेदज्ञान के अनुसार कर्मों में लगी रहती है । यह इस बात को समझती है कि अकर्मण्यता अलक्ष्मी का कारण होती है। [४] (च) = और इस कर्मशीलता के कारण ही यह (योषणा) = अवगुणों से अपने को पृथक् करनेवाली तथा गुणों से अपने को संपृक्त करनेवाली होती है । [५] गृहपति भी प्रार्थना करता है कि (नदस्य मे) = स्तवन करनेवाला जो मैं, उस मेरे (मनः) = मन को (नादे) = प्रभुस्तवन के होने पर (अदितिः) = अखण्डित यागक्रिया अथवा वे अविनाशी प्रभु (परिपातु) = सुरक्षित करें। प्रभुस्तवन में लगा हुआ मेरा मन वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त न हो। [६] (नः) = हम सब को (अदितिः) = वे अविनाशी प्रभु (इष्टस्य मध्ये) = यज्ञों के बीच में निधातु = स्थापित करें। प्रभु कृपा से हम सदा यज्ञ-यागों में प्रवृत्त रहें। [७] 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' ऋषियों से सनातन वेदज्ञान का दोहन करनेवाला (नः) = हमारा (ज्येष्ठः) = सबसे बड़ा (प्रथमः) = प्रथम स्थान में स्थित (भ्राता) = भाई अर्थात् ब्रह्मा ['ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव'] (विवोचति) = हमें विशिष्ट रूप से वेदज्ञान देता है।
भावार्थ - भावार्थ - आदर्श घर वही है जिसमें कि पति-पत्नी प्रभु का स्तवन करनेवाले व यज्ञशील हैं। प्रभु कृपा से उनका मन यज्ञप्रवण बना रहता है। और वे आचार्यों से वेदज्ञान प्राप्त करते हैं।
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