ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
सो चि॒न्नु भ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्व॑र्वती । यदी॑मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता॑रं वि॒दथा॑य॒ जीज॑नन् ॥
स्वर सहित पद पाठसो इति॑ । चि॒त् । नु । भ॒द्रा । क्षु॒ऽमती॑ । यश॑स्वती । उ॒षाः । उ॒वा॒स॒ । मन॑वे । स्वः॑ऽवती । यत् । ई॒म् । उ॒शन्त॑म् । उ॒श॒ताम् । अनु॑ । ऋतु॑म् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । वि॒दथा॑य । जीज॑नन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो चिन्नु भद्रा क्षुमती यशस्वत्युषा उवास मनवे स्वर्वती । यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनन् ॥
स्वर रहित पद पाठसो इति । चित् । नु । भद्रा । क्षुऽमती । यशस्वती । उषाः । उवास । मनवे । स्वःऽवती । यत् । ईम् । उशन्तम् । उशताम् । अनु । ऋतुम् । अग्निम् । होतारम् । विदथाय । जीजनन् ॥ १०.११.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
विषय - 'भद्रा क्षुमती यशस्वती - स्वर्वती' उषा
पदार्थ -
[१] (सा उ चित् नु उषा) = और अब वह उषा निश्चय से (मनवे) = समझदार पुरुष के लिये (उवास) = उदित होती है अथवा अन्धकार को दूर करती है। कैसी यह उषा ? [क] (भद्रा) = [भदि कल्याणे सुखे च] कल्याण व सुख को देनेवाली, [ख] (क्षुमती) = [क्षु शब्दे] प्रार्थना व स्तुति के शब्दों वाली । अर्थात् जिसमें एक भक्त कल्याण कर कर्मों को ही करता है और प्रभु की प्रार्थना करता हुआ प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। [ग] (यशस्वती) = यह उषा हमारे लिये कीर्ति वाली हो। अर्थात् हम इसके अन्दर ऐसे ही कार्यों को करें जो कि हमारे यश व कीर्ति का कारण बनें। [घ] (स्वर्वती) = यह उषा प्रकाश वाली होती है । अर्थात् इस समय स्वाध्याय को करते हुए हम अपने ज्ञान के प्रकाश को बढ़ानेवाले हों। [२] ऐसा उषाकाल हमारे लिये तभी उदित होता है (यद्) = जब कि हम (ईम्) = निश्चय से (उशन्तम्) = हमारे हित की कामना वाले, (उशताम्) = उन्नति की कामना वाले पुरुषों के अनुक्रतुं संकल्प व पुरुषार्थ के अनुसार (अग्निम्) = अग्रगति के साधक (होतारम्) = हमें उन्नति के लिये सब पदार्थों के प्राप्त करानेवाले उस प्रभु को (विदथाय) = ज्ञान प्राप्ति के लिये (जीजनन्) = हम अपने हृदयों में आविर्भूत करते हैं । वस्तुतः जब हम अपने हृदयों में उस प्रभु के प्रकाश को देखने का दृढ संकल्प व पुरुषार्थ करते हैं तभी हम प्रभु को देख पाते हैं और उसी ही समय हमारे लिये उषाकाल सचमुच 'भद्र-क्षुमान्-यशस्वान् व स्वर्वान्' होते हैं । इस प्रकार के उषाकालों को बना सकनेवाला पुरुष ही 'मनु' सुभद्र है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति की प्रवल कामना व पुरुषार्थ वाले हों। तब हमारे लिये प्रत्येक उषा भद्र ही भद्र होगी।
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