ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
सो चि॒न्नु भ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्व॑र्वती । यदी॑मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता॑रं वि॒दथा॑य॒ जीज॑नन् ॥
स्वर सहित पद पाठसो इति॑ । चि॒त् । नु । भ॒द्रा । क्षु॒ऽमती॑ । यश॑स्वती । उ॒षाः । उ॒वा॒स॒ । मन॑वे । स्वः॑ऽवती । यत् । ई॒म् । उ॒शन्त॑म् । उ॒श॒ताम् । अनु॑ । ऋतु॑म् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । वि॒दथा॑य । जीज॑नन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो चिन्नु भद्रा क्षुमती यशस्वत्युषा उवास मनवे स्वर्वती । यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनन् ॥
स्वर रहित पद पाठसो इति । चित् । नु । भद्रा । क्षुऽमती । यशस्वती । उषाः । उवास । मनवे । स्वःऽवती । यत् । ईम् । उशन्तम् । उशताम् । अनु । ऋतुम् । अग्निम् । होतारम् । विदथाय । जीजनन् ॥ १०.११.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सा चित् उ नु) वह भी तुरन्त (भद्रा) भजनीया (क्षुमती) प्रशस्त अन्नादिभोग देनेवाली (यशस्वती) यश कीर्ति प्राप्त करानेवाली (स्वर्वती) सुखवाली-सुख देनेवाली (उषाः) कमनीया प्रतिभा, कमनीया राष्ट्रभूमि या प्रजा (मनवे) आस्तिक मनस्वी विद्वान् के लिये या प्रजापालक राजा के लिये (उवास) प्रादुर्भूत होती है या सम्पन्न होती है (उशताम्-उशन्तम्) कामना करनेवालों के-चाहनेवालों के कामना करनेवाले-चाहनेवाले (क्रतुं-होतारम्-अग्निम्-अनु) जगत्कर्ता सुखदाता ज्ञानप्रकाशक परमात्मा को अनुकूलता से (विदथाय) स्वात्मा में उस ओ३म् का जप अर्थभावन द्वारा भावित करने के लिए (जीजनन्) प्रादुभूर्त करते हैं-साक्षात् करते हैं ॥३॥
भावार्थ
आस्तिक की मानसवृत्ति प्रतिभा, न्यायकारी राजा की राष्ट्रभूमि या प्रजा, परमात्मा की कृपा से उसके लिये शीघ्र अच्छी सेवनीया व दिव्यभोग देनेवाली, यश्स्करी, सुख पहुँचानेवाली हो जाती है। परमात्मा को चाहनेवाले को सुखदाता परमात्मा भी चाहता है। उपासक जन उसके अनुकूल चलने से, उसे स्वात्मा में अनुभव करने से साक्षात् करते हैं ॥३॥
विषय
'भद्रा क्षुमती यशस्वती - स्वर्वती' उषा
पदार्थ
[१] (सा उ चित् नु उषा) = और अब वह उषा निश्चय से (मनवे) = समझदार पुरुष के लिये (उवास) = उदित होती है अथवा अन्धकार को दूर करती है। कैसी यह उषा ? [क] (भद्रा) = [भदि कल्याणे सुखे च] कल्याण व सुख को देनेवाली, [ख] (क्षुमती) = [क्षु शब्दे] प्रार्थना व स्तुति के शब्दों वाली । अर्थात् जिसमें एक भक्त कल्याण कर कर्मों को ही करता है और प्रभु की प्रार्थना करता हुआ प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। [ग] (यशस्वती) = यह उषा हमारे लिये कीर्ति वाली हो। अर्थात् हम इसके अन्दर ऐसे ही कार्यों को करें जो कि हमारे यश व कीर्ति का कारण बनें। [घ] (स्वर्वती) = यह उषा प्रकाश वाली होती है । अर्थात् इस समय स्वाध्याय को करते हुए हम अपने ज्ञान के प्रकाश को बढ़ानेवाले हों। [२] ऐसा उषाकाल हमारे लिये तभी उदित होता है (यद्) = जब कि हम (ईम्) = निश्चय से (उशन्तम्) = हमारे हित की कामना वाले, (उशताम्) = उन्नति की कामना वाले पुरुषों के अनुक्रतुं संकल्प व पुरुषार्थ के अनुसार (अग्निम्) = अग्रगति के साधक (होतारम्) = हमें उन्नति के लिये सब पदार्थों के प्राप्त करानेवाले उस प्रभु को (विदथाय) = ज्ञान प्राप्ति के लिये (जीजनन्) = हम अपने हृदयों में आविर्भूत करते हैं । वस्तुतः जब हम अपने हृदयों में उस प्रभु के प्रकाश को देखने का दृढ संकल्प व पुरुषार्थ करते हैं तभी हम प्रभु को देख पाते हैं और उसी ही समय हमारे लिये उषाकाल सचमुच 'भद्र-क्षुमान्-यशस्वान् व स्वर्वान्' होते हैं । इस प्रकार के उषाकालों को बना सकनेवाला पुरुष ही 'मनु' सुभद्र है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति की प्रवल कामना व पुरुषार्थ वाले हों। तब हमारे लिये प्रत्येक उषा भद्र ही भद्र होगी।
विषय
स्त्री पुरुषों के परस्पर कर्तव्य। पक्षान्तर में प्रजा-राजा का उत्तम सम्बन्ध।
भावार्थ
(यद्) जब (उशताम्) नाना ऐश्वर्य चाहने वालों के बीच में (उशन्तं) स्वयं कामना करने वाले (क्रतुं) कर्म कुशल (अग्निं) ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुष को (विदथाय) यज्ञार्थ यज्ञाग्निवत् (होतारं) ग्रहीता रूप से (जीजनन्) विशेष रूप से प्रकट करते हैं, उस समय (सो चित नु उषा) वह कामनावती स्त्री भी प्रभात वेला के समान (क्षु-मती) उत्तम वचन बोलती हुई, (यशस्वती) उत्तम गुणों से कीर्त्ति युक्त (स्वती) सुखसम्पदा वाली होकर (मनवे उवास) मनुष्य के हितार्थ रहे। उसी प्रकार राज्येच्छुकों में से एक को जब सर्वोपरि होता शासक बनाते हैं तब वह प्रजा प्रशंसा वचनों से युक्त यशस्विनी होकर उस (मनवे) प्रबन्धक की सुखकारिणी होकर रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आंगिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृज्जगती। ३-५ विराड् जगती। ७-९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सा-चित्-उ नु) सा खल्वपि सद्यः नु क्षिप्रनाम” [निघ०२।९] (भद्रा) भजनीया, भागवती “भद्रं भगेन व्याख्यातं भजनीयम्” [निरु०४।९] (क्षुमती) प्रशस्यान्नवती “क्षु-अन्ननाम” [निघ०२।७] (यशस्वती) कीर्तिमती (स्वर्वती) सुखवती (उषाः-मनवे-उवास) कमनीया प्रतिभा प्रादुभर्वति, राष्ट्रभूमिः कामयमाना प्रजा वा सम्भवति, मनवे-आस्तिकमनस्विने विदुषे “विद्वांसस्ते मनवः” [श०८।६।३।१८] प्रजापालकाय राज्ञे वा “प्रजापतिर्वै मनुः” [श०६।६।१।१९] (यत्-ईम्) यदा हि (उशताम्-उशन्तं क्रतुं होतारम्-अग्निम्-अनु) कामयमानानां कामयमानं कर्त्तारं सुखदातारं ज्ञानप्रकाशकं परत्मात्मानमानुकूल्येन (विदथाय) वेदनाय स्वात्मनि भावनाय “तज्जपस्तदर्थभावनम्” [योग०] “विदथा वेदनेन” [निरु०३।१२] (जीजनन् ) प्रादुर्भावयन्ति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Instantly does that blessed, blissful, inspiring and elevating dawn, light of life, vision of wisdom, harbinger of honour, excellence and divine virtue, arise and shine in response to dedicated action bearing the bliss of heaven for all humanity when, in pursuit of corporate creative living and search for total freedom, people light the yajna fire for Agni, lover of the lovers of divinity and chief high priest of the yajna of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या कृपेने आस्तिकाची मानसवृत्ती प्रतिभा, न्यायकारी राजाची राष्ट्रभूमी किंवा प्रजा, त्यांच्यासाठी तात्काळ सेवा करण्यायोग्य व दिव्य भोग देणारी, यश देणारी, सुख देणारी बनते. परमेश्वरावर प्रेम करणारा, सुखदात्या परमेश्वरालाही आवडतो. उपासक लोक त्याच्या अनुकूल वागून, त्याला आपल्या आत्म्यात अनुभवून साक्षात्कार करतात. ॥३॥
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