ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
अध॒ त्यं द्र॒प्सं वि॒भ्वं॑ विचक्ष॒णं विराभ॑रदिषि॒तः श्ये॒नो अ॑ध्व॒रे । यदी॒ विशो॑ वृ॒णते॑ द॒स्ममार्या॑ अ॒ग्निं होता॑र॒मध॒ धीर॑जायत ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । त्यम् । द्र॒प्सम् । वि॒भ्व॑म् । वि॒ऽच॒क्ष॒णम् । विः । आ । अ॒भ॒र॒त् । इ॒षि॒तः । श्ये॒नः । अ॒ध्व॒रे । यदि॑ । विशः॑ । वृ॒णते॑ । द॒स्मम् । आर्याः॑ । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । अध॑ । धीः । अ॒जा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध त्यं द्रप्सं विभ्वं विचक्षणं विराभरदिषितः श्येनो अध्वरे । यदी विशो वृणते दस्ममार्या अग्निं होतारमध धीरजायत ॥
स्वर रहित पद पाठअध । त्यम् । द्रप्सम् । विभ्वम् । विऽचक्षणम् । विः । आ । अभरत् । इषितः । श्येनः । अध्वरे । यदि । विशः । वृणते । दस्मम् । आर्याः । अग्निम् । होतारम् । अध । धीः । अजायत ॥ १०.११.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अध) अनन्तर (त्यं विभ्वं विचक्षणं द्रप्सम्) उस महान् सावधान करनेवाले प्रकाशरूप हर्षप्रद मोक्षपद को या उस महान् सावधानता से रक्षणीय पृथिवीपतिपद-राजपद को (अध्वरे) अध्यात्मयज्ञ में या राजसूययज्ञ में (विः श्येनः इषितः आभरत्) अर्चना करनेवाला-स्तुतिकर्ता प्रशंसनीयगतिप्रवृत्तिवाला पुण्यवान् आत्मा या राजा परमात्मा से प्रेरित हुआ (यदि दस्मम् अग्निं होतारम् आर्याः विशः वृणते) जब दर्शनीय सुखदाता ज्ञानप्रकाशक परमात्मा या राजा को श्रेष्ठ मानव या प्रजाजन उपासित करते हैं या वरते हैं (अध धीः अजायत) अनन्तर वह परमात्मा उपासक जनों या प्रजाजनों का आधार प्रसिद्ध होता है ॥४॥
भावार्थ
उपासक आत्मा अध्यात्मयज्ञ में प्रशंसनीय प्रवृत्तिवाला होकर ईश्वर से प्रेरित हुआ महान् हर्षप्रद मोक्षपद को प्राप्त करता है। जब दर्शनीय सुखदाता परमात्मा की उपासक उपासना करते हैं, तो वह उनका आधार होकर उनके अन्दर साक्षात् होता है। राजा राजसूययज्ञ में प्रशंसनीय गतिप्रवृत्तिवाला होकर परमात्मा से प्रेरित हुआ भूपतिपद-राजपद को प्राप्त करता है ॥४॥
विषय
आर्या विशः
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में प्रभु के आविर्भाव का उल्लेख था । (अध) = इस प्रभु के प्रकाश को होने पर (श्येनः) = [श्यैङ् गतौ] यह गतिशील (विः) = जीव रूप पक्षी (इषितः) = प्रभु से प्रेरणा को दिया हुआ (त्यम्) = उस (द्रप्सम्) = हर्ष के कारणभूत सोम को (अध्वरे आभरत्) = अपने इस हिंसाशून्य जीवनयज्ञ में पोषित करता है जो सोम (विश्वम्) = शरीर में शक्ति को प्राप्त करानेवाला है, महान् [great] बनानेवाला है तथा (विचक्षणं) = विशिष्ट प्रकाश को प्राप्त करानेवाला है, मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को दीत करके प्रकाश को भरनेवाला है। [२] यहाँ सोमरक्षण के उपायों का संकेत इस रूप में हुआ है कि मनुष्य (श्येन:) = गतिशील बने तथा विः -ऊँची उड़ान लेनेवाला हो, अपने सामने कोई ऊँचा लक्ष्य रखे। ऐसा होने पर ही वह वासनाओं से बचकर सोम का रक्षण कर पायेगा । सोमरक्षण के लाभ 'विश्वं व विचक्षणं' शब्दों से स्पष्ट है कि यह शरीर में हमें शक्ति देती है और मस्तिष्क में प्रकाश । [३] इस प्रकार सोम के शरीर में भरण के बाद (यद्) = जब (ई) = निश्चय से (आर्याविश:) = श्रेष्ठ प्रजाएँ (द्रप्सम्) = सब दुःखों व पापों के नष्ट करनेवाले अथवा दर्शनीय, (अग्निम्) = अग्रेणी-उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले, (होतारम्) = सब आवश्यक पदार्थों के प्राप्त करानेवाले प्रभु को (वृणते) = वरती हैं । (अध) = तो इसके बाद (धी:) = ज्ञानपूर्वक कर्म (अजायत) = उत्पन्न होता है । आर्य पुरुष ज्ञानपूर्वक कर्मों को ही करते हैं । उनके कर्मों में पवित्रता के होने का यह भी कारण है कि वे प्रभु का ही वरण करते हैं। प्रकृति में फँसने पर ही मनुष्य का मन संसार की माया से आवृत होकर सत्य के स्वरूप को नहीं देख पाता । परमात्मा की शरण में जानेवाले व्यक्ति माया को तैर जाते हैं और उनके कर्मों में सत्यता का प्रकाश होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के द्वारा हम शक्ति व प्रकाश को प्राप्त करें। आर्य लोग प्रभु का ही वरण करते हैं, सो उनके कार्य पवित्र होते हैं ।
विषय
उत्तम प्रजाओं द्वारा उत्तम पुरुष का नायकवत् वरण।
भावार्थ
(यदि) जब (आर्याः विशः) वे श्रेष्ठ प्रजाएं (दस्मं) शत्रु वा दुष्ट पुरुषों को नांश करने वाले, (होतारम्) भृत्यों को वेतनादि देने वाले, (अग्निं) अग्निवत् तेजस्वी पुरुष को नायक रूप से (वृणते) वरण करती हैं (अध) अनन्तर ही (धीः अजायत) वह राष्ट्र को धारण करने में समर्थ होजाता है। (अध) और उसी समय (विः) कांतिमान् तेजस्वी (श्येनः) बाज़ के समान शत्रु पर आक्रमण करने हारा, एक प्रशस्तगति वाला वीर सेनापति, (इषितः) प्रेरित होकर (त्यं) उस (द्रप्सं) बलवान्, (विभ्वं) महान्, (वि-चक्षणं) बुद्धिमान् पुरुष को (अध्वरे) इस राष्ट्र रूप यज्ञ वा अहिंसनीय पद पर (आभरत्) प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आंगिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृज्जगती। ३-५ विराड् जगती। ७-९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अध) अनन्तरम् (त्यं विभ्वं विचक्षणं द्रप्सम्) तं महान्तं सावधानकर्त्तारं प्रकाशरूपं हर्षकरं मोक्षपदम् “दृप् हर्षे” [दिवा०] ततः सः प्रत्यय औणादिकः, तथा महान्तं सावधानतया रक्षणीयं पार्थिवं पृथिवीपतिपदम् “द्रप्सं पार्थिवं भूगोलम्” [यजु०१३।२ दयानन्दः] (अध्वरे) अध्यात्मयज्ञे (विः-श्येनः-इषितः-आभरत्) अर्चयिता-स्तुतिकर्त्ता “वेति-अर्चतिकर्मा” [निघ०२।६] शंसनीयगतिकः-पुण्यवान्-इन्द्रः-आत्मा “इन्द्रो वा एतेन साम्ना श्येनो भूत्वा असुरानपवयत्” [जै०३।१५८] परमात्मना प्रेरितः-आसमन्ताद् धारयति (यदि दस्मम्-अग्निं होतारम्-आर्याः-विशः-वृणते) यदा हि दर्शनीयं ज्ञानप्रकाशकं परमात्मानं सर्वसुखदातारं वा श्रेष्ठा उपासका जनाः प्रजा वा सम्भजन्ति वरयन्ति वा (अध धीः-अजायत) अनन्तरं स परमात्माऽऽस्तिकानां राजा वा प्रजानामाधारः “धीङ्-आधारे” [दिवादिः] अजायत-प्रसिद्धो भवति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When noble and dynamic people, lovers of life dedicated to yajna fire, choose to worship the potent and gracious Agni, chief of cosmic yajna and harbinger of infinite gifts, then the celebrant soul of the individual, or society or the ruler of the social order, with flying super-intelligence inspired by the spirit of divinity, achieves that same great and ecstatic power and enlightenment of universal order both on earth and in the spirit by social yajna and spiritual meditation, and by that Agni itself, omniscient, omnipotent and omnificent, becomes the inviolable foundation of human karma, and all possible faculties of thought and action arise for the achievement of success.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासक आत्मा अध्यात्म यज्ञात प्रशंसनीय प्रवृत्तीवान बनून ईश्वराकडून प्रेरित होऊन महान आनंददायक मोक्षपद प्राप्त करतो. उपासक जेव्हा दर्शनीय सुखदाता परमात्म्याची उपासना करतात तेव्हा तो त्यांचा आधार बनून त्यांच्यामध्ये साक्षात् होतो. राजा राजसूय यज्ञात प्रशंसनीय गति प्रवृत्तिवान बनून परमात्म्याकडून प्रेरित होऊन भूपतिपद-राजपद प्राप्त करतो. ॥४॥
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