ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
उदी॑रय पि॒तरा॑ जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति । विव॑क्ति॒ वह्नि॑: स्वप॒स्यते॑ म॒खस्त॑वि॒ष्यते॒ असु॑रो॒ वेप॑ते म॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र॒य॒ । पि॒तरा॑ । जा॒रः । आ । भग॑म् । इय॑क्षति । ह॒र्य॒तः । हृ॒त्तः । इ॒ष्य॒ति॒ । विव॑क्ति । वह्निः॑ । सु॒ऽअ॒प॒स्यते॑ । म॒खः । त॒वि॒ष्यते॑ । असु॑रः । वेप॑ते । म॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीरय पितरा जार आ भगमियक्षति हर्यतो हृत्त इष्यति । विवक्ति वह्नि: स्वपस्यते मखस्तविष्यते असुरो वेपते मती ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईरय । पितरा । जारः । आ । भगम् । इयक्षति । हर्यतः । हृत्तः । इष्यति । विवक्ति । वह्निः । सुऽअपस्यते । मखः । तविष्यते । असुरः । वेपते । मती ॥ १०.११.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(भगम्-उदीरय) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! इस अध्यात्मयज्ञ या राजसूययज्ञ को उन्नत कर (जारः आ पितरा) रात्रि का जरण करनेवाला सूर्य जैसे अपने तेज को द्यावापृथिवी के प्रति पृथिवी से लेकर द्युलोक तक पहुँचाता है (हर्यतः-हृत्तः-इयक्षति-इष्यति) यह आस्तिकमनवाला या राजा हरने योग्य मन से यज्ञ करना चाहता है और हदय से चाहता है (वह्निः) अध्यात्मयज्ञ को वहन करनेवाला आस्तिकमनवाला या राष्ट्र तथा प्रजा को वहन करनेवाला राजा (विवक्ति) तुझ परमात्मा से नियम से प्रार्थना करता है (स्वपस्यते) सम्यक् कर्माचरण करता है (मखः तविष्यते) अध्यात्मयज्ञ तथा राजसूययज्ञ समृद्ध होता है (मती असुरः वेपते) तब मति से-स्वविपरीत मति से अनृतभाव दुर्विचार या असत्याचरण करनेवाला दुष्टजन काँपता है-भाग जाता है ॥६॥
भावार्थ
आस्तिक मनवाले तथा प्रजापालक राजा के अध्यात्मयज्ञ और राजसूय को परमात्मा समृद्ध करता है, उसके पास से दुर्भाव मिट जाता है, दुष्ट अत्याचारी भी नष्ट हो जाता है ॥६॥
विषय
जार:-असुरः
पदार्थ
[१] (पितराः) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (उदीरय) = उत्कृष्ट गति प्राप्त करा । अर्थात् मस्तिष्क व शरीर दोनों को उन्नत कर । द्युलोक मस्तिष्क है और पृथिवीलोक शरीर । ये दोनों माता व पिता के रूप में वर्णित होते हैं 'पृथिवी माता'। 'माता च पिता च' इस प्रकार विग्रह होने पर, एकशेष होकर, 'पितरौ' यही प्रयोग होता है । [२] (जार:) = [जरतेः स्तुतिकर्मणः] प्रभु का स्तोता (भगं) = भग को (आ इयक्षति) = सब प्रकार से अपने साथ संगत करता है। जीवन के प्रारम्भिक काल में ‘ऐश्वर्यसाधक विज्ञान व धर्म' को वह अपने में दृढ़ करता है, इसके जीवन का मध्य 'यश व श्री' के साथ संगत होता है और जीवन का चरम भाग 'ज्ञान व वैरागमय' होता है। इस प्रकार उस भगवान् के सम्पर्क में आकर यह भी 'भग' वाला बनता है। [३] (हर्यतः) = [हर्य गतिकान्त्योः] उस प्रभु की ओर जानेवाला और उस प्रभु की ही कामना वाला यह (हृत्तः) = हृदय से, हृदयस्थ उस प्रभु से (इष्यति) = प्रेरणा को प्राप्त करता है । [४] (वह्निः) = उस प्रेरणा को धारण करनेवाला यह व्यक्ति उस प्रेरणा को अपने जीवन से कहता है। अर्थात् उस प्रेरणा के अनुसार कार्य करता है। प्रेरणा को कार्य में अनूदित करता है। [५] इस (स्वपस्यते) = उत्तम [सु] कर्मों [अपस्] को अपनाने के लिये इच्छा करते हुए [यं] और इस प्रकार (तविष्यते) = दिव्यगुणों की वृद्धि की इच्छा वाले पुरुष के लिये [तु-वृद्धौ] यह जीवन (मखः) = यज्ञ बन जाता है। इसका जीवन ही यज्ञमय बन जाता है। [६] (असुर:) = [अस्यति] सब अशुभों को अपने से परे फेंकनेवाला यह (मती) = बुद्धि से (वेपते) = दुरितों को कम्पित करके दूर कर देता है। इसका जीवन पवित्र ही पवित्र हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम मस्तिष्क व शरीर की उन्नति करें। प्रभुस्तवन से भग का अपने जीवन में संगमन करें । हृदयस्थ प्रभु की वाणी को सुनें। उसके अनुसार कार्य करें। हमारा जीवन यज्ञमय हो जाए और हम बुद्धिपूर्वक कार्य करते हुए सब दुरितों को दूर करनेवाले हों ।
विषय
उषा-सूर्य के दृष्टान्त से शासक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्वन् ! हे तेजस्विन् ! नायक ! (जारः आभगम्) रात्रि को जीर्ण करने वाला सूर्य जिस प्रकार अपने सेवनीय प्रकाश को सब ओर फैलाता है उसी प्रकार तू भी (पितरा) माता पिता के तुल्य पूज्यों के प्रति (उद् ईरय) उत्तम वचन कह, आदर से उनके लिये अभ्युत्थान किया कर। (भगम् आ ईश्य) ऐश्वर्य सुख सब प्रकार से प्राप्त करा। क्योंकि (हर्यतः) कान्तिमान् तेजस्वी पुरुष ही (इयक्षति) दान देने में समर्थ होता है, वह (हृत्तः इष्यति) उनको हृदय से चाहा करता है। वह (वह्निः) कार्य-भार को उठाने में समर्थ होकर (वि वक्ति) विविध वचन कहता है, (सु-अपस्यते) शुभ २, उत्तम कार्य करता है, और (मखः) यज्ञवान्, पूज्य होकर (तविषयते) बल के कर्म करता है, और (असुरः) बलवान् होकर (मती वेपते) अपनी वाणी और बुद्धि से शत्रुओं को कंपाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आंगिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृज्जगती। ३-५ विराड् जगती। ७-९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(भगम्-उदीरय) अग्ने ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! भगमध्यात्मयज्ञं राजसूययज्ञम् “यज्ञो वै भगः” [श०६।१।१।१९] ऊर्ध्वं नय-समृद्धं कुरु (जारः-आ पितरा) यथा जारः-रात्रेर्जरयिता सूर्यः-द्यावापृथिव्यौ स्वतेजसा-आपूरयति (हर्यतः-हृत्तः-इयक्षति-इष्यति) एष आस्तिकमनस्वी राजा वा हर्तुं योग्यं हर्यं मनस्तस्माद् यष्टुमिच्छति, हृत्तो हृदयाच्चेच्छति (वह्निः) अध्यात्मभावं वहमानः-आस्तिकमनस्वी, राष्ट्रं प्रजां वा वहमानो राजा (विवक्ति) त्वां परमात्मानं नियमेन प्रार्थयते (स्वपस्यते) सम्यक् कर्माचरति (मखः-तविष्यते) यज्ञोऽध्यात्मयज्ञो राजसूययज्ञो वा समृद्ध्यते “यज्ञो वै मखः” [तै०३।२।८।३] (मती-असुरः-वेपते) ततः मत्या विमत्या-आसुरः दुर्विचारोऽनृतभावः दुर्विचारवान् दुष्टो जनो वा “अनृतेनासुरान्” [का०९।११] वेपते-कम्पते-पलायते ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, raise and augment the parental powers of heaven and earth and extend the honour and excellence of humanity there like the sun, stealer of the night, which spreads its light in space. The yajamana performs yajna in honour of the divinities of nature and humanity and loves the divinities and yajna with his heart and soul. The ruler, burden bearer of the life of humanity, is up and active and adores and exalts you. The fire is rising and blazing bright, the high priest is inspired, and the life giving energies vibrate with action and intelligence.
मराठी (1)
भावार्थ
आस्तिक मनाच्या व प्रजापालक राजाच्या अध्यात्म यज्ञाला व राजसूयाला परमात्मा समृद्ध करतो. त्याचा दुर्भाव नष्ट होतो. दुष्ट अत्याचारीही नष्ट होतो. ॥६॥
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