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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्ते॒ रथो॒ मन॑सो॒ जवी॑या॒नेन्द्र॒ तेन॑ सोम॒पेया॑य याहि । तूय॒मा ते॒ हर॑य॒: प्र द्र॑वन्तु॒ येभि॒र्यासि॒ वृष॑भि॒र्मन्द॑मानः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । रथः॑ । मन॑सः । जवी॑यान् । आ॒ । इ॒न्द्र॒ । तेन॑ । सो॒म॒ऽपेया॑य । या॒हि॒ । तूय॑म् । आ । ते॒ । हर॑यः । प्र । द्र॒व॒न्तु॒ । येभिः॑ । यासि॑ । वृष॑ऽभिः । मन्द॑मानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते रथो मनसो जवीयानेन्द्र तेन सोमपेयाय याहि । तूयमा ते हरय: प्र द्रवन्तु येभिर्यासि वृषभिर्मन्दमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ते । रथः । मनसः । जवीयान् । आ । इन्द्र । तेन । सोमऽपेयाय । याहि । तूयम् । आ । ते । हरयः । प्र । द्रवन्तु । येभिः । यासि । वृषऽभिः । मन्दमानः ॥ १०.११२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] प्रभु अपने सखा जीव को प्रेरणा देते हैं कि इन्द्र-हे जितेन्द्रिय पुरुष ! यः = जो ते-तेरा रथ: - यह शरीररूप रथ है, जो रथ मनसः जवीयान् मन से भी अधिक वेगवान् है, अर्थात् खूब शक्ति सम्पन्न है, तेन उस रथ के हेतु से, उस रथ की शक्ति को स्थिर बनाए रखने के लिए सोमपेयाय= सोम के शरीर में ही पान करने के लिए याहि तू गतिशील हो । तेरा सारा प्रयत्न सोम को शरीर में सुरक्षित करने के लिए हो। [२] ते हरयः - तेरे ये इन्द्रियाश्व तूयम् - शीघ्रता से आप्रद्रवन्तु समन्तात् अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त हों । वस्तुतः इनके स्वकार्य में प्रवृत्त होने से ही हम वासनाओं से बचते हैं और सोम का रक्षण कर पाते हैं । उन इन्द्रियाश्वों से तू कार्यों में प्रवृत्त हो येभिः वृषभिः - जिन शक्तिशाली इन्द्रियाश्वों से मन्दसानः = हर्ष का अनुभव करता हुआ याहि तू यासि = गति करता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से शरीर-रथ ठीक सशक्त बना रहता है। इस सोमरक्षण से ही इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनकर स्वकार्यों में प्रवृत्त होती हुई हमारे जीवनों को सुखी बनाती हैं ।

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