ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 3
ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हरि॑त्वता॒ वर्च॑सा॒ सूर्य॑स्य॒ श्रेष्ठै॑ रू॒पैस्त॒न्वं॑ स्पर्शयस्व । अ॒स्माभि॑रिन्द्र॒ सखि॑भिर्हुवा॒नः स॑ध्रीची॒नो मा॑दयस्वा नि॒षद्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठहरि॑त्वता । वर्च॑सा । सूर्य॑स्य । श्रेष्ठैः॑ । रू॒पैः । त॒न्व॑म् । स्प॒र्श॒य॒स्व॒ । अ॒स्माभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । सखि॑ऽभिः । हु॒वा॒नः । स॒ध्री॒ची॒नः । मा॒द॒य॒स्व॒ । नि॒ऽसद्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हरित्वता वर्चसा सूर्यस्य श्रेष्ठै रूपैस्तन्वं स्पर्शयस्व । अस्माभिरिन्द्र सखिभिर्हुवानः सध्रीचीनो मादयस्वा निषद्य ॥
स्वर रहित पद पाठहरित्वता । वर्चसा । सूर्यस्य । श्रेष्ठैः । रूपैः । तन्वम् । स्पर्शयस्व । अस्माभिः । इन्द्र । सखिऽभिः । हुवानः । सध्रीचीनः । मादयस्व । निऽसद्य ॥ १०.११२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
विषय - वर्चस् - श्रेष्ठ रूप व आनन्द
पदार्थ -
[१](सूर्यस्य) = सूर्य के (हरित्वता) = सब रोगों का हरण करनेवाले, अर्थात् अत्यन्त तेजस्वी (वर्चसा) = वर्चस् से, शक्ति से तथा (श्रेष्ठैः रूपैः) = सब अंगों के उत्तम रूपों से (तन्वम्) = अपने शरीर को (स्पर्शयस्य) = स्पृष्ट करा । गत मन्त्र के अनुसार सोमरक्षण का यह स्वाभाविक परिणाम है कि हम सूर्य के समान वर्चस्वी बनें तथा हमारे सब अँग श्रेष्ठ रूपोंवाले हों । [२] हे (इन्द्र) = पैरमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (अस्माभिः सखिभिः) = हम मित्रों के द्वारा (हुवानः) = पुकारे जाते हुए आप (सध्रीचीनः) = सदा हमारे साथ गति करते हुए, अर्थात् सदा हमें कर्मों के लिए शक्ति देते हुए (निषद्य) = हमारे हृदयों में आसीन होकर (मादयस्व) = हमारे जीवन को आनन्द से युक्त कीजिए। आपकी सत्ता को अपने में अनुभव करते हुए हम आनन्द को प्राप्त हों ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का सम्पर्क हमें तेजस्वी- श्रेष्ठ रूपोंवाला व आनन्दयुक्त करे ।
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