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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 9
    ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तं त्वा॑ गी॒र्भिरु॑रु॒क्षया॑ हव्य॒वाहं॒ समी॑धिरे । यजि॑ष्ठं॒ मानु॑षे॒ जने॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । त्वा॒ । गीः॒ऽभिः । उ॒रु॒ऽक्षयाः॑ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । सम् । ई॒धि॒रे॒ । यजि॑ष्ठम् । मानु॑षे । जने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा गीर्भिरुरुक्षया हव्यवाहं समीधिरे । यजिष्ठं मानुषे जने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्वा । गीःऽभिः । उरुऽक्षयाः । हव्यऽवाहम् । सम् । ईधिरे । यजिष्ठम् । मानुषे । जने ॥ १०.११८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] हे प्रभो ! (हव्यवाहम्) = सब हव्य पदार्थों के प्राप्त करानेवाले (तं त्वा) = उन आपको (उरुक्षयाः) = विशाल हृदयरूप गृहवाले व्यक्ति ही (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों से (समीधिरे) = समिद्ध करते हैं। आप वस्तुतः सब पवित्र पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं। आपको ज्ञान की वाणियों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। [२] आप मानुषे विचारशील, मनन करनेवाले, (जने) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले इस व्यक्ति में (यजिष्ठम्) = यजिष्ठ हैं, अधिक से अधिक संगतिकरणवाले होते हैं, प्राप्तिवाले होते हैं। आप 'मनुष जन' को ही प्राप्त होते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु प्राप्ति का उपाय ज्ञानाग्नि को दीप्त करना है। इन विचारशील पुरुषों को ही प्रभु प्राप्त होते हैं। सूक्त का सार - प्रभु ज्ञान दीप्ति व मलों के क्षरण से प्राप्त होते हैं । प्रभु हमें ज्ञानरूप धन को प्राप्त करानेवाले हैं। इस ज्ञानरूप धन को प्राप्त करके यह प्रभु का अनन्य भक्त बनता है, सो 'ऐन्द्रः कहलाता है। संसार वृक्ष का छेदन करनेवाला होने से यह 'लवः' है । अथवा सदा प्रभु के नामों का जप करनेवाला यह 'लब: ' [लप् व्यक्तायां वाचि] कहलाता है। यह प्रभु स्मरण द्वारा वासनाओं का विनाश करता हुआ सोम का शरीर में रक्षण करता है और कहता है कि-

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