ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 119/ मन्त्र 1
इति॒ वा इति॑ मे॒ मनो॒ गामश्वं॑ सनुया॒मिति॑ । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइति॑ । वै । इति॑ । मे॒ । मनः॑ । गाम् । अश्व॑म् । स॒नु॒या॒म् । इति॑ । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इति वा इति मे मनो गामश्वं सनुयामिति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥
स्वर रहित पद पाठइति । वै । इति । मे । मनः । गाम् । अश्वम् । सनुयाम् । इति । कुवित् । सोमस्य । अपाम् । इति ॥ १०.११९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 119; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - सशक्त इन्द्रियाँ
पदार्थ -
[१] (कुवित्) = खूब ही (सोमस्य) = सोम का (अपाम्) = मैंने पान व रक्षण किया है (इति) = इस कारण (इति वा) = निश्चय से (इति मे मनः) = इस प्रकार मेरा मन है कि (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों को (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को सनुयां इति प्राप्त करूँ । [२] सोम के रक्षण से ज्ञानेन्द्रियाँ भी उत्तम बनती हैं और कर्मेन्द्रियाँ भी सशक्त होती हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ अर्थों का ज्ञान प्राप्त कराने के कारण 'गो' शब्द से कही गई हैं [गमयन्ति अर्थान्], तथा कर्मेन्द्रियाँ कर्मों में व्याप्त होने से 'अश्व' हैं। सोमरक्षण से सब इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहती है।
भावार्थ - भावार्थ- मैं सोम का शरीर में रक्षण करूँ और परिणामत: मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ सशक्त हों ।
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