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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वो दे॒वान्प॑रि॒भूॠ॒तेन॒ वहा॑ नो ह॒व्यं प्र॑थ॒मश्चि॑कि॒त्वान् । धू॒मके॑तुः स॒मिधा॒ भाऋ॑जीको म॒न्द्रो होता॒ नित्यो॑ वा॒चा यजी॑यान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः । दे॒वान् । प॒रि॒ऽभूः । ऋ॒तेन॑ । वह॑ । नः॒ । ह॒व्यम् । प्र॒थ॒मः । चि॒कि॒त्वान् । धू॒मऽके॑तुः । स॒म्ऽइधा॑ । भाःऽऋ॑जीकः । म॒न्द्रः । होता॑ । नित्यः॑ । वा॒चा । यजी॑यान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवो देवान्परिभूॠतेन वहा नो हव्यं प्रथमश्चिकित्वान् । धूमकेतुः समिधा भाऋजीको मन्द्रो होता नित्यो वाचा यजीयान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवः । देवान् । परिऽभूः । ऋतेन । वह । नः । हव्यम् । प्रथमः । चिकित्वान् । धूमऽकेतुः । सम्ऽइधा । भाःऽऋजीकः । मन्द्रः । होता । नित्यः । वाचा । यजीयान् ॥ १०.१२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] प्रभु ऋत व सत्य का पालन करनेवाले जीव से कहते हैं कि (देवः) = शरीर से अजीर्ण व मस्तिष्क से दीप्त बननेवाला तू (ऋतेन) = इस ऋत के पालन से, व्यवस्थित जीवन से (देवान् परिभूः) = सब दिव्यगुणों को शरीर में चतुर्दिक् भावित करनेवाला हो। तेरे शरीर में यथास्थान उस-उस देवता की स्थिति हो । [२] तू (प्रथमः) = शरीर व मस्तिष्क को उत्तम बनाने वालों में सर्वाग्रणी व (चिकित्वान्) = समझदार होता हुआ (नः) = हमारे (हव्यम्) = हव्य को वहा वहन करनेवाला हो । अर्थात् तेरा जीवन यज्ञमय हो । तू सदा यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला बन, देकर बचे हुए को खानेवाला हो [हु दानादनयोः] [३] (धूमकेतुः) = [धू- कम्पने, केत - ज्ञान] तू ज्ञान के द्वारा वासनाओं को कम्पित करके अपने से दूर करनेवाला हो। [४] (समिधा) = ज्ञान की दीप्ति से (भाऋजीक:) = दीप्ति का अर्जन करनेवाला बन । अथवा 'ऋजुदीप्ति: 'सरल ज्ञान की दीप्ति वाला हो। [५] (मन्द्रः) = तेरा जीवन सदा प्रसन्नता - पूर्ण हो । (नित्यः होता) = तू सदा देनेवाला बन । वस्तुतः हम जितना देते हैं, उतना ही हमारा जीवन आनन्दमय होता है । [६] (वाचा यजीयान्) = ज्ञान की वाणी से तू सदा उस प्रभु का पूजन करनेवाला हो अथवा ज्ञान की वाणियों से अपना संग करनेवाला हो । अर्थात् सदा स्वाध्यायशील हो ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का आदेश है कि हे जीव ! दिव्यगुणों को धारण कर, यज्ञशील हो, ज्ञान के द्वारा वासनाओं को कम्पित करनेवाला हो, ऋजुदीप्ति-सदा प्रसन्न - नित्य होता तथा ज्ञान की वाणियों से संगत करनेवाला हो ।

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