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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो॑ जा॒तासो॑ धारयन्त उ॒र्वी । विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी॑ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वावृ॑क् । दे॒वस्य॑ । अ॒मृत॑म् । यदि॑ । गोः । अतः॑ । जा॒तासः॑ । धा॒र॒य॒न्ते॒ । उ॒र्वी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वाः । अनु॑ । तत् । ते॒ । यजुः॑ । गुः॒ । दु॒हे । यत् । एनी॑ । दि॒व्यम् । घृ॒तम् । वारिति॒ वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वावृग्देवस्यामृतं यदी गोरतो जातासो धारयन्त उर्वी । विश्वे देवा अनु तत्ते यजुर्गुर्दुहे यदेनी दिव्यं घृतं वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वावृक् । देवस्य । अमृतम् । यदि । गोः । अतः । जातासः । धारयन्ते । उर्वी इति । विश्वे । देवाः । अनु । तत् । ते । यजुः । गुः । दुहे । यत् । एनी । दिव्यम् । घृतम् । वारिति वाः ॥ १०.१२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] मनुष्य (देवस्य) = उस दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभु का (स्वावृक्) = उत्तमता से आवर्जन करनेवाला होता है । एक मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है (यद्) = जब (ई) = निश्चय से (गोः अमृतम्) = गौ का अमृत तुल्य दुग्ध तथा (अतः गोः जातासः) = इस पृथ्वी से [गौ = भूमि] उत्पन्न वानस्पतिक भोजन (उर्वी) = इन द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (धारयन्त) = धारण करते हैं। अर्थात् जब एक मनुष्य गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजनों का सेवन करता है तो उसका शरीर व मस्तिष्क दोनों बड़े उत्तम बनते हैं । और इस मनुष्य का झुकाव प्राकृतिक भोगों की ओर न होकर प्रभु की ओर होता है। [२] जब मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है तो (तत्) = तब (विश्वेदेवाः) = सब दिव्यगुण (ते यजुः) = तेरे सम्पर्क को [यज-संगतिकरण] (अनुगुः) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं । [३] प्रभु की ओर झुकाव होने पर दिव्यगुण प्राप्त होते ही हैं, (यत्) = क्योंकि (एनी) = श्वेत-शुद्ध-शुक्त वेदवाणी (दिव्यम्) = दिव्य व अलौकिक (घृतम्) = ज्ञान - दीप्ति को तथा (वा) = [वार्] रोगों के निवारण को (दुहे) = पूरित करती है [वारणं वाः] । वेदवाणी ज्ञान को तो प्राप्त कराती ही है, यह वाणी मनुष्य की वृत्ति को सुन्दर बनाकर, उसे वासनाओं से ऊपर उठाकर, नीरोग भी बनाती है । यह वरदा वेदमाता 'आयुः प्राणं' आयुष्य व प्राण को देनेवाली तो है ही ।

    भावार्थ - भावार्थ - जब गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन हमारे शरीर व मस्तिष्क को धारण करते हैं तो हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है, हमें दिव्यगुण प्राप्त होते हैं और ज्ञान की वाणी हमारे में ज्ञान - दीप्ति व नीरोगता को प्राप्त कराती है।

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