ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अर्चा॑मि वां॒ वर्धा॒यापो॑ घृतस्नू॒ द्यावा॑भूमी शृणु॒तं रो॑दसी मे । अहा॒ यद्द्यावोऽसु॑नीति॒मय॒न्मध्वा॑ नो॒ अत्र॑ पि॒तरा॑ शिशीताम् ॥
स्वर सहित पद पाठअर्चा॑मि । वा॒म् । वर्धा॑य । अपः॑ । घृ॒त॒स्नू॒ इति॑ घृतऽस्नू । द्यावा॑भूमी॒ इति॑ । शृ॒णु॒तम् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । मे॒ । अहा॑ । यत् । द्यावः॑ । असु॑ऽनीतिम् । अय॑न् । मध्वा॑ । नः॒ । अत्र॑ । पि॒तरा॑ । शि॒शी॒ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्चामि वां वर्धायापो घृतस्नू द्यावाभूमी शृणुतं रोदसी मे । अहा यद्द्यावोऽसुनीतिमयन्मध्वा नो अत्र पितरा शिशीताम् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्चामि । वाम् । वर्धाय । अपः । घृतस्नू इति घृतऽस्नू । द्यावाभूमी इति । शृणुतम् । रोदसी इति । मे । अहा । यत् । द्यावः । असुऽनीतिम् । अयन् । मध्वा । नः । अत्र । पितरा । शिशीताम् ॥ १०.१२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
विषय - द्यावापृथिवी का माधुर्य
पदार्थ -
[१] (अपः) कर्मों के (वर्धाय) = [वर्धनम् वर्धः ] वर्धन के लिये (वाम्) = आप दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक को (अर्चामि) = मैं पूजित करता हूँ। ये मेरे शरीर व मस्तिष्क (घृतस्नू) = घृत का स्रावण करनेवाले हों। [घृत = दीप्ति ] मस्तिष्क में ज्ञान की दीप्ति हो। [घृत-मलक्षरण] शरीर मलों के क्षरण वाला हो, मलों के क्षरण से यह शरीर नीरोग हो । [२] (द्यावाभूमी) = ये ज्ञानदीप्त मस्तिष्क तथा क्षरित मलों वाला शरीर (रोदसी) = [क्रन्दसी] प्रभु का आह्वान करनेवाले होते हुए मे (शृणुतम्) = सदा मेरी बात सुननेवाले हों, अर्थात् मेरी अधीनता में हों, मेरे आज्ञावर्ती हों। अथवा ये प्रभु प्रेरणा को सुननेवाले हों। [३] (यद्) = जब (द्यावः) = ज्ञानी स्रोता [दिव्-द्युतिस्रुति] ज्ञानी भक्त, (अहा) = प्रतिदिन (असुनीतिम् अयन्) = प्राणों के मार्ग पर चलते हैं, अर्थात् उस जीवनमार्ग को अपनाते हैं जो प्राणशक्ति का वर्धन करनेवाला है तो (अत्र) = इस जीवन में (नः) = हमें (पितरा) = द्यावापृथिवी [द्यौष्पिता पृथिवी माता] मस्तिष्क व शरीर (मध्वा) = माधुर्य से (शिशीताम्) = संस्कृत कर दें । अर्थात् हमारी एक- एक क्रिया जहाँ माधुर्य के लिये हुए हो वहाँ हमारा ज्ञान भी माधुर्यपूर्ण हो तथा मधुरता से ही दूसरों तक पहुँचाया जाये । वस्तुतः द्यावाभूमी का माधुर्य से पूर्ण होना ही जीवन के विकास की पराकाष्ठा है । इनको ऐसा बनाना ही इसका अर्चन है।
भावार्थ - भावार्थ- हमारे मस्तिष्क व शरीर ज्ञान दीप्ति व क्षरित मलों वाले हों। हम प्राणरक्षण के मार्ग से चलें तथा अपने को मधुर बनायें ।
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