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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 125 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 125/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वागाम्भृणी देवता - वागाम्भृणी छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒हं सु॑वे पि॒तर॑मस्य मू॒र्धन्मम॒ योनि॑र॒प्स्व१॒॑न्तः स॑मु॒द्रे । ततो॒ वि ति॑ष्ठे॒ भुव॒नानु॒ विश्वो॒तामूं द्यां व॒र्ष्मणोप॑ स्पृशामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । सु॒वे॒ । पि॒तर॑म् । अ॒स्य॒ । मू॒र्धन् । मम॑ । योनिः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तरिति॑ । स॒मु॒द्रे । ततः॑ । वि । ति॒ष्ठे॒ । भुव॑ना । अनु॑ । विश्वा॑ । उ॒त । अ॒मूम् । द्याम् । व॒र्ष्मणा॑ । उप॑ । स्पृ॒शा॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व१न्तः समुद्रे । ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । सुवे । पितरम् । अस्य । मूर्धन् । मम । योनिः । अप्ऽसु । अन्तरिति । समुद्रे । ततः । वि । तिष्ठे । भुवना । अनु । विश्वा । उत । अमूम् । द्याम् । वर्ष्मणा । उप । स्पृशामि ॥ १०.१२५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 125; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (अहम्) = मैं (अस्य) = इस जगत् के (मूर्धन्) = मूर्धभूत [मस्तकरूप] आकाश में, द्युलोक में (पितरम्) = इस पालक सूर्य को (सुवे) = उत्पन्न करता हूँ । द्युलोकस्थ सूर्य सारी प्रजाओं का पालक है, यह सबका पिता है। ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य:' सब प्रजाओं का प्राण यही है । प्रभु लोकरक्षण के लिए इसे द्युलोक में स्थापित करते हैं । [२] (मम योनिः) = मेरा गृह (अप्सु अन्तः) = इन जलों के अन्दर है, (समुद्रे) = समुद्र में है। जलों में व समुद्रों में भी मेरा ही वास है। मेरे कारण ही उनमें रस है। [३] (ततः) = इस प्रकार सूर्य व जलों का निर्माण करके (विश्वा भुवना अनुवितिष्ठे) = सब भुवनों में मैं स्थित हो रहा हूँ। (वर्ष्मणा) = मैं अपने शरीर प्रमाण से (अमूं द्याम्) = उस सुदूरस्थ द्युलोक को (उपस्पृशामि) = छूता हूँ। वस्तुतः यह द्युलोक मेरे विराट् शरीर का मूर्धा ही तो है।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु सूर्य को द्युलोक में स्थापित करते हैं, जलों का निर्माण करते हैं । सब लोकों में व्याप्त हैं।

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