ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 125/ मन्त्र 8
ऋषिः - वागाम्भृणी
देवता - वागाम्भृणी
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒हमे॒व वात॑ इव॒ प्र वा॑म्या॒रभ॑माणा॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ । प॒रो दि॒वा प॒र ए॒ना पृ॑थि॒व्यैताव॑ती महि॒ना सं ब॑भूव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । ए॒व । वातः॑ऽइव । प्र । वा॒मि॒ । आ॒ऽरभ॑माणा । भुव॑नानि । विश्वा॑ । प॒रः । दि॒वा । प॒रः । ए॒ना । पृ॒थि॒व्या । ए॒ताव॑ती । म॒हि॒ना । सम् । ब॒भू॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा । परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । एव । वातःऽइव । प्र । वामि । आऽरभमाणा । भुवनानि । विश्वा । परः । दिवा । परः । एना । पृथिव्या । एतावती । महिना । सम् । बभूव ॥ १०.१२५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 125; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
विषय - 'एतावानस्य महिमा' 'अतो ज्यायाँश्च पूरुषः '
पदार्थ -
[१] (अहं एव) = मैं ही (विश्वा भुवनानि आरभमाणा) = सब भुवनों को बनाती हुई (वातः इव) = वायु की तरह (प्रवामि) = गतिवाली होती हूँ। जिस प्रकार वायु निरन्तर चल रही है, उसी प्रकार प्रभु की क्रिया भी स्वाभाविक है। वे अपनी इस क्रिया से इस ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं। इस निर्माण कार्य में उन्हें किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं। [२] वे प्रभु (दिवा परः) = इस द्युलोक से परे भी हैं, और (एना पृथिव्याः परः) = इस पृथ्वी से परे भी हैं। ये द्युलोक व पृथ्वीलोक प्रभु को अपने में समा नहीं लेते। हाँ, (महिना) = अपनी महिमा से वह प्रभु शक्ति (एतावती) = इतनी (संबभूव) = है। अर्थात् प्रभु की महिमा इस ब्रह्माण्ड के अन्दर ही दिखती है। ब्रह्माण्ड से परे तो प्रभु का अचिन्त्य निर्विकार निराकार रूप ही है। इस ब्रह्माण्ड में ही वे साकार दिखते हैं 'रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव' । 'एतावानस्य महिमा', यह संसार ही प्रभु की महिमा है । परन्तु वे प्रभु इस संसार में ही समाप्त नहीं हो जाते 'अतो ज्यायाँश्च पूरुषः'।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु अपनी स्वाभाविकी क्रिया से इस ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं। यह ब्रह्माण्ड प्रभु की महिमा है। प्रभु इसमें सीमित नहीं हो जाते, वे इससे परे भी हैं। सम्पूर्ण सूक्त प्रभु की महिमा का गायन कर रहा है। यह गायन करनेवाला अपने को प्रभु से खेले जानेवाले इस संसार नाटक का एक पात्र जानता है 'शैलूषि'। इस प्रकार अनासक्ति व प्रभु- स्मरण के कारण यह पाप का [कुल्मल] उखाड़नेवाला [बर्हिषः] 'कुल्मल-बर्हिष' कहलाता है। यह सुन्दर दिव्यगुणोंवाला 'वामदेव' बनता है, पापों व कुटिलताओं को छोड़ने के कारण 'अंहोमुक्' है । यह प्रार्थना करता है कि-
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