ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुल्मलबर्हिषः शैलूषिः, अंहोभुग्वा वामदेव्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
न तमंहो॒ न दु॑रि॒तं देवा॑सो अष्ट॒ मर्त्य॑म् । स॒जोष॑सो॒ यम॑र्य॒मा मि॒त्रो नय॑न्ति॒ वरु॑णो॒ अति॒ द्विष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठन । तम् । अंहः॑ । न । दुः॒ऽइ॒तम् । देवा॑सः । अष्ट॑ । मर्त्य॑म् । स॒ऽजोष॑सः । यम् । अ॒र्य॒मा । मि॒त्रः । नय॑न्ति । वरु॑णः । अति॑ । द्विषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तमंहो न दुरितं देवासो अष्ट मर्त्यम् । सजोषसो यमर्यमा मित्रो नयन्ति वरुणो अति द्विष: ॥
स्वर रहित पद पाठन । तम् । अंहः । न । दुःऽइतम् । देवासः । अष्ट । मर्त्यम् । सऽजोषसः । यम् । अर्यमा । मित्रः । नयन्ति । वरुणः । अति । द्विषः ॥ १०.१२६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 126; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - न अंहः, न दुरितम्
पदार्थ -
[१] हे (देवास:) = देवो ! (तं मर्त्यम्) = इस मनुष्य को (अंहः) = कुटिलता (न अष्ट) = व्याप्त नहीं होती । (न दुरितम्) = ना ही कोई दुर्गति व्याप्त होती है। न तो वह कुटिल होता है ना ही किसी दुराचरण में फँसता है। (यम्) = जिस को अर्यमा (मित्र: वरुणः) = अर्यमा, मित्र और वरुण (सजोषसः) = समानरूप से प्रीतिवाले हुए हुए (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से (अतिनयन्ति) = पार ले जाते हैं । [२] (अर्यमा) = 'अरीन् यच्छति' = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को काबू करता है। (मित्रः) = 'प्रमीते: त्रायते पाप व मृत्यु से बचाता है। (वरुणः) = 'पापान्निवारयति' पाप को हमारे से दूर करता है। 'मित्र' में 'मेद्यते स्त्रिह्यति' स्नेह की भावना भी है। तथा 'वरुण' में द्वेष निवारण की। ये तीनों ही देव हमारे जीवनों में समानरूप से प्रीतिवाले होते हैं तो हम द्वेष की भावनाओं से सदा ऊपर उठे रहते हैं । उस समय न हम कुटिलता के शिकार होते हैं और न दुराचरण के । हम '
भावार्थ - भावार्थ- अर्यमा, मित्र व वरुण' की आराधना करते हुए द्वेष से ऊपर उठें, कुटिलता व दुराचरण में न पड़ें।
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