ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 126/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुल्मलबर्हिषः शैलूषिः, अंहोभुग्वा वामदेव्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - आर्चीस्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथा॑ ह॒ त्यद्व॑सवो गौ॒र्यं॑ चित्प॒दि षि॒ताममु॑ञ्चता यजत्राः । ए॒वो ष्व१॒॑स्मन्मु॑ञ्चता॒ व्यंह॒: प्र ता॑र्यग्ने प्रत॒रं न॒ आयु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । ह॒ । त्यत् । व॒स॒वः॒ । गौ॒र्य॑म् । चि॒त् । प॒दि । सि॒ताम् । अमु॑ञ्चत । य॒ज॒त्राः॒ । ए॒वो इति॑ । सु । अ॒स्मत् । मु॒ञ्च॒त॒ । वि । अंहः॑ । प्र । ता॒रि॒ । अ॒ग्ने॒ । प्र॒ऽत॒रम् । नः॒ । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा ह त्यद्वसवो गौर्यं चित्पदि षिताममुञ्चता यजत्राः । एवो ष्व१स्मन्मुञ्चता व्यंह: प्र तार्यग्ने प्रतरं न आयु: ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । ह । त्यत् । वसवः । गौर्यम् । चित् । पदि । सिताम् । अमुञ्चत । यजत्राः । एवो इति । सु । अस्मत् । मुञ्चत । वि । अंहः । प्र । तारि । अग्ने । प्रऽतरम् । नः । आयुः ॥ १०.१२६.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 126; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 8
विषय - प्रतरं प्रतारि
पदार्थ -
[१] हे (यजत्राः) = पूजनीय अथवा संगतिकरण के द्वारा त्राण करनेवाले (वसवः) = वसुओं, हमारे जीवनों को उत्तम बनानेवाले देवो ! (यथा) = जैसे (ह) = निश्चय से (त्यद्) = उस (गौर्यम्) = गौरवर्णा गाय को (चित्) = भी यदि षितां [सितां ] पाँवों में बँधी हुई को (अमुञ्चत) = मुक्त करते हो । (एवा उ) = इसी प्रकार ही (सु) = अच्छी प्रकार (अस्मत्) = हमारे से (अंहः) = पाप व कुटिलता को (विमुञ्चत) = पृथक् करो । इस कुटिलता ने ही तो हमारी वास्तविक उन्नति को रोका हुआ है । यह हमारे पाँवों में बेड़ी के रूप में पड़ी हुई है। इससे मुक्त होने पर ही हम आगे बढ़ पाएँगे। [२] हे (अग्ने) = अग्रगति के साधक प्रभो! इस प्रकार कुटिलता को दूर करके आप (नः आयुः) = हमारे जीवन को (प्रतरं प्रतारि) = खूब ही बढ़ाइये । पाप से आयुष्य कम हो जाता है, पुण्य से आयुष्य में वृद्धि होती है ।
भावार्थ - भावार्थ - कुटिलता के बन्धन से मुक्त करके प्रभु हमारे जीवनों को दीर्घ बनाएँ । इस सूक्त के प्रथम सात मन्त्रों में अन्तिम शब्द 'अति द्विषः ' हैं । द्वेष से मार्गभ्रष्ट होकर हम जीवन की मर्यादाओं को तोड़ बैठते हैं। सात बार द्वेष से ऊपर उठने की प्रार्थना करके हम जीवन में सातों मर्यादाओं का पालन करने का संकल्प करते हैं। आठवें मन्त्र में कहा गया है कि कुटिलता से ऊपर उठकर ही मनुष्य दीर्घजीवी बनता है। इन सब द्वेषों व कुटिलताओं को भुलाने में रात्रि सहायक होती है । नींद में चलने जाने पर हम द्वेष को भूल जाते हैं। प्रातः उठते हैं तो कलवाला क्रोध शान्त हो चुका होता है। सो अगला सूक्त रात्रि का स्तवन करता है। सूक्त का ऋषि ही 'रात्रिः भारद्वाजी' है, रात्रि शक्ति का भरण करनेवाली तो है ही । इस रात्रि में निद्रा में रमण करनेवाला व्यक्ति ही प्रातः फिर से हल जोत पाता है सो 'कुशिक:' [to plough, share वाला] है अथवा कौशेते=पृथिवी पर शयन करनेवाला यह कुशिक उत्तमता से अपने में शक्ति को भरनेवाला 'सौभरः' है । यह रात्रि-स्तवन करता हुआ कहता है कि-
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