Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 14 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - यमः देवता - यमः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प॒रे॒यि॒वांसं॑ प्र॒वतो॑ म॒हीरनु॑ ब॒हुभ्य॒: पन्था॑मनुपस्पशा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तं सं॒गम॑नं॒ जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ दुवस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रे॒यि॒ऽवांस॑म् । प्र॒ऽवतः॑ । म॒हीः । अनु॑ । ब॒हुऽभ्यः॑ । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तम् । स॒म्ऽगम॑नम् । जना॑नाम् । य॒मम् । राजा॑नम् । ह॒विषा॑ । दु॒व॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्य: पन्थामनुपस्पशानम् । वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परेयिऽवांसम् । प्रऽवतः । महीः । अनु । बहुऽभ्यः । पन्थाम् । अनुऽपस्पशानम् । वैवस्वतम् । सम्ऽगमनम् । जनानाम् । यमम् । राजानम् । हविषा । दुवस्य ॥ १०.१४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (प्रवतः) = [प्रकृष्ट कर्मवतः ] उत्कृष्ट कर्मों वाले, (महीः) = [मह् पूजायाम्+इ] पूजा व उपासना करने वालों को (अनु) = अनुकूलता से (परेयिवांसम्) = सुदूर स्थानों से भी प्राप्त होनेवाले प्रभु को (हविषा) = हवि के द्वारा पूजित करनेवाले होवो । प्रभु अज्ञानियों के लिये दूर से दूर होते हैं । वे ही प्रभु ' पश्यत्विस्व हैव निहितं गुहायाम्' ज्ञानियों के लिये यहाँ शरीर में ही हृदय-गुहा के भीतर निहित होते हैं। अज्ञानियों के लिये दूर हैं, ज्ञानियों के लिये वे यहीं हृदय-गुहा में निहित, समीपतम हो जाते हैं। इस प्रकार हृदयगुहा में प्रभुदर्शन के लिये आवश्यक है कि हम उत्कृष्ट कर्मों में लगे रहें [प्रवत्] तथा प्रातः सायं उस 'एकतत्व' = अद्वितीय सत् प्रभु का उपासन करनेवाले हों [महि] [२] वे प्रभु ही इन (बहुभ्यः) = अनेकों उपासकों के लिये (पन्थाम्) = जीवनमार्ग को (अनुपस्पशानम्) = अनुकूलता से दिखलानेवाले होते हैं। 'सोम्यानां भृमिरसि ' = वे प्रभु इन शान्त सोम्य स्वभाव वाले उपासकों को अज्ञानवश विरुद्ध दिशा में जा रहे हों तो, मुख मोड़कर ठीक दिशा में चलानेवाले होते हैं। [३] वे प्रभु (वैवस्वतम्) = ज्ञान की किरणों वाले हैं। अपने उपासकों के हृदयों को इन ज्ञान किरणों से उज्ज्वल करनेवाले हैं। इस ज्ञान के प्रकाश में ही ये उपासक पथभ्रष्ट नहीं होते । [४] (जनानां संगमन) = ये प्रभु लोगों के एकत्रित होने के स्थान है। इस प्रभु में अधिष्ठित होने पर सब मनुष्य परस्पर एकत्व का अनुभव करते हैं। 'एक ही प्रभु के हम सब पुत्र हैं' यह भावना उन्हें परस्पर बाँधनेवाली होती है । [५] वे प्रभु (यमम्) = हृदय में स्थित होकर सब का नियमन करनेवाले हैं तथा (राजानम्) = सूर्य, चन्द्र व तारे आदि सभी लोक-लोकान्तरों की गति को व्यवस्थित [regulated], करनेवाले हैं। [६] इस प्रभु का उपासन हवि के द्वारा होता है। दानपूर्वक अदन ही उस प्रभु की सच्ची उपासना है । यज्ञशेष का सेवन करता हुआ पुरुष ' त्यक्तेन भुञ्जीथा:' इस प्रभु निर्देश का पालन करता है और प्रभु का प्रिय होता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - उत्कृष्ट कर्मों वाले उपासकों को प्रभु प्राप्त होते हैं। इन विनीत उपासकों को ही प्रभु मार्गदर्शन करते हैं। वे प्रभु ज्ञान की किरणों वाले हैं। हमें परस्पर एकत्व का अनुभव करानेवाले हैं। नियामक व शासक प्रभु का पूजन यही है कि हम यज्ञशेष का सेवन करें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top