ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
य॒मो नो॑ गा॒तुं प्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑ । यत्रा॑ न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: परे॒युरे॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒मः । नः॒ । गा॒तुम् । प्र॒थ॒मः । वि॒वे॒द॒ । न । ए॒षा । गव्यू॑ति॒र् अप॑ऽभ॒र्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । यत्र॑ । नः॒ । पूर्वे॑ । पि॒तरः॑ । प॒रा॒ऽई॒युः । ए॒ना । ज॒ज्ञा॒नाः । प॒थ्याः॑ । अनु॑ । स्वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ । यत्रा न: पूर्वे पितर: परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या३ अनु स्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठयमः । नः । गातुम् । प्रथमः । विवेद । न । एषा । गव्यूतिर् अपऽभर्तवै । ऊँ इति । यत्र । नः । पूर्वे । पितरः । पराऽईयुः । एना । जज्ञानाः । पथ्याः । अनु । स्वाः ॥ १०.१४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
विषय - मार्ग का आक्रमण
पदार्थ -
[१] (प्रथमः यमः) = [ प्रथविस्तारे] सम्पूर्ण जगत् में विस्तृत अर्थात् उस सर्वव्यापक व सर्वनियामक प्रभु ने (नः) = हमें (गातुम्) = मार्ग का विवेद ज्ञान दिया है। (उ) = निश्चय से (एषा गव्यूतिः) = यह मार्ग (अपभर्तवा) = अपहरण के लिये (न) = नहीं होता । अर्थात् उस सर्वव्यापक [प्रथमः ] सर्वनियामक [यमः] प्रभु से उपदिष्ट मार्ग पर चलने से हम इस संसार में विषयों से आकृष्ट नहीं हो जाते । [२] यह वह मार्ग है (यत्रा) = जिस पर (नः) = हमारे (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले (पितरः) = रक्षणात्मक कार्यों में लगे हुए लोग (परेयुः) = चले हैं। वस्तुतः इस प्रभु से उपदिष्ट मार्ग पर चलने से ही वे अपना पूरण कर पाये हैं। इस मार्ग ने उनके जीवनों में न्यूनताओं को नहीं आने दिया । [३] (एना) = इस मार्ग से चलने के द्वारा (जज्ञाना:) = [ जनी प्रादुर्भावे] अपनी शक्तियों का प्रादुर्भाव व विकास करनेवाले लोग ही (पथ्या:) = [पथि साधवः] उत्तम मार्ग पर चलनेवाले होते हैं और (अनुस्वा:) = उस प्रभु के अनुकूल व प्रिय होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु से उपदिष्ट मार्ग पर ही चलना चाहिए। यही मार्ग हमारे पूरण व विकास के लिये होता है ।
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