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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 145/ मन्त्र 6
    ऋषिः - इन्द्राणी देवता - उपनिषत्सपत्नीबाधनम् छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उप॑ तेऽधां॒ सह॑मानाम॒भि त्वा॑धां॒ सही॑यसा । मामनु॒ प्र ते॒ मनो॑ व॒त्सं गौरि॑व धावतु प॒था वारि॑व धावतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । ते॒ । अ॒धा॒म् । सह॑मानाम् । अ॒भि । त्वा॒ । अ॒धा॒म् । सही॑यसा । माम् । अनु॑ । प्र । ते॒ । मनः॑ । व॒त्सम् । गौःऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ । प॒था । वाःऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप तेऽधां सहमानामभि त्वाधां सहीयसा । मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । ते । अधाम् । सहमानाम् । अभि । त्वा । अधाम् । सहीयसा । माम् । अनु । प्र । ते । मनः । वत्सम् । गौःऽइव । धावतु । पथा । वाःऽइव । धावतु ॥ १०.१४५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 145; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि मैं (सहमानाम्) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का मर्षण करनेवाली इस आत्मशक्ति को (ते उप अधाम्) = तेरे समीप स्थापित करता हूँ। और इस प्रकार (सहीयसा) = शत्रुओं को प्रबलता से कुचलनेवाले इस बल से (त्वा) = तुझे (अभि अधाम्) = सब ओर से धारण करता हूँ । जिधर से भी शत्रु का आक्रमण हो, यह तेरी आत्मिकशक्ति उसका पराभव करती है । [२] इन शत्रुओं के पराभव के होने पर (मां अनु) = मुझे लक्ष्य करके (ते मनः) = तेरा मन (प्रधावतु) = इस प्रकार दौड़े, इव-जैसे कि वत्सम्-बछड़े का लक्ष्य करके (गौः) = गौ दौड़ती है। गौ को बछड़ा जिस प्रकार प्रिय होता है, इसी प्रकार जीव को प्रभु प्रिय हो । (इव) = जैसे (वा:) = पानी (पथा) = निम्न मार्ग से दौड़ता है इसी प्रकार आत्मविद्या के उपासक का मन प्रभु की ओर चले । पानी स्वभावतः निम्न मार्ग की ओर बहता है, इसी प्रकार हमारी वृत्ति स्वभावतः प्रभु की ओर चलनेवाली हो ।

    भावार्थ - भावार्थ - हम आत्मशक्ति सम्पन्न होकर प्रभु की ओर बढ़ चलें । यह सूक्त भोगवृत्ति को नष्ट करके आत्मविद्या की ओर चलने का प्रतिपादन करता है। इस बात के लिये साधनामय जीवन को बितानेवाला 'देवमुनि' अगले सूक्त का ऋषि है। आत्मविद्या के प्रकाश से यह 'देव' है । वाक्संयम रखते हुए विचार करने के कारण यह मुनि है। यह 'इरम्मद' है, गतिशीलता में आनन्द को लेनेवाला है [इर् to go] यह कर्मवीर है नकि वाग्वीर । इसकी साधना एकान्त में चलती है। इस एकान्त की ही प्रतीक 'अरण्यानी' अगले सूक्त की देवता है । अरण्यानी से देवमुनि कहता है-

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