ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 146/ मन्त्र 1
ऋषिः - देवमुनिरैरम्मदः
देवता - अरण्यानी
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अर॑ण्या॒न्यर॑ण्यान्य॒सौ या प्रेव॒ नश्य॑सि । क॒था ग्रामं॒ न पृ॑च्छसि॒ न त्वा॒ भीरि॑व विन्दती३ँ ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑ण्यानि । अर॑ण्यान्यि । अ॒सौ । या । प्रऽइ॑व । नश्य॑सि । क॒था । ग्राम॑म् । न । पृ॒च्छ॒सि॒ । न । त्वा॒ । भीःऽइ॑व । वि॒न्द॒तीँ॒३ँ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरण्यान्यरण्यान्यसौ या प्रेव नश्यसि । कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विन्दती३ँ ॥
स्वर रहित पद पाठअरण्यानि । अरण्यान्यि । असौ । या । प्रऽइव । नश्यसि । कथा । ग्रामम् । न । पृच्छसि । न । त्वा । भीःऽइव । विन्दतीँ३ँ ॥ १०.१४६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 146; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - वनस्थ का ग्राम को भूल जाना
पदार्थ -
[१] 'अरण्यानी' शब्द में 'अर' गति का वाचक है, ण = ज्ञान तथा 'य' प्रत्यय उत्तम अर्थ में आया है। एवं अरण्यानी का भाव है 'गति व ज्ञान में उत्तम' । (अरण्यानि) = गति व ज्ञान की साधना में प्रवृत्त महिले! (अरण्यानि) = वन का आश्रय करनेवाली, गृहस्थ से ऊपर उठकर वनस्थ होनेवाली महिले! (या) = जो तू (प्र नश्यसि इव) = हमारे लिये अदृष्ट-सी हो गई है। घर पर होने की अवस्था में तो सदा मिलना-जुलना होता ही रहता था, पर अब तो दर्शन दुर्लभ ही हो गया है। कथा (ग्रामं न पृच्छसि) = कैसे तू ग्राम के विषय में कुछ पूछती ही नहीं। क्या तुझे घरवालों की, पड़ोस की, अपने ग्रामवासियों की स्मृति तंग नहीं करती ? उन सबको भूलना तेरे लिये कैसे सम्भव हुआ ? (त्वा भीः न विन्दति इव) = तुझे यहाँ वन में भय - सा नहीं लगता क्या ? हिंस्र पशुओं का, वहाँ ग्राम से दूर स्थान में भय तो होता ही होगा ! सो वहाँ तू निर्भयता से कैसे रह रही है। [२] इस मन्त्रार्थ में तीन बातें स्पष्ट हैं- वानप्रस्थाश्रम में जाकर हम [क] एकान्त साधना करें [प्रनश्यसि इव] बहुत मिलना-जुलना साधना में बाधक होता है। [ख] वनस्थ होकर फिर नगर के समाचारों को जानने की हमारे में उत्सुकता न बनी रहे। फिर घरवालों के सुख-दुःख में ही हम शामिल न होते रहें । अन्यथा पुत्र-पौत्रों का मोह मन को घर में रखेगा। [ग] एकान्त वन में आश्रम बनाकर साधना में प्रवृत्त रहें ।
भावार्थ - भावार्थ - गृहस्थ से ऊपर उठकर हम वनस्थ हों वहाँ हमारा जीवन क्रियाशील हो, हम स्वाध्याय में सतत प्रवृत्त रहें। घरों को भूलने की करें।
- सूचना - स्त्रीलिङ्ग का अरण्यानी' शब्द स्पष्ट कर रहा है कि स्त्रियों ने भी वनस्थ होना है 'वनं गच्छेत् सहैव वा' (मनु) पति-पत्नी दोनों वनस्थ होकर पति-पत्नी नहीं रहते, साधना में साथी होते हैं ।
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